सम्पति का मोह – लतिका पल्लवी : Moral Stories in Hindi

चाची जी, आप! आप गाँव से कब आईं? मैं तो कब से आपसे मिलने गाँव जाने का सोच रही थी, पर जाना नहीं हो पा रहा था। समय ही नहीं मिल रहा था। कभी मुझे छुट्टी मिल रही थी तो आपके बेटे को नहीं, और आपके बेटे को छुट्टी मिलती तो मुझे नहीं। आप तो मुझे बिना बताए ही चली गईं। मैं तो आपसे मिल भी नहीं पाई। कितने दिनों बाद आपसे मिलना हुआ। बहुत ही अच्छा लगा।

“अरे बाबा! बस करो, चाची जी को सिर्फ सुनाती ही रहोगी कि उनके लिए कुछ खाने-पीने के लिए भी लाओगी?” रागिनी की जेठानी प्रिया ने उसे चुप कराते हुए कहा।

“हाँ, अभी लाई।” कहकर रागिनी रसोईघर में चली गई।

चाची जी सोचने लगीं — मैं कब गाँव गई? इसे किसने कहा? मैं अकेली गाँव क्यों जाऊँगी? यह बात छोटी बहू को पता नहीं है कि जब कभी भी गाँव में कुछ पूजा होती है तो मैं इन्हीं लोगों के साथ जाती हूँ, फिर उसने ऐसा क्यों कहा?

रागिनी की चाची सास अनामिका जी उन लोगों के घर से थोड़ी दूर पर रहती थीं। उनका अपना बच्चा नहीं था, इसलिए वे रागिनी के पति और जेठ को ही अपने बच्चों की तरह प्यार करती थीं। रागिनी के सास–ससुर की मृत्यु उसकी शादी से पहले ही हो गई थी, इसलिए उसके विवाह में सारे नेगचार उसकी चाची सास ने ही किए थे, जिसके कारण वह उन्हें सास की तरह ही सम्मान देती थी और उसके माँ–पापा भी उन्हें समधी जैसा ही मानते थे। यह बात उसकी जेठानी को पसंद नहीं थी।

थोड़ी देर बाद रागिनी चाय लेकर आई और बोली —
“लीजिए चाची जी, चाय पीजिए।”

रागिनी की आवाज़ से चाची जी अपनी सोच से बाहर निकलीं और अभी उससे गाँव जाने वाली बात पूछने ही वाली थीं कि प्रिया ने कहा —
“चाची जी, चाय पी लीजिए, नहीं तो ठंडी हो जाएगी।”

जब भी अनामिका जी रागिनी से पूछना चाहतीं, प्रिया कुछ न कुछ कह देती और उन्हें रागिनी से बात नहीं करने देती थी। ऐसे ही बात करते-करते दोपहर से शाम हो गई। रागिनी का आज वर्क फ्रॉम होम था, इसलिए वह काम भी कर रही थी और बीच-बीच में आकर अनामिका जी से बातें भी कर लेती थी।

शाम को फिर से चाय देने के बाद उसने पूछा —
“चाची जी, आज खाने में क्या बनाऊँ?”

“नहीं बेटा, खाने को रहने दो। अभी तुम्हारे चाचा जी आते ही होंगे।”

“उससे क्या हुआ? चाचा जी अपने किसी दोस्त के यहाँ गए हैं?” रागिनी ने पूछा।

“नहीं, वो दिसम्बर का महीना है न, इसलिए ऑफिस गए हैं। साल में एक बार पेंशन ऑफिस जाना पड़ता है।” चाची ने बताया।

“आप लोग इसीलिए गाँव से यहाँ आए हैं?”

अभी अनामिका जी कुछ कहतीं, तब तक प्रिया आ गई और बात को दूसरी तरफ मोड़ दिया। तभी चाचा जी आ गए। अनामिका जी ने रागिनी को उनके लिए चाय बनाने को कहा।

चाय पीने के बाद उन्होंने घर चलने की बात की। यह सुनकर रागिनी को आश्चर्य हुआ! उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे।

अनामिका जी ने कहा —
“बहू, कहाँ खो गईं? हम लोग जा रहे हैं।”

“हाँ-हाँ, ठीक चाची जी, रुकिए, मैं अभी आती हूँ।” कहकर रागिनी अपने कमरे में यह सोचते हुए जा रही थी — आज ही चाची आईं और अभी ही जा भी रही हैं। इतनी जल्दी क्या है?

