पाखी कई दिनों से बाजार जाने की सोच रही थी लेकिन कभी कोई काम आ गया तो
कभी कोई मेहमान आ गया। कभी ख़ुद की तबियत ठीक नहीं तो कभी पतिदेव को साथ जाने की फ़ुरसत नहीं। आख़िर
एक दिन वो अकेली ही निकल पड़ी गाड़ी उठाकर मार्किट की तरफ। इंतजार करने की भी हद होती है। घर में कई
जरूरी चीजें खत्म थी। माना कि आजकल आनलाइन या फ़ोन पर सब हाजिर है, पर कुछ चीजे देख परख कर, हाथ में
लेकर ही पंसद की जाती है। वैसे भी पाखी को ख़ुद जाकर शांपिग करना ही ज्यादा पंसद था। एक बार उसने आन
लाईन चादरों का जोड़ा मँगवाया, लेकिन जब खोलकर देखा तो उसे ज़रा भी पंसद नहीं आया। स्क्रीन पर दिखने वाले
कपड़े और उसके रंग में और सामने पड़ी चादर में ज़मीन आसमान का अंतर था। वापिस भेज कर और मँगवाया,
लेकिन बात नहीं बनी। दो तीन बार और भी कुछ ऐसा ही हुआ। अब तो पाखी ने जैसे प्रण ही कर लिया कि वो इस
झंझट में पड़ेगी ही नहीं। दुकान पर जाओ , और देख परख कर चीज लो। अपने काम के लिए समय तो निकालना ही
पड़ता है।
साथ चलने के लिए किसी सहेली का भी कितना इंतजार किया जाए। वैसे कोई साथ हो तो
शांपिग करने में मजा तो बहुत आता है और चीज पंसद करने में भी आसानी रहती है। तभी तो कहते है कि एक से
भले दो, मगर आज लोगों के पास समय को छोड़कर सब कुछ है। जब कभी पाखी की बहन सारा देहली से आती है,
या वो वहाँ जाती है तो पाखी खूब शांपिग करती है, लेकिन ऐसा मौका मुशकिल से साल में एक दो बार ही मिलता
था। चलो जैसा मौका मिले वैसा ही करो, तभी तो आज वो अकेली ही निकल पड़ी। अपनी तैयार की हुई लिस्ट
देखकर सारा सामान ख़रीद लिया, तो उसके मन को बहुत तसल्ली हुई। पाखी की शुरू से आदत है कि उसे किचन में
सारा सामान चाहिए, ये नहीं कि मौक़े पर कोई चीज खत्म मिले। मेहमानों के सामने कुछ भी मंगवाना उसे क़तई पंसद
नहीं था।
वो वापिस जा ही रही थी कि रास्ते में जूतों का नया शो रूम देख कर उसे नए सैंडिल लेने का मन कर
आया।जूते तो उसके पास बहुत थे, लेकिन मैंचिग जूते तो जैसे उसकी कमज़ोरी थी। शोरूम में तरह तरह के सजे जूते
देखकर वो ख़ुद को रोक नहीं पाई और घुस गई दुकान में। काफी लोग थे अंदर, वो भी शो केस में सजे लेडीज़ सैंडिल
देखने लगी। तभी एक सेल्समैन लपककर उसके पास आया और उसकी पंसद पूछी, उसका साईज़ लिया और उसकी
पंसद के जूते दिखाए। काफी डिज़ाइन देखने के बाद उसे दो जोड़ी जूते पंसद आए, पेमेंट की और चल दी। दुकानदार ने
उसका फ़ोन नं नोट कर लिया था ताकि जब भी नया स्टाक आए या सेल वगैरह लगे तो वो सूचित कर सके। वैसे भी
आजकल इन सब चीजों के मैसेज आना एक आम बात है। पाखी खुशी खुशी घर लौटी और अपनी दिनचर्या में व्यस्त
हो गई। अगली दोपहर उसे जूतों वाली दुकान से फ़ोन आया। ग़लती से एक जोड़ी जूते में दोनों जूते अलग अलग नंबर
के चले गऐ थे। पाखी को यह सुनकर बहुत ग़ुस्सा आया परंतु उसके कुछ कहने से पहले ही दुकानदार ने खेद व्यक्त
