मिठू की लोहड़ी – विमला गुगलानी : Moral Stories in Hindi

रिनी और मिनी दोनों बहने आज बहुत खुश थी। रिनी दस साल की थी और मिनी तीन साल की । उनका

छोटा भाई मिठू तो सिरफ दस महीने का था।वैसे तो खुशी की वजह लोहड़ी का त्यौहार भी था। लेकिन उससे

ज़्यादा खुशी थी मिठू की पहली लोहड़ी । जैसा कि हमारे देश में कई जगह और ख़ास तौर पर पंजाब में लड़कों के

जन्म के बाद और शादी के बाद पहली लोहड़ी अत्यंत धूमधाम से मनाई जाती है। कई तो होटलों में और कुछ लोग घर

में ही अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार खाने पीने का और विशेष तौर पर नाच गाने का इंतज़ाम करते है।ढ़ोली की

थाप और हल्की सर्दी में रेवड़ी, मूँगफली , गचक , भुगा के अलावा और भी बहुत सा खाने का सामान और सबसे बड़ी

बात जलती लकड़ियों का सेक। पुराने समय में तो चूल्हें में लकड़ियाँ ही जलाई जाती थी , लेकिन समय बदलने के

साथ बहुत कुछ बदल गया है। गाँवों में तो फिर भी कहीं कहीं चूल्हे जलते होगें, वरना तो गैस का ही चलन है।

सर्दी के मौसम में जो मजा आग के पास बैठने का है, वो हीटर में नहीं। कई बच्चों ने तो इस

प्रकार से आग जलती भी कम ही देखी होगी। रिनी को तो फिर भी कुछ कुछ पता था, लेकिन छोटी मिनी के लिए

कौतूहल था। वो तो लोहड़ी के आस पास ही घूम रही थी। शाम से ही रिनी के घर में मेहमान आने शुरू हो गए थे।

दोनों भुआ तो तीन दिन से ही यही पर थी। मिनी के ननिहाल से भी लोग आ रहे थे। गल्ली मुहल्ले के इलावा और

भी कई लोकल दूर पास के रिशतेदार और मित्र वगैरह भी बुलाए गए थे। घर के पास ही टेंट लगा था, जहाँ पर रात के

खाने की तैयारी चल रही थी। ऐसे माहौल का आंनद तो सभी उठाते है, मगर बच्चों को तो विशेष खुशी होती है। रिनी

की ममी यानि कि साक्षी नन्हें मिठू को तैयार कर रही थी। बहुत प्यारी ड्रैस थी उसकी, भांगड़ा टाईप की। आजकल

सब बना बनाया मिलता है। मिठू था भी बहुत सुंदर प्यारा सा बच्चा, काले घने बालों में चमकता प्यारा सा मुखड़ा ।

साक्षी उसकी सुंदर सी छवि पर बलिहारी हो रही थी। कहीं उसी की नजर न लग जाए, तो उसने माथे के कोनें में काला

टीका लगा दिया।

रिनी उसके पास ही खड़ी थी, और भाई को तैयार करने में माँ की मदद भी कर रही थी। तभी रिनी को

न जाने क्या सूझी कि उसने कहा, ममी मेरे मन में एक बात आ रही है , कुछ पुछू? हाँ हाँ बेटा क्यों नहीं, पूछो क्या

पूछना चाहती हो। रिनी ने धीरे से कहा, ममी मुझे अपना तो याद नहीं, मगर मिनी का थोड़ा थोड़ा याद है। क्या हमने

मिनी की लोहड़ी भी इसी तरह मनाई थी, मुझे तो नहीं लगता। ऐसी लोहड़ी तो हम पहली बार मना रहा है। और मेरी

भी क्या? कोई फ़ोटो तो है नहीं, जबकि हमारे बचपन की और कितनी तस्वीरें हैं? साक्षी तो कुछ देर रिनी का मुँह

ताकती रह गई, उसे कोई जवाब ही नहीं सूझ रहा था। उसे तो सपने भी नहीं सोचा था कि उसे ऐसी स्थिति का

सामना करना पड़ेगा। साक्षी पढ़ी लिखी, नौकरी करती थी। उसके पति देवांश भी अच्छी नौकरी पर थे। देवर , ननद ,

मायका सब पढा लिखा परिवार । लेकिन मान्यताएँ कुछ कुछ वही पुरानी।

रिनी मिनी दोनों बेटियों से सबको बहुत प्यार था। हम कितने भी प्रगतिशील हो जाए , लेकिन कहीं

न कहीं सोच तो पुरानी है ही। साक्षी को याद है कि जब रिनी के जन्म की खबर मिली तो एक बार तो सबके चेहरे

पर उदासी सी थी, भले ही अगले ही पल सब सँभल गए। उसकी माँ और सास दोनों थी वहीं पर। माँ तो कुछ नहीं

