रीमा , चलो बाज़ार घूम आते हैं, सब्ज़ी भी ले आएँगे और इस बहाने मन भी बहल जाएगा ।
हाँ, आप चले जाइए । मैं तो कहती हूँ कि मंडी चले जाओ । ताज़ी और सस्ती सब्ज़ियाँ तो वहीं मिलती हैं ।
तुम चलो , जो चाहिए, ख़रीद लेना…..
ना मैं नहीं । मुझे तो कपड़े बदलने पड़ेंगे ।
हाँ कपड़े बदल लो । तब तक मैं स्कूटी निकालता हूँ ।
नहीं, मैं तो नहीं जाऊँगी । दो घंटे पहले ही तो नहा कर कपड़े बदले , अब नहीं…..
तो मैं भी नहीं जाता ….. जब भी कहीं जाने को कहो ….. कपड़े बदलने पड़ेंगे, कपड़े बदलने पड़ेंगे….. अगर कहीं आना-जाना नहीं, कपड़े बदलने का दुख है तो ख़रीदती क्यों हो ……
बस अभी खाना खाया है ना इसलिए आलस आ रहा है । जाओ ,आप ले आओ ना सब्ज़ी ।
नहीं, मैं सब्ज़ी नहीं लाऊँगा । जो बनाना होगा, बना लेना ।
इतना कहकर नमन अपनी पत्नी रीमा के बिना ही बड़बड़ाते हुए स्कूटी उठाकर निकल गया । उधर पति के जाने के बाद रीमा टेलीविजन देखने में व्यस्त हो गई । शाम होने पर रीमा चिंता में पड़ गई कि
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क्या बनाएँ ? घर में तो एक भी सब्ज़ी नहीं पड़ी, ओह ! बेकार ही आलस किया । अच्छे ख़ासे नमन स्कूटी पर बैठाकर ले जाते। अब क्या करूँ …..चलो कुछ उड़द दाल की बड़ियाँ पड़ी हैं , आज का काम तो चल जाएगा ।
उस दिन रीमा ने सोचा —- अब आगे से आलस नहीं करूँगी।
पर दो दिन बाद ही पड़ोस में से कीर्तन का बुलावा आ गया । पहले तो रीमा सुबह से ही शोर मचाती रही—
आज तो कीर्तन में जाना है….. क्या पहन कर जाऊँ ?
लंच के बाद नमन ने याद दिलाया— रीमा , तुम्हें मिसेज़ खन्ना के यहाँ कीर्तन में जाना है । उठ जाओ , आरती होने पर जाओगी क्या ?
मैं नहीं जाती ….. अब कौन कपड़े बदले ….. बिना बात आधे घंटे के ऊपर एक जोड़ी कपड़े मैंले करो ।
भली मानस… कपड़े तो पहनने और बदलने के लिए ही होते हैं। पड़ोस में अच्छा नहीं लगता, जाओ चली जाओ । तुम्हें कौन सा कपड़े हाथ से धोने हैं ….
नमन के बार-बार कहने पर भी रीमा टस से मस नहीं हुई । नमन ने मन ही मन सोचा ——
इस रीमा की बच्ची को सबक़ सिखाना ही पड़ेगा । ये तो रोज़ का क़िस्सा हो गया । नमन को पता था कि केवल एक ही जगह है, जहाँ जाने में रीमा को न तो आलस आता और न ही कपड़े बदलना झंझट लगता , वह था अपनी सहेलियों के साथ मिलना । एक दिन कुछ यूँ हुआ कि रीमा रसोई में होली की सफ़ाइयों में व्यस्त थी और उसका फ़ोन बाहर चार्जिंग पर लगा था । रीमा ने पति से कहा——
ज़रा फ़ोन का ध्यान रखना, किसी का आए तो मुझे बता देना । कहीं ऐसा ना हो कि मुझे सुनाई ना दे । नमन ने गर्दन हिलाकर हाँ भर ली । तभी पाँच/सात मिनट बाद ही रीमा की सहेली का फ़ोन आया तो नमन ने फ़ोन उठाया और धीमे से बातचीत की पर उसने इस बारे में रीमा को कुछ नहीं बताया । यहाँ तक कि कॉल डीटेल भी डिलीट कर दी । रीमा काम करती हुई बीच – बीच में फ़ोन चैक करती पर कोई मिस्ड कॉल नहीं थी ।
दो दिन बाद ग़ुस्से से लाल रीमा ने नमन से पूछा—- तुमने विभा के फ़ोन के बारे में मुझे क्यों नहीं बताया ?
पहले तो नमन ने अनजान बनने की कोशिश की पर फिर बोला— अच्छा…….वो ….. उन्हें तो मैंने बहाना बना दिया था ।
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तुम्हें बहाना बनाने के लिए किसने बोला था ? मैं कब से इंतज़ार कर रही थी सब सहेलियों के इकट्ठे होने का ….. वो सब आई …. और तुमने ….
मुझे क्या पता ? मैं ने सोचा कि तुम रसोई में व्यस्त हो । कहाँ कपड़े बदलती फिरोगी …. इसलिए तुम्हारी मैंने……
इससे ज्यादा सुनने की ताक़त रीमा में नहीं थी , बिना कुछ कहे चुपचाप कमरे में चली गई और अपने तह लगे कपड़ों को हैंगर में टाँगने लगी ताकि कहीं जाना हो तो तुरंत पहनकर चल पड़े क्योंकि उसकी आलस करने की आदत उसी पर उल्टी पड़ गई थी ।
करुणा मलिक
बहुत ही अच्छी पोस्ट और सही ही कहा गया है कि हमारा आलस ही हमारे सफल जीवन का दुश्मन है।