देखो जी , मैं कैसी लग रही हूँ? मोहिनी ने नई साड़ी पहनकर इठलाते हुए पूछा। सुदंर मोहन ने बगैर
मोहिनी की और देखे ही कहा। हमेशा की तरह मोहिनी चिढ़ सी गई। वो भी कैसी बेवक़ूफ़ है, आज तीस साल हो गए
शादी को, फिर भी मोहन को समझ नहीं पाई। अजीब ही बंदा है। हर समय अपने काम में मग्न। कोई खबर नहीं दीन
दुनिया की। समय से पहले दफ़्तर पहुँचना और छुट्टी के बाद भी उसे कोई जल्दी नहीं होती घर पहुँचने की। और तो
और कई बार तो फ़ाइलें साथ में ही उठा कर ले आता। छुट्टी वाले दिन तो ख़ास तौर पर। जब मोहिनी की शादी हुई
तो वो मुशकिल से बीस बरस की रही होगी और मोहन बाईस का। मोहिनी ने ईटरं तक ही पढाई की थी और मोहन ने
गरेजुऐशन की थी। पढाई में होशियार था मोहन, अच्छे नंबर आए थे तो जलदी ही सरकारी नौकरी मिल गई थी, वैसे
भी ये वो जमाना था जब शिक्षा का इतना प्रसार नहीं था। पढे लिखे लोग कम थे तो नौकरी मिल जाती थी। दूसरी
बात ये भी थी कि उन दिनों लडकियां बाहर काम कम ही करती थी , अक्सर लड़के ही बाहर काम करते थे।
लेकिन मोहिनी और लोगों से हट कर थी। उसके माता पिता कुछ खुले विचारों के थे। उसके
पिताजी थोड़े आज़ाद ख़यालात के थे। वो तो चाहते थे कि मोहिनी आगे पढाई करे, लेकिन वो पढाई में ठीक ठाक सी
थी,मगर फ़ैशन करने में बहुत आगे। फ़िल्में देखने की बहुत शौक़ीन , माँ बेटी एक सी थी। उन दिनों आज की तरह
फ़िल्में नहीं बनती थी, थियेटर का जमाना था। अच्छी फ़िल्म तो कई हफ़्ते चलती। मोहिनी को लगने लगा कि जिंदगी
फ़िल्मों की तरह ही हसीन होगी, लेकिन हक़ीक़त कुछ और ही होती है। जब पढाई बंद हो गई तो मोहिनी के पिताजी
ने उसके लिए लड़का ढूँढना शुरू कर दिया और जलदी ही मोहन से बात पक्की हो गई। घर परिवार सब अच्छा था ,
उपर से मोहन की सरकारी नौकरी। कहीं कोई कमी नजर नहीं आई , तो सबको रिशता जंच गया। मोहिनी को पहला
झटका तब लगा जब उसे बिना देखे ही मोहन ने हाँ कह दी, अब वो मोहन को कैसे देखती। मोहन की माँ और दो
बहनों ने उसे कहीं बाहर ही देख लिया था।बहुत ही सादे मगर संस्कारी लोग थे। कोई डिमांड नहीं। बिना किसी
तामझाम के शादी हो गई।
मोहिनी को ये सब हज़म करने में बहुत समय लगा। वो तो फ़िल्मों के संतरगी हिडोलें पर सवार थी ।
हीरो हीरोईन का प्यार, बगीचों में घूमना, चाँद तारों की बातें, कभी पहाड़ तो कभी समुद्र का तट। मन में बहुत कुछ था
लेकिन कहे किससे।ले दे कर एक ही ख़ास सहेली थी लता। उससे ही मन की बात करती थी। लेकिन इस मामले में
लता हक़ीक़त के बहुत पास थी। उसने समझाया कि माँ बाप जो करते है, वो बच्चों के भले के लिए ही करते है। वैसे
भी मोहिनी अंदर से भले ही तेज़ थी, मगर पापा के सामने मुँह खोलने की हिम्मत नहीं थी। मँगनी से पहले उसने माँ
से कहा भी था कि वो मोहन को देखना चाहती है, जब ये बात पापा तक पहुँची तो उन्होनें साफ मना कर दिया कि
जब उन्हें लड़की पंसद है, और हमने मोहन को देख परख कर सब पता कर लिया है तो , अब देखना क्या। बहुत
अचछी सूरत , बढिया कद काठी का ख़ानदानी लड़का है। अच्छा कमा रहा है, ख़ुद का पुश्तैनी घर है, और क्या चाहिए।
मन मसोस कर रह गई मोहिनी। मोहन जितना सादा और मितभाषी , मोहिनी उतनी ही चंचल, बातूनी और
फैशनप्रस्त।
वैसे जोड़ी खूबसूरत थी,पर विचोरों से बेमेल थी। पर मोहिनी के पास अडजैस्टमैंट करने के
इलावा कोई चारा भी नहीं था। एक तो उस जमाने में तलाक़ का रिवाज बहुत कम था और सभ्रांत परिवारों के लिए तो
