बड़ा भाई – कविता झा ‘अविका’ : Moral Stories in Hindi

रिक्शे पर बैठी ही थी आरोही कि आसमान में डेरा जमाए काले बादलों ने बरसना शुरू कर दिया। वैसे  तो काफी देर से उसे लग रहा था बारिश होने वाली है। उसकी ट्रेन का समय हो रहा था। जल्द से जल्द उसे स्टेशन पहुंचना होगा वरना बहुत देर न  हो जाए और वो कभी अपने भाई की कलाई पर राखी ना बांध पाए। यह ख्याल आते ही उसके हाथ पैर कांपने लगे। जिस भाई से कई साल से गुस्से में थी उसी भाई को देखने के लिए उसका मन तड़प उठा था।

रात भर ऊहापोह की स्थिति से गुजरा था उसका मन। जब मां ने फोन पर रोते हुए बताया कि…

” भाई का एक्सिडेंट हो गया है और वो आई सी यू में है। वो तेरे पास रक्षाबंधन तक रुककर तुझसे राखी बंधवाने  के लिए ही घर से निकला था और अचानक सामने से आते ट्रक ने उसकी कार को टक्कर मार दी। 

तू आ जा आरोही, भाई को उसके किए की सजा भगवान दे ही रहा है। एक बार  देख ले उसे आकर और माफ कर दे उसकी गलतियों को। वैसे भी कितने साल हो गए तुझे देखे। मांँ को भी भूल गई है तू।” मांँ ने सिसकियों के साथ जब आगे कहा कि…  “तेरा भाई पता नहीं बचेगा या नहीं, उसके सिर पर चोट लगी है और बहुत खून बह गया है। डॉक्टर ने भी उसके बचने की उम्मीद कम ही बताई है। वैदेही तो पास रहकर भी हमसे मिलने नहीं आती। तुम भाई बहनों के झगड़े में मैं पिस कर रह गई। उसके लालच ने ही मुझे मेरी बेटियों से दूर कर दिया है। पर जैसा भी है तुम्हारा भाई है जो अब जिंदगी मौत के बीच अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है।”

मांँ की वो सिसकियां आरोही को अंदर तक दहला गई थीं।

नहीं भाई को कुछ नहीं होगा‌। उसकी राखी उसके भाई की रक्षा करेगी जो बचपन से उसे बांधती आई थी फिर जब मनमुटाव ने दीवार खड़ी हो गई तब भी तो हर साल राखी भेजना नहीं छोड़ा था उसने। एक राखी कुरियर करती थी और एक भाई को याद कर उसकी सलामती के लिए हनुमान जी की मूर्ति को बांधती थी। 

 उसे पुरानी सारी बातों को भुलाकर अपने भाई को देखने जाना ही होगा। अपने पति विभोर से जब पूछा तो उनका सिर्फ इतना ही जवाब था…

“तुम्हें जो ठीक लगे वह करो। मैंने तो कभी नहीं रोका है तुम्हें कहीं जाने से पर मेरे पास समय नहीं है कि मैं तुम्हारे साथ जाऊं तुम्हें छोड़ने और लाने। पैसों की चिंता मत करना और टिकट भी तत्काल में कटवा देता हूँ। बच्चों को यहांँ सब संभाल लेंगे तुम चिंता मत करो बस जाकर अपनी मांँ को संभालो। जरूरत हो तो मुझे बता देना मुझसे जो बनेगा मैं करूंगा।”

वो रिक्शे में बैठी अपनों की कमी महसूस कर रही थी। नितान्त अकेले ही तो उसे इतना लंबा सफर तय करना है। उससे भी ज्यादा भाई बहन के बीच आई दूरी तय करनी है।

उसके भीतर का दर्द बारिश की बुंदों के साथ आंँसुओं के बहाने बाहर आ रहा था। 

इस सावन के मौसम का बचपन से ही उसे बेसब्री से इंतजार रहता था। जब भाई को उसकी पसंद की राखी बांधने के लिए महीने भर पहले से ही राखी बनाने में जुट जाती थी। अपने घर के पीछे वाली गली के उस खाली प्लाट में जहाँ बरगद के पेड़ के नीचे झूला झूलते थे सभी और हाथों में मेंहदी लगाना और भाई का उसे चिढ़ाना। शिव मंदिर में पूजा करने जाना गली के बच्चों के साथ तब भाई भी उसके साथ साया बनकर उसके पीछे-पीछे चलता। पन्द्रह अगस्त आने से पहले ही पतंग उड़ाने का अभ्यास करने के लिए भाई की खुशामद करना। वो पतंग उड़ाता तो मांजे की चकरी आरोही के हाथ में ही थमाता और कहता बहन तू मेरे लिए लकी है। देख अब कैसे धराधर सबकी पतंगें काटता हूंँ।

