माँ-बेटी का रिश्ता – रेनू अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

रीना की बेटी प्रज्ञा एक सीधी-सादी, शांत स्वभाव की लड़की थी। बचपन से ही उसने कभी झूठ नहीं बोला था। रीना को उस पर आंख बंद करके भरोसा था। प्रज्ञा अपनी माँ से हर छोटी-बड़ी बात साझा करती थी — चाहे वह स्कूल की परेशानी हो, कोई दोस्ती का किस्सा, या दिल की कोई उलझन। माँ-बेटी का रिश्ता सिर्फ खून का नहीं, दोस्ती और विश्वास का था।

उन दिनों प्रज्ञा छोटा वाला मोबाइल फोन इस्तेमाल करती थी। रात में सोते वक्त वह अक्सर मोबाइल लेकर ही सोती। रीना कई बार कहती,

“बेटा, आज मोबाइल छोड़ दो मुझे काम है।” पर प्रज्ञा कहती, “मम्मी, अलार्म लगाना है, सुबह उठना है।” और रीना उसकी बात मान लेती। उसे कभी संदेह नहीं हुआ, क्योंकि उसने कभी अपनी बेटी को गलत काम करते नहीं देखा था।

समय बीतता गया। एक दिन रीना अपनी सहेली के घर गई उसकी बेटी  प्रज्ञा की दोस्त थी। वहाँ सहेली की माँ ने जो बताया, वह  सुनकर रीना के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

उन्हें पता चला कि प्रज्ञा का एक लड़के से अफेेयर चल रहा है  वह भी ऐसा लड़का जिसकी छवि ठीक नहीं थी। वह कई लड़कियों से एक साथ मेल-जोल रखता था।

रीना को यह जानकर गहरा आघात लगा। उसे यह विश्वास नहीं हो पा रहा था कि उसकी वही प्रज्ञा, जिस पर वह आंख मूंदकर भरोसा करती थी ।ऐसा कुछ कर सकती है। वह मन ही मन टूट गई। घर आकर उसने प्रज्ञा से कुछ नहीं पूछा,

बस गुस्से में उस पर चिल्ला उठी। “तूने मेरा भरोसा तोड़ा है! मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि तू ऐसा करेगी। और भी ऐसी कई बातें न कहने योग्य कह डाली वह गुस्से में पागल हो गई थी

प्रज्ञा डर गई थी। उसकी आंखों में आंसू थे। वह कुछ कह नहीं पा रही थी। रीना का विश्वास पूरी तरह चकनाचूर हो चुका था। मगर जब गुस्सा थोड़ा शांत हुआ, तो रीना ने ठंडे दिमाग से सोचना शुरू किया।

वह जानती थी कि प्रज्ञा अभी सिर्फ 11वीं कक्षा की छात्रा थी। एक किशोरी, जो अभी पूरी तरह समझदार नहीं हुई थी। वह एक संयुक्त परिवार में पली-बढ़ी थी, जहां लड़कियों को अधिक बोलने, अपने मन की बात कहने की छूट नहीं थी।

अक्सर उसे डांटा जाता था, उसकी भावनाओं को नजरअंदाज किया जाता था। शायद वह स्नेह और समझ की भूखी थी। और इसी भावनात्मक कमी के कारण वह उस लड़के के झूठे प्यार में उलझ गई थी।

रीना ने खुद को संयमित किया। उसने देखा कि प्रज्ञा बहुत डरी हुई है, शर्मिंदा है। यह सब सोचकर उसका गुस्सा भी पिघलने लगा।

वह धीरे-धीरे प्रज्ञा के पास गई, और बिना कुछ कहे उसे गले से लगा लिया। प्रज्ञा माँ की ममता में खुद को समेटकर रो पड़ी। वह फूट-फूटकर रोती रही और कहती रही, “माँ, माफ कर दो। मुझे नहीं पता था कि मैं इतनी बड़ी गलती कर रही हूँ।”

रीना ने उसे चुप कराया और प्यार से कहा, “बेटा, गलती तो सबसे होती है। मगर सबसे जरूरी बात ये है कि हम उससे क्या सीखते हैं।”

उस दिन के बाद रीना ने एक नया निर्णय लिया — उसने घर के अन्य सदस्यों से भी करे शब्दों में प्रज्ञा के प्रति व्यवहार बदलने की बात की। प्रज्ञा ने भी वादा किया कि वह अब खुद को संभालेगी, पढ़ाई पर ध्यान देगी और माँ की उम्मीदों पर खरी उतरेगी।

धीरे-धीरे रिश्ता फिर से भरोसे की डोर में बंधने लगा। प्रज्ञा को एहसास हो चुका था कि सच्चा प्यार सिर्फ किसी लड़के से नहीं, बल्कि अपने परिवार की समझ और अपनापन से मिलता है। और रीना को भी यह समझ में आ गया था कि आज के दौर में बच्चों से दोस्ती जैसा रिश्ता ही उन्हें सही राह दिखा सकता है। 

लेखिका रेनू अग्रवाल

(विश्वास की डोर,)

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