ये श्राप समान था। फिर मोहिनी से छोटे तीन भाई बहन और थे। अगर मोहिनी पर तलाक़ का कंलक लग जाता तो
बाक़ियों की शादी करनी मुशकिल हो जाती। और तो और माँ बाप का बाहर निकलना मुशकिल हो जाता। जैसे तैसे
मोहिनी ने अपने आप को सैट करने में ही भलाई समझी। वैसे उसे मोहन में कोई बुराई भी नहीं लगी। सच्चा, पक्का,
इमानदार था। समय का पांबद , सब का ध्यान रखता था। माँ बाप के साथ साथ ससुराल में भी सब की इज्जत करता
था, अपना हर फ़र्ज़ निभाता। बस एक ही कमी थी, थोड़ा रूखा स्वभाव, कम बोलना और मोहिनी के अनुसार रोमांटिक
तो बिल्कुल भी नहीं। मोहिनी जितनी फिल्में देखने की शौकीन थी, मोहन को वो सब बेकार लगती। एक दो बार तो वो
साथ चला गया, लेकिन फिर उसने साफ मना कर दिया। उसको तो वहाँ जाकर नींद ही आ जाती। उसे तो क़ुदरत का
साथ पंसद था। सुबह जलदी उठकर सैर को निकल जाता। सभी व्यसनों से दूर। परतुं उसने मोहिनी को कभी किसी
काम के लिए मना नहीं किया। जहाँ जाए, जो पहने , कोई पांबदी नहीं। अब तो मोहिनी उसे साथ जाने के लिए कहती
भी नहीं थी।
मोहिनी की भी मुहल्ले में बहुत सखी सहेलियां बन गई थी। उनके साथ ही किट्टी पार्टी वगैरह में
मौज मस्ती कर लेती। लता से भी नाता था। वो किसी दूसरे शहर में रहती थी, मगर पहले चिट्ठियां और बाद में फ़ोन
से हाल चाल का पता चलता रहता। लता उसको हमेशा यही समझाती की मोहन तो दिल का हीरा है। कोई एेब नहीं,
कितने अच्छे से सबका ध्यान रखता है, सारे परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों को उसने कितने अच्छे से निभाया है,
बाकी सबका अपना अपना स्वभाव होता है।लता की बातों से उसे हौंसला मिलता। वैसे उसकी भी कुछ ज्यादा इच्छाएँ
नहीं थी। बस वो यही चाहती थी कि वो भी कभी फिल्मी हीरो की तरह उसकी आंखों में देखे। कभी उसके रूप की
प्रशंसा करे। कभी वो दोनों साथ साथ घूमने जाए। पर मोहन अपने ही मिजाज का था। कभी कहीं गए भी तो ऐसे जैसे
किसी ने ज़बरदस्ती की हो। समय के साथ तीन बच्चे हो गए, दो बेटे एक बेटी। ससुराल परिवार में भी सबकी शादियाँ
हो गई। सबकी अपनी अपनी गृहस्थी बस गई। सास ससुर भी चल बसे।
अब तो मोहिनी ने अपने आपको परिवार के अनुरूप ढाल लिया था। वैसे भी ये सब चोंचले कुछ समय ही
चलते है, लेकिन कहते है न कि जो इच्छा पूरी न हो, उसकी कसक कहीं न कहीं मन में रह ही जाती है। बस यही
हाल मोहिनी का था। अब तो बच्चे भी बड़े हो गए। पढ़ लिख गए, तीनों की शादियाँ हो गई। नौकरी के सिलसिले में
एक बेटा तो विदेश चला गया, बेटी और दूसरा बेटा थे तो भारत में ही, लेकिन काफी दूर। सब अपने अपने घरों में
खुश थे, इसकी बहुत तसल्ली थी दोनों को। समय की चाल तो कभी रूकती नहीं। मोहन रिटायर हो गए। घर का
मकान, अच्छी पेंशन, गुजारा अच्छा हो जाता। बीच बीच में समय मिलता तो तीज त्यौहार पर बच्चे आ जाते तो
रौनक़ हो जाती, वरना तो दोनों अब अकेले थे। रिशतेदारी में आने जाने का रिवाज भी अब कम ही हो गया है। कई
बार मोहिनी बहुत अकेला महसूस करती । मोहन तो अब भी वैसे ही थे। बच्चों के पास जाकर भी देख लिया। सब
अपने में व्यसत। सुबह होते ही बहू बेटा काम पर निकल जाते, पोती भी स्कूल चली जाती, शाम को सब थके होते।
कुल मिलाकर मोहिनी को अपने घर पर ही रहना अच्छा लगता।
मोहन का समय तो किताबें , अखबारें पढ़ने , सुबह शाम टहलने में अच्छा व्यतीत हो जाता, लेकिन
