उस दिन भी मैं जब शाम को सोसाइटी के पार्क में गया तो व्हील चेयर पर उन बुजुर्ग व्यक्ति को शून्य में निहारते पाया,प्रतिदिन मैं उन्हें वही ऐसे ही देखता आ रहा था।चेहरा देखते ही लगता था, वे असीम पीड़ा झेल रहे हैं।वैसे तो आजकल पश्चिम सभ्यता अपनाने के कारण कोई किसी से कोई मतलब नही रखता,परआज मैं अपने को रोक नही पाया और मैं उस बुजुर्ग व्यक्ति के पास जा पहुंचा।मैंने हाथ जोड़
कर उन्हें नमस्ते की तो उन्हें जैसे झटका सा लगा,उन्होंने अपनी गर्दन घुमाकर इधर उधर देखा, उन्हें शायद लग रहा था कि मैंने किसी ओर को नमस्ते की है,और किसी को उस दिशा में ना पाकर उन्होंने धीरे से दोनो हाथों को उठा कर मेरी नमस्ते का उत्तर दिया।मैं उनके पास ही पड़ी बेंच पर बैठ गया।मैं समझ नही पा रहा था कि उस बुजुर्ग से बात कैसे शुरू की जाये?फिर एक संकोच सा भी मन मे था कि मेरे बात करने से वे बुजुर्ग किसी संशय में ना आ जाये?पर असल बात तो ये थी कि मेरे मन मे ही प्रश्न था कि मैं उनसे क्यों बात करना चाहता था और क्या बात करना चाहता था?
उस सोसायटी में आये मुझे मात्र तीन माह ही हुए थे,सोसायटी अच्छी बड़ी और सुंदर तथा सुव्यवस्थित थी।शनिवार रविवार को मेरी छुट्टी रहती थी सो मैं सोसायटी के सेंट्रल पार्क में समय बिताने को चला जाता।अक्सर मैं पार्क में उन बुजुर्ग को व्हीलचेयर पर उदास सा बैठे देखता।पहली बार मे ही उनमें मुझे अपने पापा की झलक दिखलाई दी।मैं तो उन्हें देख अचकचा ही गया था मेरे पापा को तो स्वर्ग सिधारे दो वर्ष बीत चुके थे,फिर वे यहां कहाँ?
ये उत्सुकता ही मुझे उनकी ओर आकर्षित करती थी।मुझे उनमें अपने पापा का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता।उस दिन झिझकते हुए मैं उनके पास चला ही गया।कुछ देर बाद मैंने उनसे कहा,अंकल मैं भी इसी सोसायटी में सामने वाले टावर में रहता हूं।इसी शहर में जॉब करता हूँ।
एक गहरी सांस लेकर वे बोले मैं भी इसी सोसाइटी में दिन पूरे कर रहा हूँ।उनका उत्तर ही उनकी वेदना प्रदर्शित कर रहा था।
बात आगे चलती कि एक नवयुवक आ गया और बोला बाबूजी आपकी दवाई का समय हो गया है, कहकर वह उनकी व्हीलचेयर को लेकर चला गया।इत्तेफाक से वह नवयुवक मुझे मार्ट में मिल गया,वह वहां दूध लेने आया था।मुझे देख शायद वह पहचान गया था,क्योंकि उसने मुझे देख नमस्ते की थी।मैंने उससे अंकल के हाल चाल पूछे और साथ ही यह भी पूछा कि उनके पास कौन रहता है।
सुनकर मुझे झटका लगा कि वे निपट अकेले उस नवयुवक के साथ रहते हैं,वह युवक जिसका नाम राजू था,अंकल के पास 24 घंटे रहता था,और उनका सब काम करता था इस एवज में उसे 20 हजार रुपये मिलते थे और खाना पीना सब अंकल के साथ हो ही जाता था।राजू से ही पता चला कि अंकल का बेटा लंदन में रहता है, उसे आये हुए एक वर्ष से भी अधिक समय हो गया है,बस कभी कभी वीडियो कॉल कर लेता है।वही उसने शादी भी कर ली है, लड़की वही नौकरी करती है, लेकिन हिंदुस्तानी है,अंग्रेज नही।
अब मेरी समझ मे आ गया था,अंकल क्यों उदास रहते हैं, बेटे की उपेक्षा और अकेलेपन का दंश ही उन्हें कहने को मजबूर करता था कि मैं भी इसी सोसायटी में दिन पूरे कर रहा हूं।