बोली पर सास ने ये कहा था कि चलो लक्ष्मी आई है। बेटा , बेटी दोनों ही प्यारे है। और तो कुछ नहीं मगर अगर

पहली बार बेटा हो जाए तो आगे की चिंता नहीं रहती। धीरे धीरे रिनी ने अपनी बाल सुलभ हरकतों से सबका मन मोह

लिया था। सब उससे बहुत दुलार करते थे, लेकिन उसकी खुशी इस तरह नहीं मनाई जिस तरह का स्वागत मिठू का

हुआ है। तब कोई लडू नहीं बाँटे, न ही किसी ने बधाई दी। साक्षी ने अपने स्कूल में सहयोगियों को छोटी सी पार्टी

जरूर दी थी, वो भी उनके कई बार माँगने पर।

मिनी के जन्म के समय तो वो मायके में आ गई थी। कहीं न कहीं सबके मन में ये था कि शायद

जगह बदलने से कुछ अच्छा हो जाए। मिनी के जन्म के समय देंवाश वहाँ नहीं थे, हफ़्ते बाद आकर मिनी को देखा

था। काम का बहाना बना दिया था, ससुराल से भी कोई नहीं आया था। बहानों का क्या है, जितने मर्ज़ी बना लो।

लेकिन कहते है न कि बच्चे अपने आप ही प्यार लेते है। धीरे धीरे मिनी ने भी सबका मन मोह लिया। सब ठीक चल

रहा था। आजकल वैसे भी दो बच्चों की परवरिश करना ही मुशकिल है। लेकिन घर में जैसे एक ख़ालीपन सबको लगता

था। कहीं न कहीं साक्षी के मन में भी पुत्र लालसा थी। देवांश की बाते दोतरफ़ा सी होती। वो ये भी कहता कि आजकल

बेटियाँ कहाँ बेटों से कम है। हमें तो ये दोनों काफी है। इनहें ही खूब पढाऐगें। लड़कियां हर फ़ील्ड में नाम कमा रही है।

लेकिन कभी थोड़ा सा उदास भी हो जाता और कहता कि वंश तो बेटों से ही चलता है, बुढ़ापे का सहारा तो बेटे ही

बनते हैं। लडकियां तो अपने घर चली जाएगी । उनका अपना परिवार होगा, वो हमें संभालेगी या अपने परिवार को।

साक्षी की सास भी पढ़ी लिखी उच्च विचारों वाली थी, लेकिन वो भी अक्सर कहती कि एक और चांस लेना चाहिए।

साक्षी ख़ुद नहीं समझ पाई थी कि आख़िर वो भी क्या चाहती है। बढ़ती मंहगाई, काम का बोझ, उपर से

नौकरी बच्चों की परवरिश करना कौनसा आसान है, मगर फिर भी दिल का कोई कोना खाली लगता। अभी वो कुछ

निशचित नहीं कर पाए थे कि मिठू के आगमन की खबर आ गई। इस बार घर का माहौल बिलकुल अलग।कभी सोचते

कि बच्चे दो ही अच्छे । कभी सोचते कि टैस्ट कराया जाए, जो कि इतना आसान नहीं था। और फिर साक्षी तो

इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं थी। सास की इच्छा तो थी कि चोरी छुपे टैस्ट करवा ही लिया जाए परतुं अगर

लड़की हुई तो भ्रूण हत्या जैसे महापाप के लिए कोई भी तैयार नहीं था। इसी उहापोह में दिन निकलते गए। साक्षी तो

दिन रात विचारों के बवंडर में ही घिरी रहती। कुछ दिन छुट्टी पर रही, लेकिन फिर जाना शुरू कर दिया। वहाँ जाकर

कुछ देर के लिए ही सही इस सब को भूलकर काम में खो जाती, मगर खाली बैठते ही फिर वही ध्यान। उसने तो ढ़ग

से खाना पीना भी छोड़ दिया था, जबकि उसे सही डाईट की ज़रूरत थी। समय समय पर देंवाश ही उसे डाक्टर के पास

ले जाता।

साक्षी की सास के दिल में पोते की चाह जरूर थी लेकिन उसे साक्षी की भी बहुत चिंता थी। वो ही

उसके खाने पीने का ध्यान रखती। फल वगैरह काटकर उसके सामने रखती, और भी खाने पीने का सामन मनुहार से ,

ज़बरदस्ती उसे खिलाती। देंवाश इस बारे में ज़्यादा बात नहीं करता, परतुं साक्षी को हौसला देता कि कोई बात नहीं जो

उपर वाले की इच्छा। समय तो बीत ही जाता है। मिठू के जन्म की खुशी तो सबके चेहरे पर देखती ही बनती थी।

