कभी-कभी जीवन की सबसे बड़ी आज़ादी, किसी पुराने घर के आंगन में मुस्कराती मिलती है, जहां दरारों में भी अपनापन होता है और खामोश दीवारों से भी संवाद होता है। ये कहानी है सावित्री देवी की — एक ऐसी मां की जो अपने बच्चों के सुख में भी खुद को भूल नहीं सकी, और खुद के लिए एक छोटा-सा आसमान बचा कर रख लिया।
सावित्री देवी अब लगभग 90 वर्ष की हो चली हैं। चेहरे की झुर्रियों में वर्षों की तपस्या की कहानी दर्ज है। जीवन में कोई कमी नहीं है – पांच बेटियां, एक बेटा, सभी पढ़े-लिखे, उच्च पदों पर और अपनी-अपनी दुनिया में सुखी। पति की मृत्यु को भी पंद्रह वर्ष से ज़्यादा हो चुके हैं। पहले कुछ साल वे सबसे छोटे बेटे के साथ रहीं, फिर बेटियों ने आग्रह किया, और वे सबके पास जाकर एक-एक दो-दो महीने रहीं।
हर घर में उन्हें स्नेह मिला, सम्मान मिला, यहां तक की बेटियों के पति उन्हें अपनी मां जैसा ही सम्मान देते थे पर कुछ था जो उन्हें भीतर से खाली सा लगता । वे जो सुकून अपने घर में महसूस करती वे यहां पर सब सुविधा होते हुए भी नहीं महसूस कर पा रहीं थीं ।
उस पुराने घर में उनके बच्चों का बचपन उनके पति का साथ और अपने मायके की यादें जुड़ी हुई थीं। घर की हर एक चीज के साथ जुड़ी यादें, हाथ से छूते ही उनको एक अपनेपन का एहसास दे साकार हो चलचित्र सी चलने लगतीं ।
फिर एक दिन उन्होंने फैसला किया – “मैं अपने घर लौटना चाहती हूं।”
बच्चे चौंके।
सभी ने समझाया “मां, अकेली कैसे रहेंगी आप?”
“हमें तो लगता है, आपके साथ कोई का होना ज्यादा अच्छा रहेगा।”
“खाना-पीना, दवाइयां, डॉक्टरी, देखभाल… अकेले कैसे संभालेंगी?”
मां मुस्कुराईं, जैसे वे पहले से इस बातचीत के लिए अपने को तैयार कर चुकी हों। बोलीं –
बिलकुल सब संभाल लूंगी। मैं कोई बोझ नहीं बनना चाहती। जब तक मेरे हाथ-पैर चल रहे हैं, मैं अपनी दुनिया में ठीक हूं।”वहाँ मेरे साथ सबकी यादें जुड़ी हैं।
जब सावित्री देवी ने अपने घर लौटने का निर्णय लिया, तो उनके बच्चे चिंतित थे। लेकिन मां का निर्णय अडिग था — “जहां मेरा मन सांस ले सके, वही मेरा घर है।”
और उन्होंने बेटी को अपने घर छोड़ने को कहा ।
जब बहुत समझाने पर भी वे नहीं मानी तो बेटी उनको छोड़ने के लिए चल दी । रास्ते भर उनकी बेटी को अपनी माँ के चेहरे में एक अलग ही चमक दिखी थी जो माँ उसके घर में निढाल थकी सी लगती थीं, वह अंदर की खुशी से कितनी उत्साहित और सक्रिय हो गई थीं।
पुराना घर धीरे-धीरे फिर से जीवंत होने लगा।
आंगन की गौरैया कौए,गिलहरी जो बरसों से नदारद थीं, अब रोज़ सुबह आकर चहचहाने लगे मानो सभी उनके आगमन का स्वागत कर रहे हो। मां सुबह की पहली रोटी उसी के लिए निकालतीं और छोटे छोटे टुकड़े कर डाल देतीं। खिड़की के पास दाना-पानी रखतीं और गौरैया चूचू करके जैसे उन्हें दिन के शुरुआत का आशीर्वाद दे हैलो करती । तुलसी के चौरे में दिया जलने लगा, आंगन में उनके हाथों की महक बसी रहने लगी।