करते हुए कहा कि उसे आने की ज़रूरत नहीं, शाम को उसका सेल्समैन आ जाएगा। पाखी ने अपना एड्रैस बता दिया।
शाम को बैल बजी तो उसने देखा कि वही कल वाला सैल्जमैन जूतों का डिब्बा लिए खड़ा था। ठंड का
मौसम था,मेड से कहकर उसने उसे अंदर बुला लिया और स्वयं जूतों का डिब्बा लेने चली गई। उसने भी आकर कहाँ
डिब्बा खोलकर देखा था। जब तक वो अच्छे से फिर से जूते पहन कर देखती, मेड चाय ले आई। पाखी ने जूते वाले
को भी चाय देने का इशारा किया। एक दो बार मना करने के बाद उसने कप पकड़ लिया, और धीरे धीरे पीने
लगा।टाईम पास करने के लिए पाखी भी चाय पीते पीते उससे पूछने लगी कि शो रूम को खुले कितना समय हुआ,
कौन कौन से ब्रैंड के जूते है, इत्यादि। एक दो बातों का जवाब देने के बाद सैल्जमैन ने अचानक ही पूछा, मैडम,
क्या कभी आप जोधपुर गई हैं? उसके इस सवाल से पाखी को थोड़ा अजीब तो लगा, लेकिन फिर उसने कहा , हाँ ,
एक बार मामा जी के पास, बहुत साल पहले, तब उनकी वहाँ पोस्टिगं थी। लेकिन इस बात को तो बीस साल हो गए।
यह कहते हुए पाखी ने बहुत ग़ौर से उस सैल्जमैन का चेहरा देखा। जैसे उसे भूला बिसरा कुछ याद हो आया। क्या
तुम सक्सैना साहब के बेटे हो, जिनकी जोधपुर में उन दिनों जूतों की बहुत बड़ी दुकान थी?, पाखी के मुहँ से निकला।
पहले तो पाखी ने उसकी और ध्यान भी नहीं दिया था।वैसे भी न जाने कितने अनजान लोग हर रोज मिलते है। बहुत
कम ही ध्यान जाता है। उसके हाँ कहते ही एकबारगी तो पाखी का मुंह कसैला हो गया। दिल तो किया, वही जूता उठा
कर उसके मुंह पर मारे, पर शांत रही। सैल्जमैन ने बदली किए हुए जूतों का डिब्बा उठाया और हाथ जोड़कर बोला,
मैनें और मेरे परिवार ने जो उस दिन आपसे बर्ताव किया, उसके लिए मैं शर्मिंदा हूँ। मैनें जो आपका दिल दुखाया,
उसकी सजा तो भगवान ने मुझे बहुत पहले दे दी है। हो सके तो मुझे माफ कर देना। यह कह कर वो तो चला गया,
लेकिन पाखी अतीत के गलियारे में भटकने लगी। सारी पुरानी यादें एक एक करके चलचित्र की तरह उसकी आँखों के
सामने आने लगी। सिर एकदम से ऐसे दुख रहा था, जैसे अभी फट जाएगा। उसने मेड को एक कप कड़क चाय बना
कर लाने के लिए कहा और आकर बिस्तर पर लेट गई। चाय पीकर, लंबी लंबी सांसे लेकर मन को कुछ हल्का
किया। पाखी उस कड़वे अतीत को बिल्कुल भी याद नहीं करना चाहती थी, लेकिन सब कुछ अपने बस में नहीं होता।
उन दिनों पाखी की शादी की बात चल रही थी। साधारण सी शक्ल सूरत , मिडिल क्लास परिवार, पाँच भाई बहनों में
सबसे बड़ी पाखी का रिशता ही नहीं हो रहा था। कई जगह बात चली लेकिन लेकिन कही बन नहीं पाई। उस समय के
हिसाब से पाखी काफी पढ़ी लिखी थी, परंतु पढ़ाई की कद्र करने वाले भी तो हों। दुनिया कितनी भी बदल जाए,हमारे
देश में लड़की की शादी और वो भी कम या बिना दहेज के करना लगभग अंसभंव सा ही है।
उन दिनों बैंक में कार्यरत पाखी के मामाजी की बैंक में जोधपुर पोस्टिंग थी। वहीं पर