 कितनी यादें जुड़ी थी उसकी अपने पुराने घर, गली और मोहल्ले के साथ जिसे वह कभी भूल नहीं पाएगी पर क्या अपने भाई बहन के रिश्ते को भूल सकेगी कभी। 

“बहनजी रिक्शा साईड करके रोक दूं। बारिश बहुत तेज हो गई है अब एक कदम भी रिक्शा आगे नहीं बढ़ा पाऊंगा।”

 रिक्शे वाले ने कई बार बोला पर आरोही तो अपने बचपन के गलियारों में इस तरह खोई थी कि उसे खुद के भींगने का एहसास ही नहीं हो रहा था।

आखिरकार जब आरोही के कानों तक रिक्शे वाले की आवाज नहीं गई तो उसने सड़क के एक किनारे रिक्शा रोक लिया और आरोही का सामान उतारते हुए बोला,”उतर जाइए बहन जी, आपका पूरा सामान भी भींग गया है।”

 वो अतीत से निकल वर्तमान में लौटी। रिक्शे वाले में उसे अपना भाई दिखा जब वो बहन जी कह कर उसे रिक्शे से उतरने के लिए कह रहा था। भाई भी तो कभी प्यार से तो कभी गुस्से से उसे बहन जी ही कहता था।

“भईया मुझे स्टेशन पहुंचा दो पहले, कहीं ट्रेन ना छूट जाए।”

” रांची से दिल्ली जाने वाली गाड़ी में तो अभी दो घंटे बाकी हैं , थोड़ी देर बाद बारिश रुक जाएगी। आप निश्चिंत रहिए मैं आपको समय पर गाड़ी में बिठा दूंगा।”

“हांँ वो तो है… पर अगर बारिश नहीं रुकी तो क्या करेंगे।”

“आप चिंता मत करो बहन मैं कुछ इंतजाम करता हूंँ। आज रेनकोट रखना भूल गया था अपने रिक्शे में।

आप थोड़ी देर यहांँ चाय की टपरी के पास रुकिए मैं बरसाती का इंतजाम करता हूंँ।”

आरोही का एक मन हुआ विभोर को फोन करके बुला ले पर उसकी इम्पोर्टेंट मीटिंग चल रही होगी ऐसे में उसे परेशान नहीं करेगी यही सोचकर वो चाय की टपरी के आगे लगी टीन के नीचे खड़ी हो गई। टीन पर पड़ती पानी की बूंदों का शोर बढ़ता ही जा रहा था। 

वहीं उसके पास ही एक औरत अपने तीन बच्चों को बारिश से बचाने का प्रयत्न कर रही थी। उसकी गोद में तीन चार साल की एक बच्ची थी जिसने गुलाबी रंग की फ्रॉक पहनी थी और अपनी मांँ की उंगली पकड़े सात आठ साल का एक लड़का खड़ा था और उसका हाथ पकड़े उसी की उम्र की एक लड़की। उन बच्चों और उस औरत में आरोही को अपनी माँ और भाई बहन दिख रहे थे। ऐसे ही तो उसकी माँ ने भी आरोही और उसके भाई बहन को हर मुसीबत से बचाया था फिर क्यों बड़े होते ही हम सब आपसी प्यार भूल गए और सिर्फ धन सम्पत्ति के लिए मनमुटाव कर बैठे। 

“मांँ भूख लगी है।”

लड़का बोला तो उस औरत ने अपने झोले से एक बिस्कुट का पैकेट निकाल कर दिया। लड़के ने बिस्किट का पैकेट खोल कर अपनी दोनों बहनों को पहले दिया फिर खुद खाने लगा।