हस्पताल में सबको मिठाई, पैसे बाँटे। किन्नर भी जब बधाई लेने आए तो साक्षी की सास ने बहुत कुछ दिया, खुशी के

मारे अपनी सोने की अगूंठी भी उतार कर दे दी। परतुं उस समय किसी को बुलाया नहीं। साक्षी के मायके वाले और

ननदें हो गई थी। साक्षी बहुत कमज़ोर थी, तो यही सोचा गया कि कोई बड़ा प्रोग्राम बच्चे के जन्मदिन पर करेंगे, परंतु

जब लोहड़ी आ गई तो उसे ही सबके साथ धूमधाम से मनाने का फैसला हुआ। ऐसा नहीं कि मिठू के आने के बाद

रिनी, मिनी, को प्यार नहीं मिला। सब उन्हें प्यार करते। उन्हें कभी भी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि उनको प्यार नहीं

मिल रहा या सब मिठू का ध्यान रख रहे है। बल्कि वो दोनों भी छोटे भाई को खूब प्यार करती।

मिनी तो उसके आसपास ही रहती, उससे बातें करती, मिठू ने तो क्या बोलना था, वो ख़ुद ही जवाब

सवाल करती रहती। कभी उसके पास अपने खिलौने ले आती तो कभी खाने का सामान। उसे कई बार समझाया गया

कि अभी वो छोटा है, ये सब नहीं पता उसे, पर वो कहाँ मानती। उसे तो जलदी पड़ी रहती कि वो कब बड़ा हो और

उसके साथ खेले। साक्षी की सास की सेहत काफी ठीक थी, ससुर तो बहुत पहले चल बसे थे। वो सब का ध्यान

रखती। साक्षी के नौकरी पर चले जाने के बाद बच्चों की पूरी जिम्मेदारी वो खुशी खुशी संभालती। मिठू में तो जैसे

उसकी जान बसती थी। साथ ही साथ वो रिनी मिनी का भी बहुत ध्यान रखती थी। एक और बड़ा बेटा था उसका जो

कि दूसरे शहर में रहता था पहले वो कभी कभी वहाँ चली जाती थी, मगर मिठू के जन्म के बाद वो कहीं नहीं गई,

बेटियों के पास भी नहीं। मिठू उसका इकलौता पोता था, क्योकि बड़े बेटे के भी एक ही बेटी थी। नाती तो थे, बहुत

प्यारे थे उसे , लेकिन मिठू तो अपने वंश का था।

हालांकि काम बहुत पड़ा था मगर रिनी के एक छोटे से सवाल ने साक्षी को सोचने पर मजबूर कर

दिया , कि आख़िर भूल कहाँ पर हुई, जबकि उन सबके मन में ऐसा कुछ नहीं था। क्या ही अच्छा होता कि अगर

उसने रिनी मिनी की पहली लोहड़ी मनाई होती या किन्नरों को नेग दिया होता। कहने का भाव ये कि अगर हम दोनों

को ही बराबर का प्यार करते है तो भेद भाव किसलिए। कुछ चीजें दिखानी भी पडती है, ताकि प्यार का अहसास हो।

उसे इस बात की भी ग्लानि हो आई कि वो मिठू के आने से पहले इतनी परेशान क्यों रही । बच्चे तो भगवान की

अनमोल बख़्शीश है, जिनसे घर आँगन महकता है। लड़का हो या लड़की क्या फ़रक पड़ता है। ज़रूरत है तो सोच

बदलने की। अगर सब लड़के इतने ही आज्ञाकारी होते तो वृद्ध आश्रम क्यों होते, और लड़कियों से ही तो वंश बढ़ता

है। मरने के बाद लड़कों को ही मुखाग्नि देनी चाहिए ताकि गति हो, तो दूसरी दुनिया किसने देखी है।मरने के बाद कौन

कहा गया या क्या होता है, किसी को नहीं पता। साक्षी को अपने व्यवहार में कुछ कमी लगी, लेकिन फिर उसे ये भी

लगा कि ऐसी बातों के लिए सोच, समाज, परिवार हमारा यहाँ वहाँ का वातावरण बहुत सी चीजें ज़िम्मेवार है। चलो हम

दूसरे को तो नहीं बदल सकते, ख़ुद से शुरूआत तो कर सकते है। लोहड़ी पूजते समय पहले उसने रिनी मिनी से पूजन

करवाया और फिर मिठू से । वहाँ बैठे लोगों से भी आग्रह किया कि बेटों के साथ साथ बेटी की भी पहली लोहड़ी मनाने

की पंरम्परा करे।बेटियों की तरक़्क़ी के लिए और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है, मगर जहाँ से शुरूआत हो सके

वही से की जाए। बदलाव की ज़रूरत तो पल पल है।साक्षी का मन अब कुछ हल्का था।

विमला गुगलानी

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