“मैं तुम्हारी माँ के बंधन मे और नहीं रह सकती …मुझे अलग घर चाहिए जहाँ मैं खुल के साँस ले सकूँ”,पलक रवि को देखते ही ज़ोर से चिल्ला उठी।
बात बस इतनी थी कि सुलभा ने रवि और पलक को पार्टी मे जाता देख कर इतना कहा था कि वो रात दस बजे तक घर वापस आ जाए।और पलक ने इसी बात को तूल दे दिया।और दो दिन बाद ही उसने मीनाक्षी के घर किटी मे मकान ढूंढने की बात भी कह दी।
“मुझे मम्मी जी की गुलामी मे रहना पसंद नहीं है ….।”
“पलक…तुम्हारी तरह एक दिन मैं भी यही सोच कर अपनी सास से अलग हो गई थी”,किटी ख़तम होते ही मीनाक्षी पलक से मुख़ातिब थी।
“तभी तो आप आज़ाद हो”,पलक ने चहक कर कहा तो मीनाक्षी का स्वर उदासी से भर गया,मीनाक्षी पलक से दस वर्ष बड़ी थी।
“नहीं….बल्कि तभी से मैं गुलाम हो गई… जिसको मैं गुलामी समझ रही थी वास्तव मे आज़ादी तो वही थी”।
“वो कैसे”?
“पलक..जब मैं ससुराल मे थी दरवाज़े पर कौन आया मुझे मतलब नहीं था क्योंकि मैं वहाँ की बहू थी…घर मे क्या चीज़ है क्या नहीं इससे भी मैं आज़ाद थी..दोनों बच्चे दादा दादी से हिले थे।मुझे कहीं आने जाने पर पाबंदी नहीं थी..पर कुछ नियमों के साथ…जो सही भी थे..पर जवानी के जोश मे मैं अपने आगे कोई सीमा रेखा नहीं चाहती थी।मुझे ये भी नहीं पसंद था कि मेरा पति आफिस से आकर सीधा पहले माँ के पास जाए”।
“तो..फिर..”,पलक की उत्सुकता बढ़ गई।
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“मैंने दिनेश को हर तरह से मना कर घर अलग ले लिया… और फिर मैं दरवाज़े की घंटी… महरी,बच्चों, धोबी,दिनेश… सबके वक्त की गुलाम हो गई।अपनी मरज़ी से मेरे आने जाने पर भी रोक लग गई… क्योंकि कभी बच्चों का होमवर्क कराना है तो कभी उनकी तबीयत खराब है।हर जगह बच्चों को ले नहीं जा सकते।
अकेले भी नहीं छोड़ सकते।तो मजबूरन पार्टियां भी छोड़नी पड़ती हैं….जबकि ससुराल मे रहने पर ये सब बंदिश नहीं थीं।ऊपर से मकान का किराया अलग…फिर दिनेश भी अब उतने खुश नहीं रहते”,मीनाक्षी की आँखें नम हो उठीं।
“फिर आप वापस क्यों नहीं चली गयीं?”
“किस मुँह से वापस लौटती…?इन्होंने एक बार मम्मी से कहा भी था पर पापा ने ये कह कर साफ़ मना कर दिया कि,
“एक बार हम लोगों ने बड़ी मुश्किल से अपने आप को संभाला है….अब दूसरा धक्का खाने की हिम्मत नहीं है… बेहतर है अब तुम वहीं रहो”।
“ओह!…”,
“पलक…घर से बाहर क़दम रखना बहुत आसान है…पर जब तक आप माँबाप के आश्रय मे रहते हैं आपको बाहर के थपेड़ों का तनिक भी अहसास नहीं होता… माँ बाप के साथ बंदिश से ज़्यादा आज़ादी होती है… पर हमें वो भी पसंद नहीं होती।पर एक बार बाहर निकलने के बाद आपको पता चलता है कि आपने ख़ुद अपने पाँव मे जंज़ीरें डाल लीं।तुम भी सोच समझ कर ये क़दम उठाना”।
पर मन ही मन ये गणित दोहराते हुए पलक एक क्षण मे ही निर्णय ले चुकी थी…उसे मीनाक्षी जैसी गुलामी नहीं चाहिए।
मंजू सक्सेना