सोचते-सोचते वह कमरे में गई और आलमारी से एक बैग निकालकर लाई और लाकर अनामिका जी को देते हुए कहा —
“पिछले महीने मेरे भाई का विवाह था, जिसमें मैं गई थी। पापा ने यह कपड़ा आपके और चाचाजी के लिए दिया है।”

“तुम्हारे भाई की शादी में जब तुम्हारे पापा ने हमें निमंत्रण नहीं दिया था तो यह कपड़ा भेजने की क्या ज़रूरत थी? कपड़ा लेकर हम क्या करेंगे? जब मन में सम्मान ही नहीं है तो यह दिखावा करने की क्या आवश्यकता है? तुम्हारे पापा ने हमें अच्छे से बता दिया कि अपने सास–ससुर और चाचा–सास ससुर में अंतर होता ही है।”

चाचा जी ने पत्नी को डाँटते हुए कहा —
“जो भी समधी जी ने भेजा है, उसे खुशी-खुशी लो और चुपचाप घर चलो।”

रागिनी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। उसने बस इतना ही कहा —
“मुझे अभी कुछ समझ नहीं आ रहा है। आपको कुछ गलतफहमी हो गई है। फिर भी यदि आपको कुछ बुरा लगा है तो मैं अपने पापा की तरफ से आपसे माफ़ी माँगती हूँ। पर आप इस तरह से मत जाइए। आपकी गाड़ी कितने बजे की है, बताइए। मैं जल्दी से आपके रास्ते के लिए खाना बना देती हूँ। सफ़र में साथ में कुछ खाने के लिए रहे तो अच्छा रहता है।”

अनामिका जी गुस्से में थीं ही। बस गुस्साते हुए बोलीं —
“अब माफ़ी माँगने के लिए क्या, दस मिनट के रास्ते के लिए भी खाना दोगी? तुम्हारे पापा ने भिजवाया है क्या?”

रागिनी अब पूरी तरह से हैरान हो गई थी। दस मिनट? हमारा गाँव यहाँ से बारह–चौदह घंटे की दूरी पर है और चाची ‘दस मिनट’ क्यों बोल रही है? चाची को गुस्से में शायद समझ नहीं आ रहा है।

वह ज़्यादा सोच भी नहीं पा रही थी क्योंकि ऑफिस से लगातार फोन आ रहा था। उसने कहा —
“चाची जी, मुझे अपनी बात रखने के लिए कुछ समय दीजिए। मैं फोन पर बात करके आती हूँ। तुरन्त ऑफिस का काम निबटा कर आती हूँ, फिर अच्छे से सिलसिलेवार ढंग से बात करते हैं।”

यह कहकर वह फोन पर बात करने चली गई। उसके जाने के बाद प्रिया ने कहा —
“चाची जी, उसे बहुत समय लगेगा। वह ऐसे ही कहती है, पर ऑफिस का फोन बीच में काट कर तो नहीं आ सकती। और उसका जब भी फोन आता है तो वह घंटा-घंटा भर बात करती है। आप लोग निकलिए, नहीं तो आपकी नौकरानी आकर लौट जाएगी। बात बाद में भी हो जाएगी। मैं रागिनी को बता दूँगी कि आप जल्दी में थीं।”

अनामिका जी को भी लग रहा था कि कुछ गड़बड़ है। उन्होंने सोचा — बात को सुलझाकर ही जाना सही होगा। इसलिए उन्होंने कहा —
“रहने दो बड़ी बहू, मैं अपनी नौकरानी को फोन कर देती हूँ कि वह नहीं आए। मैं आज तुम लोगों के यहाँ से ही खाना खाकर जाऊँगी।”

प्रिया को समझ आ गया कि आज उसकी पोल खुलने वाली है और उसकी साजिश का पर्दाफ़ाश होने वाला है, पर अब वह चाहकर भी इसे रोक नहीं पा रही थी।

चाचा जी ने कहा भी —
“चलो, इन बातों में क्या पड़ना? जो बात बीत गई, उसे भूल जाना ही बेहतर है।”

पर अनामिका जी ने कहा —
“नहीं, कुछ बात है जो मुझे जाननी है।”

“यह तो बहुत ही अच्छा है कि आप हमारे साथ खाना खाएँगी। मैं तो बस इसलिए कह रही थी कि रात ज्यादा होने पर चाचाजी को कहीं गाड़ी चलाने में परेशानी न हो जाए।” प्रिया ने बचने की आख़िरी कोशिश की।