वनीश के पापा की जूतों की बहुत बड़ी दुकान थी। बैंक में काफी आना जाना होने के कारण वनीश के पापा और पाखी
के मामा की काफी अच्छी दोस्ती थी। इत्तफ़ाक़ से जात बिरादरी भी एक ही थी। वनीश ज्यादा पढा लिखा नहीं था,
लेकिन काफी प्रभावशाली व्यक्तित्व का स्वामी था। लंबा कद, गोरा रंग, काले कुछ कुछ घुंघराले बाल,तीखे नैन नक़्श
और वाकपटुता तो पूछो ही मत। किसी ग्राहक को मुशकिल से ही खाली हाथ जाने देता । तीन बहनों का इकलौता भाई
था। वनीश के पिताजी को काम के सिलसिले में बाहर जाना पड़ता था, तो वनीश ने पढाई छोड़कर काम संभाल लिया
। एक बहन बड़ी थी, जिसकी शादी हो चुकी थी, दो छोटी अभी पढ़ रही थी। पाखी के मामाजी को वनीश बहुत अच्छा
और मिलनसार लगा।वो भी अपनी भानजी के लिए अच्छे वर की तलाश में थे। उन्होनें अपनी पत्नी से बात की और
सोचा कि किसी दिन मौका देखकर वो वनीश के पिताजी से बात करेगें। पाखी के मामाजी एक बहुत अच्छे इन्सान थे
और उनका परिवार भी उच्च संस्कारों वाला था। ज़्यादा धनवान नहीं थे, मगर मिलनसार और रिशतों का महत्व, क़दर
बहुत अच्छे से समझते थे।
पाखी के मामाजी ने अपने एक सहकर्मी जो कि उनके काफी क़रीब था, उसे अपने मन की बात
बताई।उसे भी ठीक लगा।अभी तक सिरफ आदमियों में ही जान पहचान थी, घरों में आनाजाना नहीं था। सहकर्मी ने
बात वनीश के पिताजी तक पहुँचा दी थी। इत्तफ़ाक़न ही पाखी अपनी ममी के साथ जोधपुर आ गई। उधर वनीश के
भानजे का जन्मदिन था। होटल में पार्टी रखी गई। बहुत से और लोगों के इलावा पाखी के परिवार को भी निमंत्रण
भेजा गया। जब वनीश के पिताजी को पता चला कि उन्के घर मेहमान आए हुए है, तो उन्होनें उन्हें भी साथ लाने की
ताक़ीद की। पाखी एक छोटे से शहर में रहने वाली सीधी सादी मगर उच्च विचारों वाली पढ़ी लिखी लड़की थी। बहुत
ज्यादा गोरी और सुंदर नहीं थी, मगर अच्छी लगती थी। उसकी काली बड़ी बड़ी आँखे तो जैसे बोलती सी लगती। अगर
देखने वाले की नजर पारखी हो तो उसके व्यक्तित्व में कोई कमी नहीं थी। पाखी को पता नहीं था कि वहाँ मामाजी ने
उसकी शादी की बात चलाई हुई है। पहले तो वो किसी अनजान पार्टी में जाने को तैयार नहीं थी, लेकिन जब सब जा
रहे थे तो उसे भी जाना पड़ा। सबसे बड़ी बात, उसके मामा की बेटी जो उससे दो तीन साल छोटी थी, मगर दोनों में
बहुत दोस्ती थी वो भी जा रही थी। शहर में रहने के कारण वो थोडी चुलबुली और फ़ैशन नेवल भी थी।
पार्टी में लोग खूब बन ठन कर आए हुए थे। जब वो होटल के बाहर पहुँचें तो सामने बड़े से बोर्ड पर
छोटी छोटी जगमगाती हुई लाईटों से लिखा हुआ था, हैपी, वैलेंटाइन डे पाखी को समझ नहीं आया कि ये कौनसा
दिन हुआ, क्योकिं उसने तो कभी सुना नहीं था।उसका मन आया कि मामा की बेटी से पूछूँ , मगर वो चुप रही। वनीश
के पिताजी ने अपने परिवार से पाखी के मामाजी और बाकी सबका भी परिचय करवाया। वनीश की बड़ी बहन तो अपने