मैं अपने पापा से बेइंतिहा प्यार करता था और वो मुझे।उनसे अलग रहने की कल्पना तक मन मे नही आती थी,पर नियति को भला कैसे रोका जा सकता है।पापा ने तो हमे हॉस्पिटल तक जाने का अवसर तक नही दिया बस यूं ही एक झटके में हमे अनाथ कर चले गये।
जब मुझे पता लग गया कि अंकल का बेटा उन्हें एक प्रकार से बेसहारा ही नौकर के सहारे छोड़ गया है।पर निकलते ही पंछी उड़ गया था।मुझे उनका बेटा अभागा लगा।उस दिन के बाद मेरा अंकल से और लगाव हो गया था।धीरे धीरे वो मुझसे खुलने लगे थे।मैंने राजू से कह दिया था,कि अंकल को कोई भी जरूरत हो या उनकी तबियत खराब लगे तो वह तुरंत मुझे खबर करे।मैं अब अपना खाली
समय अंकल के पास गुजारने लगा था।मैं चाहता था,वे अकेलेपन के अंध कूप से बाहर निकल आएं।अब वे अपनी पुरानी यादें मुझसे शेयर करने लगे थे,कैसे वे अपने मुन्ना को अपनी पीठ पर घुमाये फिरते थे,कैसे उसकी हर जिद पूरी करते,कैसे उसे अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलायी।मुन्ना भी अपनी मां से अधिक उनके पास ही रहता।जब उसकी माँ स्वर्ग चली गयी तो मुन्ना बस उनके पास ही सिमट कर रह गया था।
फिर वह दिन भी आ ही गया जब मुन्ना बोला पापा जॉब लंदन में मिल गया है, जा रहा हूं, जल्द आपको भी बुला लूंगा।अंकल बता रहे थे,सुनकर ही उनके नीचे से जमीन खिसक गई थी,उन्हें बिना मुन्ना के रहने की आदत रह ही नही गयी थी,कैसे रहेंगे उसके बिना?पर उसके लंदन जाने के उत्साह को देखते हुए,वे कुछ न कह सके,सोच रहे थे,मुन्ना उनकी नम आंखों को देख उनके मनोभाव को
समझ लेगा,पता नही समझा या नही,पर उड़ गया, अपने पापा को अकेले छोड़ कर।गया तो ऐसा गया फिर लौटा ही नही।पर पापा को बहुत प्यार करता है ना सो यह फ्लैट ले दिया,नौकर राजू दे दे दिया।और अब क्या चाहिये?कहते कहते अंकल अपने आंसुओ को अपना मुंह दूसरी ओर करके पौछने लगे।मेरे सामने संकट था,मैं कैसे क्या सांत्वना दूँ?उनका बेटा तो मैं उन्हें नही दे सकता था,बेटे का कर्त्तव्य अवश्य निभा सकता था, जिसका निर्वहन करने का मैं प्रयास कर रहा था।
एक दिन मुझे ऑफिस से आने में देर हो गयी।लेकिन आते ही मैं अंकल के फ्लैट पर चला गया,फ्लैट की एक चाबी अब मेरे पास भी रहती थी,इसलिये मैंने चुपचाप दरवाजा खोला और अंदर चला गया। अंकल की बात अपने बेटे से हो रही थी,मैंने बस इतना ही सुना, मुन्ना अब तो लौट आ रे।कैसे तुझ बिन जिंदा रहूं?मुझे नही पता मुन्ना ने क्या उत्तर दिया,पर उसके बाद अंकल एकदम शांत हो गये।मैं उन्हें डिस्टर्ब किये बिना ऐसे ही उनसे मिले बिना वापस आ गया।बेटे से हुई बात के प्रभाव समाप्त न हो,ऐसा सोचकर मैं वहां से चला आया।
अगले दिन से ही मैंने महसूस किया कि अंकल गहरी उदासी में चले गये हैं, मैं अधिकतर समय उनके साथ गुजारता, पर मुन्ना की कमी को तो मैं पूरा नही कर सकता था।उनके चेहरे पर खोये खोये रहने के भाव गहरे होते जा रहे थे,वे बहुत कम बोलने लगे थे।मुझसे उनकी यह स्थिति देखी नही जा रही थी।मैंने बिना उन्हें बताये, उनके बेटे का नंबर उनके मोबाइल से नोट कर लिया।