मोहिनी कई बार बहुत उदास और चिढचिढी सी हो जाती। मुहल्ले की औरतों के साथ बैठकर बहूपुराण में उसकी रूचि
नहीं थी। वो तो अब भी सजधज कर रहती और उसका ज्यादातर समय टीवी सीरियल देखने में ही निकलता। मोहन
की सेहत तो ठीक थी, लेकिन मोहिनी कुछ कुछ बीमार रहने लगी। शुगर और बीपी तो पहले से ही था। एक रात
अचानक ही उसे अटैक आ गया और हस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। डाक्टर के अनुसार बाईपास सर्जरी करने की
ज़रूरत थी। बच्चों को खबर कर दी गई। एकदम से कोई नहीं पहुँचा, लेकिन बाद में भारत में रहने वाले बेटा बहू आ
गए। मोहिनी को तो कोई होश नहीं थी। जिंदगी में पहली बार मोहन इतना घबराए। दिनरात मोहिनी के पास ही बैठे
रहते। अपनी होशोहवास भूलकर हरदम भागदौड़ में लगे रहे। जो जो हिदायतें डाक्टरों ने दी, पूरी तरह उनका पालन
करते। जब बेटा आ गया तो वो अक्सर कहता कि पापा आप थोड़ा आराम कर लो, मैं माँ का पूरा ध्यान रखूँगा, लेकिन
वो वहीं आस पास ही मँडराते रहते।
घर आकर भी हर पल उनका ध्यान मोहिनी की तरफ ही रहता। वह तो मोहिनी को खोने का सोच कर
ही घबरा गया था। तीन चार दिन तक जब मोहिनी लगभग बेहोशी की हालत में थी तब तो मोहन की हालत देखने
वाली थी। वो तो पड़ौस में रहने वाले रमाकान्त और उन्की पत्नी ने ही सारी स्थिति सँभाली , नहीं तो शायद मोहन ही
बीमार पड़ जाता। दो दिन के बाद जब बच्चे पहुँच गए तो मोहन को भी सहारा मिला। मन ही मन अब मोहन को
बीती बातें याद करके जैसे ग्लानि सी हो रही थी कि कैसे वो मोहिनी की हर बात टालता ही था। अगर उसके दो मीठे
बोलों से ज़रा सा उसका मन खुश हो जाता तो उसका क्या बिगड़ जाता। वैसे उसने कई बार चाहा भी कि वह
रोमांटिक बाते करे, पर ये उसकी फ़ितरत में नहीं था। दो चार बार तो वो हँसी का पात्र ही बन गया था, जब उसने
मोहिनी की नई साड़ी को पुरानी कह दिया और पुरानी को नई कह दिया।एक बार तो उसने हद ही कर दी। मोहिनी को
खुश करने की गर्ज से उसने उसके लिए सूट ख़रीदने की सोची। उसने एक ही रगं डिजाईन के तीन सूटों का कपड़ा
ख़रीद लिया। जब मोहिनी ने देखा तो पहले तो उसे बहुत ग़ुस्सा आया मगर फिर वो इतना हँसी कि उसके पेट में बल
पड़ गए। बाद में मोहिनी ने एक सूट अपनी ननद और एक अपनी बहन को दे दिया। सारे परिवार में ये किस्सा मशहूर
हो गया। उसके बाद तो उसने मोहन से कभी कुछ नहीं कहा। अब तक वो भी समझ चुकी थी कि वो दिल का हीरा है,
प्यार तो करता है पर जताना नहीं आता।जब जिंदगी की हक़ीक़तों से सामना हुआ तो फ़िल्मों का भूत स्वंय ही उतर
चुका था।
अब मोहिनी धीरे धीरे ठीक हो रही थी। बच्चें भी चले गए थे। काम काज के लिए मेड थी। मुँह से भले ही
कुछ न कहते, लेकिन मोहिनी को ठीक होते देखकर मोहन की आखों में जो चमक थी, वो मोहिनी से छुपी नहीं थी।
अब वो समझ चुकी थी कि जरूरी नहीं कि हर समय प्यार जताया जाए, प्यार तो वो है, जो दिल से निभाया जाए।
एक दिन मेड नहीं थी तो मोहन ने जब उसके बालों की उलटी सीधी चोटी बनाई तो अपनी ही शक्ल देख कर उसकी
हँसी छूट , लेकिन अब उसे मोहन पर ग़ुस्सा नहीं प्यार उमड़ आया। अब वो काफी ठीक हो गई थी। किसी जरूरी काम
के लिए वो उठी तो कमजोरी के कारण सँभल नहीं पाई, गिरने को ही थी कि मोहन ने फटाफट उसे संभाल लिया। दूर
कहीं ये गीत बजने की आवाज़ आ रही थी चल चलिए नी मुटियारे,वैसाखी वाले मेले ते।
विमला गुगलानी