परिवार में व्यसत थी, मगर दोनों छोटी बहनें और माँ भी बड़ी अकड़ूँ और घंमडी सी लगी। दुकान पर सबसे हंस हंस
कर बातें करने वाले वनीश का भी यहाँ और ही रूप देखने को मिला। रुतबे और पैसे का काफी दिखावा लग रहा था ।
लेकिन वनीश के पिताजी का व्यवहार बहुत अच्छा था। पता नहीं कैसे सूप पीते समय किसी का हाथ लग गया तो
उसके उपर सारा सूप गिर गया। यह देख वनीश की बहनें हँसने लगी। पहले भी वो उसकी और देखकर अजीब तरीके
से मुस्करा रही थी। जब वो उठकर अपनी कज़न के साथ वाशरूमश की और जा रही थी तो उसके कानों में ये आवाज़
पड़ी , ये बहन जी कहाँ से आई है, न कपड़े पहनने का और न खाने का शऊर है"। इसके बाद ज़ोर से ठहाके की
आवाज़ सुनाई दी।पाखी को यह सुनकर बहुत बुरा लगा। मन में तो आया कि पलटकर जवाब दे, मगर मौक़े की
नज़ाकत देखकर चुप रही। एक बात जरूर थी। उम्र का तक़ाज़ा कहो या आकर्षण , पाखी को मन ही मन वनीश बहुत
अच्छा लगा, जबकि उसे उसके बारे में कुछ पता नहीं था।
पाखी की ममी को सब पता था और उसने भी सब नोटिस किया था। जाहिर है, बात वहीं पर खत्म हो
गई। रिशता हो न हो वो अलग बात है, लेकिन मेहमानों से ऐसा बर्ताव तो सरासर बदतमीज़ी ही कहलाएगी। बाद में
पाखी को भी पता चल गया था। उसे तो पहले ही बहुत बुरा लगा था। भले ही उसे वनीश देखने में अच्छा लगा था।
एक तरह से अच्छा ही हुआ, ऐसे घंमडी और बदतमीज़ लोगों के साथ गुजारा करना भी मुशकिल होता, परंतु न जाने
क्यों पाखी के मन में एक कसक सी रह गई। बाद में भी वनीश का चेहरा कई बार उसके सामने आता, और वो मीठे
सपनों में खो जाती। होश में आते ही वो सिर झटक देती। समय को तो अपनी रफ़्तार से चलना ही होता है। उसका
रिशता बहुत अच्छे घर में हुआ। प्यार करने वाला पति, दो प्यारे बच्चे और प्रतिष्ठित परिवार, और क्या चाहिए। बाद
में मामाजी से पता चला कि वनीश की दुकान में आग लग गई थी, सब जल कर ख़ाक हो गया। बीमा वगैरह से भी
कुछ ख़ास नहीं मिला। उन पर काफी क़र्ज़ भी था। घर बेचकर मुशकिल सी दोनों बेटियों की शादी साधारण से घरों में
की और कुछ क़र्ज़ चुकाया।वनीश की पत्नी बहुत बड़े घर की बेटी थी। व्यवसाय में हुए नुक़्सान को देखकर वो तो
अपने घर वापिस चली गई। वनीश के पिताजी तो बाद में जलदी ही अटैक से चल बसे। बचे माँ बेटा, वो भी जोधपुर
छोड़कर कहीं और चले गए। सुनने में आया है कि वनीश किसी जूतों की कंपनी में नौकरी करता है।
समय के साथ सब धुँधला पड़ चुका था, लेकिन पाखी ने कभी सोचा नहीं था कि इतने सालों बाद इस तरह
से वनीश से सामने होगा। किस्मत का लिखा कौन मिटा सकता है। लेकिन फिर भी वनीश के लिए उसके मन में कहीं
न कहीं साफ्ट कार्नर था। सबका भला हो, वो तो यही दुआ करती थी। कुछ दिनों बाद उसका बच्चों के जूते लेने के
लिए उसका फिर उसी दुकान पर जाना हुआ। सामने ही हैपी! वैलेंटाइन डे का बोर्ड लगा देखकर वो मुस्करा दी, क्योकिं
उसे अब इसका मतलब पता था।
विमला गुगलानी