बचपन में मिली सीख क्यों बाद में भूल जाते हैं हम। उसी लड़के की तरह ही तो मेरा भाई भी अपने हिस्से की टॉफी बिस्कुट सब हम दोनों बहनों में बांटकर ही खाता था। फिर क्यों पापा का घर जिसमें हमारा बचपन बीता उसे बेचने से पहले उसने एक बार भी हम दोनों बहनों को बताया तक नहीं कि बहन इसे बेचकर नई जगह पर नया मकान बनवा रहा हूँ। आखिरी बार  आकर कुछ दिन इस घर में हम सब साथ रह लें। इतना तो कर ही सकते थे।मां ने तो पिता जी के जाने के बाद भाई के हर फैसले पर अपनी स्वीकृति लेनी ही उचित समझी। बेटा जहाँ जैसे रखेगा वो उसके साथ खुश रहेगी।

कितनी यादें जुड़ी थी उस घर से हमारी जिसे पैसों के लालच में भाई ने बेचते वक्त जरा सा भी नहीं सोचा कि हम पर क्या बीतेगी जब हमें पता चलेगा। 

आरोही ने पापा के उस घर में अपना हिस्सा तो कभी नहीं मांगा था बस वो साल दो साल पर जब मांँ के पास जाए तो उस घर में ही अपना समय बिताएं । वहां हर कोने में पापा की छवि नजर आती थी उसे।

 लोग कहते हैं कि मांँ से मायका होता है और आरोही के पिता की मौत के बाद उसका मायका ही छूट गया। 

 भाई ने अपने दोस्तों के बहकावे  में आकर पिता की मौत के साल भर बाद ही उस घर को बेच दिया कि कहीं बहनें उस घर पर अपना हिस्सा ना मांंगे। वैदेही के पति और बच्चे जो कोर्ट कचहरी के कायदे नियम जानते थे उन्होंने भी इस बात पर आपत्ति जताई कि ऐसे कैसे वो उस घर को बेच कर अकेले सारा पैसा खुद रख सकते हैं। वैदेही के पति और बच्चों के साथ उसके भाई की खूब लड़ाई मार पीट हुई और बात पुलिस थाने तक आ गई।  आरोही के बारे में झूठी अफवाह फैला दी थी भाई ने कि उसने संपत्ति के लिए उस पर केस कर दिया है। 

आरोही बहुत ही आहत हुई थी अपने भाई शंशाक की बातों से। बात इतनी ज्यादा बढ़ गई थी कि उन तीनों में कई सालों से बातचीत बिल्कुल बंद हो गई थी।

बारिश थम गई थी और रिक्शा वाला अपने रिक्शे की सीट सुखा रहा था। 

“आईए बहन आपको स्टेशन पहुंचा दूं। देखिए मैंने कहा था ना कि बारिश रुक जाएगी।”

आरोही अपना सामान ले रिक्शे पर बैठी। आसमान साफ हो गया था और हल्की धूप भी निकल गई थी। उसके मन के भी कड़वाहट वाले वो बादल छंट कर भाई के स्नेह की धूप ले आए थे।

उसका मन भी यादों के भंवर जाल में कभी धूप तो कभी छाया हो रहा था। कभी रिश्तों की गरमाहट तो कभी ठंडे पड़े रिश्ते में फिर से जान आ रही थी।

एक एक कर पुरानी बीती बातें याद आ रही थी उसे।

थोड़ी ही देर बाद वो ट्रेन में थी और अगले दिन उसी हॉस्पिटल में थी जहांँ उसका भाई आई सी यू में मशीनों के बीच घिरा था। मशीनों से खेलने वाला शंशाक आज सांस लेने के लिए भी मशीन के भरोसे था।

भाई को इस हाल में देख आरोही की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। मां ने उसके कंधे पर हाथ रखा। 

“आ गई तूं बिटिया।”

“हांँ मांँ मैं आ गई। भाई को कुछ नहीं होगा वो बिल्कुल ठीक हो जाएगा।”

“बस अब भगवान ही सहारा हैं।”

“मांँ दीदी नहीं आईं, उनके यहां से कोई नहीं आया?”