सुबह की चाय के साथ रेडियो पर पुराने गीत भजन, और शाम को बाहर दरवाजे में बैठ अपनी पहचान वालों के बच्चों से उनकी कुशल क्षेम पूछतीं। उनके पास कोई नौकर नहीं था, पर उनको ज़रूरत भी नहीं थी। पास की दुकान वाले उन्हें पहचानते थे – “अम्मा जी,दादी माँ” कहकर पुकारते और पूछते, “कुछ लाना हो तो बताइए।”
दरवाजा खुला देख उनका दूधवाला बिना फोन किये ही आ गया। क्यारी की सूखी बेलें, जिन्हें अब कोई उम्मीद नहीं थी, मां के हाथों के स्पर्श से फिर से हरी होने लगीं जैसे जीवन की संजीवनी पा ली हो। मां जब बेलों को पानी देतीं, तो वे पत्तियाँ हिल-हिल कर जैसे मुस्करातीं — आपने हमें जीवन दिया हम आपको जीवन देंगे। हम आपके दुख सुख के साथी हैं । मां एक-एक पौधे को प्यार से सहलातीं मानो उनमें उन्हें अपने बच्चे नजर आते।
मां कहतीं —
“इन पत्तियों का हरा रंग मेरे जीवन में फिर से बहार ला देता है। जब तक इनमें जान है, मुझे अपने भीतर भी हरियाली महसूस होती है।”
उनके जीवन की दिनचर्या बहुत साधारण है —
सुबह तुलसी को जल,मंदिर में भजन गाना, दोपहर में पुराने अख़बारों को पढ़ना,गौरैया को दाना,गाय व कुत्ते की रोटी ,बगीचे में कुछ समय पौधों को पानी देना
और दोपहर में उबला हुआ हल्का भोजन। कुछ देर एकांत में पिता जी की याद में अपने आंसू बहा अपने को हल्का कर लेतीं जो बेटे-बेटियों के घर में नामुमकिन था। उनको लगता कि वे उनकी सेवा से संतुष्ट नहीं हैं।
कई बार बेटियां फोन पर कहतीं —
“मां, क्या उबला खाना खाती हो? हमें आपके लिए कुछ बनाना अच्छा लगता है , और आप वहां एकदम
अकेले हैं।
मां हँस पड़तीं –
“बेटा, वे 56 भोग पेट तो भरते हैं, पर आत्मा नहीं। मेरे इस उबले भोजन में सादगी है, मेरी इच्छा है, मेरी स्वतंत्रता है। जब भोजन मन की मर्ज़ी से हो, तो वही अमृतय प्रसाद बन जाता है। रह गया अकेलेपन की बात तो इंसान अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है “।
धीरे-धीरे उनका पुराना घर फिर से जीवित हो।
एक दिन मोहल्ले की महिला ने पूछा —
“आपके बच्चे तो बहुत अच्छे हैं, फिर आप अकेली क्यों रहती हैं?”
मां चाय की प्याली उन्हें पकडा़, मुस्कराते हुए बोलीं
“बेटा, जब मैं बच्चों के पास रहती हूं, हाँ, मुझे सब कुछ बना-बनाया मिलता है – समय पर खाना, आरामदायक बिस्तर, देखभाल… पर उसमें मैं कहीं खो जाती हूं। मैं ‘मैं’ नहीं रह जाती, एक ‘मेहमान’ बन जाती हूं। मेरे उठने-बैठने का समय, मेरा खाना, मेरी पसंद, सब किसी और की सुविधा से तय होता है। जबकि इस घर में… मैं सांस लेती हूं। मेरी मर्जी से नींद आती है, मेरी मर्जी से बर्तन बजते हैं।”
“क्योंकि यहां मैं ‘मैं’ हूं। मुझे अपने होने का अस्तित्व है मैं अपने घर की रानी हूं । किसी की दिनचर्या में फिट होने की कोशिश नहीं करनी पड़ती। अपने ही घर की घड़ी मेरे अनुसार चलती है।”
फिर वही सवाल —
“अगर अकेले रहते हुए कुछ हो गया तो?”
