नेम-प्लेट – पूनम : Moral Stories in Hindi

रमाकांत जी की पिचतरवीं सालगिरह, घर पर बेटा बहू अपने दोनों बच्चों के साथ इसी मौक़े के लिए, ख़ास शाम तक आने वाले थे। रमाकान्त जी की पत्नी शालिनी सुबह से ही बेटे बहू के आने की ख़ुशी में तरह तरह के व्यंजन तैयार कर रही थी।

बेटा विशाल, बहू नैना और दोनों पोते बहुत प्यारे और शरारती विराज और विहान।

“कुछ हमारे लिए भी बना है या आज बस बेटे का ही इंतेज़ार है।” रमाकान्त जी, अपनी पत्नी शालिनी को उत्साहित देख कर बोले।

“जी बनाया है आपके लिए भी। ये लीजिए दही भल्ले, खा कर बताइए कैसे बने हैं।” शालिनी जी जिनसे उनकी ख़ुशी समेटे ही नहीं सिमट रही थी एक प्लेट रमाकान्त जी की और बढ़ा कर बोली।

“लो जी, यहाँ भी हमें टेस्टर बना दिया। अब आपने बनाए हैं तो लज़ीज़ ही होंगे।” रमाकान्त जी हसने लगे और सुबह से रसोई में लगी अपनी पत्नी को पास बैठा कर बोले।

“थोड़ी इमली की चटनी और मिलेगी।” रमाकान्त जी ने चुटकी ली।

“आपका गला पकड़ जाएगा, मैंने जितनी देनी थी उतनी डाल दी है बस।” शालिनी जी भी अब पति की ठिठोलियाँ समझ रही थी।

शाम ढलने लगी। इंतेज़ार की एक एक घड़ी यूँ कट रही थी मानो सदियाँ हों। इससे पहले आठ माह हो गए थे, शालिनी जी को बेटे, बहू को सामने देखे और पोतों को दुलार किए हुए।

यूँ तो बेटा बस घंटे भर के फ़ासले पर रहता था।

वीडियो कॉल पर कभी कभी बात भी हो जाती थी पर दादी का प्यार, जो दिल अपने पोतों को छूने को मचलता था, उनके नन्हे हाथों को थाम उन्हें पुचकार करने को करता था।

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बेटा कहता था, “माँ मॉडर्न ज़माना है देखो समय की कितनी बचत हो जाती है आपस में मिल भी लेते है और देख भी लेते है। आने जाने में तो कितना समय ज़ाया हो जाता है। आप सोचो दूसरे कमरे में ही हैं हम।”

बेटा नहीं समझता पोतों की अठखेलियाँ जिन्हें दादा दादी केवल निहारना भर चाहते हैं। उनका पल-पल बड़े होना खट्टी मीठी बातें बताना।

खैर……….. बेटा कहता है तो ठीक ही कहता होगा। उसे भी तो हमारी उतनी ही याद आती होगी, आख़िर बेटा है हमारा। उसको कितने काम होते हैं दो दिन ही तो छुट्टी के मिलते हैं उस पर भी यहाँ हमसे मिलने आएगा तो घंटा तो आने जाने में ही बर्बाद होगा। उस पर हम बुड्ढे भी कहाँ उनके यहाँ रह सकते हैं उनके दोस्तों और मिलने वालों को आना होता है उन्हें बच्चों को बाहर घूमाने ले जाना होता है। हम बीच में ओपरे ही लगते है।

पों…पों …..पों….. पों ….. शालिनी जी की तंद्रा टूटी।

“आ गया तुम्हारा लाडला” रमाकान्त जी, शालिनी जी को चौंक कर उठते हुए देख कर मुस्कुरा कर बोले।

“आ गए तुम लोग, मेरी तो आँख ही लग गयी थी।” बेटे बहू को आशीर्वाद देते हुए शालिनी जी बोली।

“अरे कहाँ भागे जा रहे हो पहले दादी के पैर तो छू लो आशीर्वाद तो ले लो। ये आज कल के बच्चे भी ना घोड़े पर सवार रहते हैं सुनते ही नहीं।” बच्चे कार से उतरते ही गलियारे में भागने लगे जिन्हें उत्पात मचाते देख नैना बोली।

“अरे कोई बात नहीं, दादा दादी के घर शैतानी नहीं करेंगे तो कहाँ करेंगे।” शालिनी जी भी मन ही मन बहुत ख़ुश होती हुई बेटे बहू को लेकर भीतर आने लगी।

जमुना को मदद के लिए बुला कर सब इंतज़ाम शालिनी जी ने एकदम दुरुस्त कर के रखे थे ताकि थकी हुई आयी बहू को भी कोई काम ना करना पड़े और वे भी ज़्यादा से ज़्यादा समय उन लोगों के बीच ही रह पाए। जमुना कई बरस से शालिनी जी के यहाँ काम करती थी तो घर की हर चीज़ से अच्छी तरह वाक़िफ़ थी।

पहले केक काटा गया, बच्चों के लिए ग़ुब्बारे भी फुलवाए थे जिनसे बच्चे खेलने में मगन थे।

“पापा ये आप के लिए कुर्ता पायजमा। देखिए आपको खूब जँचेगा।” बेटे बहू ने रमाकान्त जी को तोहफ़ा देते हुए कहा।

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“वाह यह तो बहुत खूबसूरत रंग है। पीला रंग तो तुम्हारे पापा को बहुत पसंद है।” शालिनी जी कुर्ते का रंग देख कर उसे प्यार से सहलाते हुए बोली।