“नहीं कोई नहीं आया। उनके घर खबर भेजी थी पर उनका दिल नहीं पिघला। आज उसके इलाज के पैसे नहीं हैं हमारे पास और कहीं से कोई उम्मीद नहीं है।”

“मांँ आप चिंता मत करो। सब ठीक हो जाएगा।”

“जा बेटी थोड़ा आराम कर ले इतना लंबा सफर करके आई है। थक गई होगी, जा कुछ बनाकर खा लेना।”

 आरोही की मां ने उसे घर की चाबी पकड़ाई।

आरोही पहले मंदिर गई और अपने हनुमान जी से विनती करने लगी मेरे भाई को ठीक कर दीजिए। मेरी राखी की लाज रखिए।

थोड़ी देर मंदिर में बैठने के बाद अपनी बहन के घर गई। दरवाजा वैदेही ने ही खोला और जब आरोही को सालों बाद अपने सामने देखा तो उसे गले लगा लिया।

“दीदी चलो मेरे साथ भाई के पास।”

“तेरे जीजाजी ने साफ मना किया है। वो पुरानी बातें नहीं भूल पा रहे।”

“दीदी सब कुछ भूलकर अभी हॉस्पिटल चलो।”

वैदेही ने अपने पति की तरफ बहुत ही दयनीय भाव से देखा और हाथ जोड़कर अपनी बहन के साथ भाई को देखने के लिए और मां से मिलने की अनुमति मांगी।

” कल को हमारे बच्चे भी अगर ऐसा ही करेंगे तो बताईए ना हम क्या करेंगे। दोनों भाईयों में भी अगर इसी तरह मनमुटाव हुआ तो। आज भाई और मां को मेरी जरूरत है, मुझे जाने दीजिए। इतने सालों से आपकी बात मानती आईं हूंँ आज आप मेरी बात मान लीजिए और भूल जाईए वो सारे पुराने ज़ख्म।”

उनका दिल भी पसीज गया और वो भी चलने को तैयार हो गए। 

“चलो मैं भी साथ चलता हूंँ।”

 बेटे से कहा, “गाड़ी निकाल और ले चल हमें जहांँ तेरी मौसी बता रही हैं।”

“मौसी आप कब आए?” बच्चों ने आरोही के पैर छूकर प्रणाम करते हुए पूछा।

“बस आज अभी थोड़ी देर पहले ही पहुंची हूंँ दिल्ली। राम मनोहर लोहिया अस्पताल में मामा का इलाज चल रहा है।”

“आज मामा को हमारी जरूरत पड़ी तो उन्होंने आपको भेजा है हमारे पास।”

“नहीं बेटू मामा तो इस हालत में हैं हीं नहीं कि वो कुछ बोल पाएं। उनकी हालत बहुत गंभीर है।”

“ओह! माफ करना मौसी, हमने गलत समझा। क्या करें परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हो गई थी कि हमें उनसे नफरत हो गई थी उनके व्यवहार के कारण।”

आरोही के साथ उसकी बहन जीजा और उनके बेटे सब हॉस्पिटल में थे। मांँ वैदेही को देखकर माफी मांगने लगी..

“बिटिया माफ कर दे तेरी माँ मजबूर थी।”

शंशाक के इलाज के खर्च में दोनों बहनों ने कोई कमी नहीं छोड़ी। दो दिन बाद रक्षाबंधन का त्योहार था, दोनों बहनों ने शंशाक के हाथ में राखी और उसकी लंबी उम्र की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना भगवान ने सुन ली और कुछ ही दिन बाद शंशाक हॉस्पिटल से घर आ गया। दोनों बहनों से अपने किए की माफी मांगते हुए दो शर्मिंदा हो रहा था। 

“चंद पैसों के लालच और लोगों के बहकावे में आकर ही मैंने तुम दोनों बहनों का दिल दुखाया। हो सके तो मुझे माफ़ कर दो।”

“भाई जो बीत गया उसे भूल जाते हैं खून के रिश्ते इतने कमजोर नहीं होते।”

तीनों भाई बहन वही बचपन के दिनों को याद करते हैं और उन पलों को फिर से जीना चाहते हैं। 

महीने भर मायके में रहने के बाद आरोही वापस अपने ससुराल आ रही थी इस बार मीठी यादों के साथ। भले पिता का वो घर नहीं रहा पर बड़ा भाई भी तो पिता के समान ही है। उनके बीच का मनमुटाव खत्म हो चुका था।

कविता झा ‘अविका’ 

रांची, झारखंड

#अपनों की पहचान

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