“घर दूर ही कितना है? अगर दिक़्क़त होगी तो बच्चों में से कोई छोड़ देगा।” चाची जी के यह कहते ही प्रिया का मुँह बन गया। अब चाची को उस पर शक होने लगा।

क्योंकि इधर छह महीनों से बड़ी बहू बार-बार उनके घर जा रही थी और उन्हें अपने घर आने का मौका ही नहीं दे रही थी। रागिनी के प्रति उनके मन में मैल भी वही भर रही थी। उसी ने उन्हें बताया था कि रागिनी के भाई का विवाह हो रहा है, पर उन्होंने सिर्फ रागिनी और देवर जी को ही निमंत्रित किया है।

जब भी वह चाची के घर जाती, रागिनी के विरुद्ध कुछ न कुछ कहती। इस तरह से अनामिका जी के मन में रागिनी के प्रति दुर्भावना भर गई थी।

पर रागिनी को देखकर उन्हें लगा — ऐसा तो नहीं लग रहा कि वह मेरे लिए कुछ गलत सोचती होगी।

लेकिन छह महीनों का मैल इतनी जल्दी नहीं धुलता, इसलिए वे गुस्से में उसे और उसके पापा को गलत-सलत बोल गईं। अब उन्होंने सोच लिया कि — नहीं, आज दोनों को एक साथ बैठाकर दूध का दूध और पानी का पानी कर दूँगी। नहीं तो दोनों बहुओं के बीच ज़्यादा दूराव हो जाएगा।

उन्हें क्या पता था कि यह बहुओं के बीच दूराव की बात नहीं थी, बल्कि रागिनी को उनसे दूर करने की साज़िश थी।

अनामिका जी बड़ी बहू को रागिनी के सामने लज्जित नहीं करना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने सीधे-सीधे उससे पूछा —
“तुम्हारे मन में क्या है? तुम्हें छोटी बहू से क्या परेशानी है? तुम मुझसे छोटी बहू की शिकायत क्यों करती हो? तुम क्या करना चाहती हो? देखो, कोई बहाना नहीं चलेगा। मुझे सब समझ आ गया है, इसलिए तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम सच बता दो।”

अब प्रिया को लगा कि सब बताने में ही भलाई है। उसने कहा —
“रागिनी और उसके मायके वाले आप लोगों को बहुत ज्यादा सम्मान देते हैं। तो मुझे लगा कि कहीं आप अपनी सारी संपत्ति देवर जी के नाम न कर दें। इस डर से मैंने आपके और रागिनी के बीच दूरी पैदा करनी शुरू कर दी। मैंने रागिनी से कहा कि चाचा–चाची जी अब गाँव में ही रहेंगे। उसके फोन से मैंने आपका और चाचाजी का नंबर डिलीट कर दिया ताकि वह आपसे बात न कर सके। उसे शक न हो इसलिए मैंने दूसरे का नंबर आप लोगों के नाम से सेव कर दिया। वह जब भी फोन करती तो उधर से ‘रॉन्ग नंबर’ बोलता था। तो मैंने उससे कहा कि गाँव में ऐसा होता है। मैं भी फोन कर रही हूँ तो नहीं लग रहा। उसके पापा ने निमंत्रण के लिए गाँव जाने की बात की तो मैंने कह दिया कि गाँव के एक आदमी से खबर भिजवा दी हूँ। इस तरह से मैंने आपमें और रागिनी में दूरी पैदा कर दी।”

यह सुनकर अनामिका जी ने माथा पीट लिया —
“हे भगवान! तुमने मेरी संपत्ति के लिए इतनी बड़ी साज़िश रची। तुमने यह कैसे सोचा कि दोनों बेटों में मैं बेईमानी करूँगी?”

प्रिया ने अनामिका जी से माफी माँगते हुए कहा —
“चाची जी, अब कभी ऐसी गलती नहीं होगी। मुझे माफ कर दीजिए। रागिनी को मत बताइएगा, नहीं तो उसकी नज़र में मेरी कोई इज्ज़त नहीं रह जाएगी।”

“बहू, इज्ज़त बड़ा–छोटा होने से नहीं होती है। उसे अपने व्यवहार से बनाना पड़ता है, जो तुमने नहीं किया। रागिनी को तो बताना ही पड़ेगा ताकि आगे से वह तुमसे सतर्क रहे।”

लेखिका : लतिका पल्लवी 

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