“पापा, पापा, दादू को सर्प्राइज़ वाला गिफ़्ट दिखायो ना। जल्दी जल्दी। ” विहान ने पापा को दादू को गिफ़्ट देते हुए देखा तो शोर मचाते हुए कहा।

“दादू हम आपके लिए सर्प्राइज़ लाए।” विराज भी शोर मचाने लगा।

“अरे हाँ, ये देखिए पापा हम घर पर लगाने के लिए नयी नेम प्लेट लाए हैं।” विशाल ने अपने बैग से एक पैकेट निकालते हुए कहा।

“इसकी क्या ज़रूरत थी लगी तो है अभी पहले वाली।” रमाकान्त जी बोले।

” देखो माँ ये नयी है नए स्टाइल की और कितनी बढ़िया लग रही है इसपे हमने बहुत ही नए स्टाइल से हम सब का नाम भी लिखवाया है

वि….शाल

वि….राज

वि….हान” विशाल ने रमाकान्त जी को अनसुना कर दिया।

नेम प्लेट सचमुच बहुत स्टाइलिश थी और एक ही बार बड़ा सा ……वी…. लिखा था और ….शाल, ….राज ,…. हान एक दूसरे के नीचे लिखा हुआ था।

“वाह बहुत खूबसूरत है। सबका नाम ………… पापा का नाम नहीं लिखा बेटा इसपर।” शालिनी जी नेम प्लेट को हाथ में लेकर बच्चों के नाम निहारने लगी और अचानक बोली।

“पापा का नाम जँच ही नहीं रहा था अलग सा है ना हम सब से…….”रमाकान्त” फिर बाद में………… बाक़ी शब्द विशाल ने मुँह में ही बंद कर लिए पर बिना कहे ही नेम प्लेट ने ही सब कुछ कह दिया था।

“आप लोग भी ना जब कुछ बढ़िया स्टाइलिश लाता हूँ यूँ ही कमियाँ पहले निकालने लगते हो तभी तो यहाँ आने को मन ही नहीं करता।” विशाल ग़ुस्से में आ चुका था।

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बेटे के मुँह से दोबारा ना आने की बात सुन शालिनी जी तो सकपका गयी।

“नहीं नहीं बेटा ऐसे ना कहो। बहुत ही बढ़िया लग रही है ये और बहुत पसंद भी आयी है हमें। क्यूँ जी आप भी कहिए ना कुछ। कितनी खूबसूरत है ये नेम प्लेट।” आँखों में अचानक आयी घबराहट और नमी को छुपाए शालिनी जी बहुत ही मिट्ठी मुस्कान के साथ बोली।

“ये घर तुम्हारा ही तो है। तुम्हारे बिना सूना सूना हो जाता है। तुम्हारी माँ तो सारा समय तुम्हीं लोगों को याद करती है। वो जो वीडियो पर बातें करती है …….पोतों की बातें……सारा समय मुझे बताती है।” रमाकान्त जी अपनी पत्नी के मन को पूरी तरह भाँप चुके थे।

“लाओ पूरानी नेम प्लेट मुझे उतार कर दे दो। वैसे भी अब बेकार ही लगती थी मैं भी कहाँ अब वकालत कर रहा हूँ तो “रमाकान्त प्रसाद (advocate) ” लिख के रखने का भी क्या फ़ायदा।” कह कर रमाकान्त जी ने अपने नाम की नेम प्लेट को एक साफ़ कपड़े में लपेट कर अपने सीने से लगा लिया और एक ओर मुड़ गए ताकि कोई उनके भावों को ना जान पाए और भीतर जाते हुए प्रतीत होने लगे।

सब कुछ अनदेखा सा हो गया।

दरवाज़े पर नेम प्लेट लगा कर विशाल बच्चों को दिखा रहा था “देखो तुम्हारा नाम लिखा है, तुम्हारे घर पर।”

शालिनी जी का ममत्व बच्चों को खेलते और ख़ुश होते देख मुस्कुरा रहा था।

“चलो चलो बच्चों अंदर जाओ जमुना आंटी ने खाना तैयार कर दिया है।” इतना सुनते ही दोनों बच्चे अंदर की और भागे और नैना भी उन्ही के पीछे चल दी।

“विशाल, अब ये अपनी नेम प्लेट उतार कर अपने पास ही रख लो, और इस घर को अपने प्यार और पसीने की छाँव देने वाले के नाम से वापस सजा दो। जिसकी चीज़ हो उसी के नाम से सज कर जंचती है। लाइए अपनी नाम की प्लेट कहाँ लेकर चल दिए आप …….।” शालिनी जी रमाकान्त जी के कंधे पर हाथ रख उन्हें रोकते हुए बोली।

विशाल फटी आँखों से माँ को देख रहा था और बुजुर्ग पति -पत्नी एक दूजे को प्यार से निहार रहे थे।

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अपने बच्चों को एक नज़र देखने भर को तड़पते बुजुर्ग माता पिता जो हर बात में यही ढूँढने की कोशिश करते हैं की किसी तरह उनके बच्चे बिना परेशान हुए उनके लिए थोड़ा समय निकाल लें। उधर बच्चे जाने किस दिखावे की होड़ में गुम हैं।

आपकी क्या राय है, पत्नी के चेहरे और दिल में मुस्कान सजाने के लिए पिता का निर्णय सही था या पति के स्वाभिमान से खेलने वाले बेटे को दो टूक जवाब देकर माँ ने बिना अंजाम की परवाह किए जो निर्णय लिया वो सही है।

आपको मेरी यह रचना कैसी लगी कॉमेंट और लाइक करके बताए। आपके सुझावों का स्वागत है

आपकी सखी

पूनम

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