मां का चेहरा गंभीर हुआ, पर मुस्कराहट वही बनी रही। बोलीं –
“कुछ तो कहीं भी हो सकता है। साथ रहकर भी अकेलापन हो सकता है और अकेले रहकर भी आत्मा संतुष्ट हो सकती है। मौत तो नियति का चक्र है – कब, कहां, कैसे आएगी, कौन जानता है? पर मैं अपनी आज़ादी का सौदा नहीं कर सकती उस डर से जो अभी आया ही नहीं।”
कुछ दिन बाद एक परिचिता ने फिर पूछा –
“और जब आप बहुत बूढ़ी हो जाएंगी, जब हाथ-पैर नहीं चलेंगे, तब क्या करेंगी?”
मां ने एक पल सोचा, फिर कहा –
“तब बच्चों के पास जाऊंगी, अगर ज़रूरत पड़ी। पर क्या मैं आज की खुशी छोड़ दूं उस डर से जो अभी हुआ ही नहीं? मैं अपने आने वाले कल के लिए आज को कैद क्यों करूं?”
कई बार बेटा ज़ोर देकर कहता —
“मां, आप किसी के पास रहो, अकेले अच्छा नहीं लगता लोग क्या-क्या नहीं कहते हैं।”
तो मां बस एक बात कहतीं –
“बेटा, मैंने आज तक तुम्हें कभी बांध कर नहीं रखा, तो अब तुम मुझे क्यों बांधना चाहते हो? क्या मैं लोगों के कहने के लिए जीना ही छोड़ दूं
जब तक मेरे हाथ-पैर चल रहे हैं, मेरी आत्मा जीवंत है। जब नहीं चलेंगे, तो फिर सोचेंगे। लेकिन क्या मैं आने वाले कल की आशंका में आज की आज़ादी का गला घोंट दूं?”
उनका घर अब सिर्फ ईंट-पत्थर की इमारत नहीं था —
वो उनका आत्मसम्मान, उनकी हरियाली ,उनकी स्वतंत्रता,और उनके आंगन की गौरैया की चहचहाहट से भरा छोटा-सा आकाश था।
इस पूरी कहानी को देख-सुनकर उनकी बेटी – मन में – सोचने लगीं****
“मां की बात कहीं न कहीं हर उस इंसान की बात है जो अपने जीवन को किसी और के ढांचे में ढालने से डरता है।
हम सोचते हैं – कल क्या होगा, बुढ़ापे में कौन देखेगा। पर शायद असली सवाल यह होना चाहिए – आज कैसे जीना है?
मां ने सिखाया – घर सिर्फ चार दीवारों का नाम नहीं होता, बल्कि वहां की हवा, वहां की चुप्पी, वहां की स्वतंत्रता ही घर बनाती है।”
मां की दिनचर्या अब बिल्कुल तय थी – सुबह सूरज से पहले उठना, तुलसी को जल चढ़ाना, शाम को पड़ोस की लड़कियों को सिलाई सिखाना, और रात में वही पुरानी डायरी पढ़ना जिसमें कभी पति ने लिखा था –
“तुम ऐसी स्त्री हो, जो घर को सिर्फ बनाती नहीं, उसमें जान डाल देती हो। मैं तुम्हारे बिना रहने की कल्पना भी नहीं कर सकता और वे पहले ही चले गये।
बच्चे हर रविवार आते, फल-फूल लाते, पर मां अपने घर की रसोई में उनके लिए अपने हाथों से खाना बनातीं। एक दिन सबसे छोटी बेटी ने कहा –
“मां, हम तो सोचते थे आप अकेली होंगी तो दुखी होंगी, पर आप तो पहले से कहीं ज्यादा खुश हैं।”
मां ने मुस्कराकर सिर्फ इतना कहा –
“बेटा, मां हूं तो सभी की, पर इंसान भी हूं। और इंसान की सबसे बड़ी जरूरत है – स्वतंत्रता और सम्मान।”मां का घर अब उनके आत्मबल की पहचान बन चुका था – जहां न तो भीड़ थी, न दिखावा, पर शांति थी, अपनापन था और एक आत्मनिर्भर स्त्री का ‘मैं’ था – जो उम्र की परवाह किए बिना अब भी जी रही थी, अपने नियमों पर।
स्वरचित और मौलिक
डा० विजय लक्ष्मी
‘अनाम अपराजिता’