मेरा मुन्ना से कोई परिचय तो था नही तो मैंने उसे बस एक मैसेज भेज दिया-
नमस्ते,
मुझे तो आपका नाम भी नही मालूम,बस अंकल आपको मुन्ना कहकर ही पुकारते थे,सो यही नाम पता है।मुझे कोई हक नही,मैं आपका कोई नही,पर अंकल में मुझे मेरे पापा दिखाई देते हैं, मेरे पापा मुझे छोड़ दो वर्ष पूर्व अनन्त यात्रा पर चले गये थे,तब से मैं तो अनाथ ही हो गया था।पर जबसे अंकल को देखा तो लगा अरे पापा तो ये रहे,वे कहां गये, वे तो सामने है।
मुन्ना जी,अंकल ने तो मुझे अपने रूप में मुझे पापा दे दिये, पर मैं उन्हें मुन्ना न दे सका।मैं जानता हूँ उनकी सांस की डोर अपने मुन्ना को देखने मे अटकी पड़ी है।लौट आओ मुन्ना जी-लौट आओ अपने पापा के पास।
मैसेज भेज तो दिया,सोच रहा था पता नही मुन्ना कैसे रिएक्ट करेगा।पर मुझे आश्चर्य हुआ जब अगले दिन मुन्ना का छोटा सा मैसेज मिला उसने लिखा था मैं परसो सुबह पहुंच रहा हूं।मेरी प्रसन्नता का ठिकाना नही था।मैं भावावेश में अंकल के पास गया और बोला अंकल अपना मुन्ना आ रहा है,आपके पास,बस परसो सुबह पहुंच जायेगा।
अंकल जी ने कोई प्रतिक्रिया नही दिखायी, शून्य में निहारते रह गये, मुझे ताज्जुब हुआ,जिस मुन्ना के लिये वे हमेशा तड़फते रहे,आज जब उसके आने का समाचार सुनकर भी वे शांत थे।अचानक बोले अरे बेटा इधर तो आ,मैं अचकचा कर उनके पास चला गया।उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और मेरे
हाथ को पहले माथे से लगाया,फिर अपने सीने से लगाकर बोले।बेटा एक बार पापा बोल ना।मैं आश्चर्य से उनके चेहरे को देख रहा था,वे फिर बोले,बोल ना पापा।मेरी आँखों से आंसू ढलक पड़े,मैं तो कब से उन्हें पापा ही मानता था?आज सचमुच में वे अंकल से मेरे पापा बन चुके थे।मैं अतिरेक में उनसे पापा पापा कह कर चिपट गया।
मैं मुन्ना को लेने एयरपोर्ट चला गया।मुन्ना का फ़ोटो पहले देखा था सो उसे पहचान लिया,मुन्ना को मैं अपनी कार से अपनी सोसाइटी में लिवा लाया।फ्लैट पर पहुंचकर देखा तो राजू जोर जोर से रो रहा है। अजीब से सी आशंका से मैं और मुन्ना लपककर फ़्लैट में घुसे तो पाया राजू दहाड मार कर रो रहा है और अंकल जो अब मेरे भी पापा बन चुके थे एक ओर निस्पंद ,निश्चल पड़े थे,वे जा चुके थे मुन्ना की माँ के पास।
मैं अवाक सा खड़े का खड़ा रह गया,कल ही तो अंकल ने मुझे पापा कहने को विवश किया और आज चले भी गये।मैं एक बार फिर अनाथ हो गया था।उधर मुन्ना अपने पापा से चिपटकर विलाप कर रहा था।मैं जानता हूँ पापा आप क्यों चले गये?मैं पापी हूँ, अपने पापा को मैंने ही खोया है।उस दिन फोन पर मैंने तल्ख लहजे में कह दिया था ना कि क्या बच्चो की तरह कहते रहते हो लौट आ,लौट आ,मैं समझ गया आपको वही बात लग गयी,वही मेरी बेरुखी आपको हमेशा के लिये मुझसे दूर ले गयी।मुझे माफ़ कर दो पापा।
मैं दरवाजे के पास खड़ा असमंजस में था।मैं तो उनका कोई नही था,फिर भी वे मुझे बेटा मानने लगे थे,जो बेटा था वह जीते जी उन्हें अकेलेपन की आग में झोंक गया था,निष्ठुर कही का।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक
#अपनो की पहचान