अपनी डोर किसी के हाथ नहीं देना – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

        ” मुझे माफ़ कर दीजिये डाॅक्टर सिद्धार्थ, मैं आपके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकती।आपने जो कुछ मेरे लिये किया..मुझे यहाँ तक पहुँचाया..इसके लिये मैं सदैव आपकी आभारी रहूँगी लेकिन आपके साथ विवाह नहीं कर सकती..अब मैं..।” कहते हुए साक्षी ने नम आँखों से अपने दोनों हाथ जोड़ लिए।

    ” नहीं-नहीं साक्षी, आप माफ़ी मत माँगिए..मैंने तो बस अपने मन की….मेरी वजह से आपको ठेस पहुँची हो तो प्लीज़ मुझे क्षमा कर दीजियेगा..।

” कहकर वो बाहर निकल गये।साक्षी उन्हें जाते देखते रही।मन में बोली, आप बहुत अच्छे हैं सिद्धार्थ है..आपने मेरे अंदर आत्मविश्वास जगाया है।इसलिए मैंने तय किया है कि अब मुझे अपनी डोर किसी के हाथ नहीं देना है।तभी पार्क से खेलकर उसकी बेटी कृति आया के साथ आई और मम्मी’ कहकर उससे लिपट गई।

      साक्षी के पिता हरिकिशन बिजली विभाग में इंजीनियर थे।माता आशालता गृहिणी थी।दो साल बड़ा भाई सुमेश था जो उससे छोटी-छोटी बातों पर झगड़ता था लेकिन प्यार भी बहुत करता था।

     समय के साथ दोनों बच्चे सयाने हो गये।सुमेश ने कंप्यूटर-इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके अपने दोस्त के साथ मिलकर एक कंपनी खोल ली जिसने कुछ ही महीनों में अपनी एक पहचान बना ली थी।साक्षी बीएससी कर रही थी। 

     एक दिन अचानक हरिकिशन की मुलाकात अपने काॅलेज़ के मित्र प्रभाकर से हो गई।उन्होंने मित्र को घर बुलाया और चाय पीते हुए पुरानी यादें ताजा करते हुए घर-परिवार की बातें करने लगे।साक्षी भी अपने अंकल को अपनी पढ़ाई के बारे बताने लगी।

     साक्षी की बातों से प्रभाकर बहुत प्रभावित हुए।वो कुछ सोचकर मुस्कुराये और हरिकिशन से बोले,” भाई..मेरे बड़े बेटे की तो शादी हो गई है और छोटे प्रशांत  के लिए हमने आपकी साक्षी को पसंद कर लिया है।साल भर पहले ही उसने आर्मी ज़्वाइन की है।अब अगर आपकी और भाभी जी की इज़ाजत हो तो….।”

        हरिकिशन ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि घर बैठे इतना अच्छा दामाद मिल जाएगा।खुशी-से उनकी आँखें भर आईं।वो प्रभाकर को बोले,” ये तो हमारा सौभाग्य होगा लेकिन आपका बेटा…।”

     ” वो हमारी बात कभी नहीं टालेगा लेकिन फिर भी अबकी छुट्टी में जब वो आयेगा तो हम उसे आपके पास भेज देंगे।आप भी उसे देख-सुनकर तसल्ली कर लीजिएगा।” हँसते हुए प्रभाकर बोले।

        कुछ महीनों बाद प्रशांत आया, हरिकिशन उससे मिलकर बहुत खुश हुए।साक्षी के इम्तिहान भी खत्म हो गए थे।दोनों ने एक- दूसरे को पसंद कर लिया तो दोनों परिवारों ने फिर देर नहीं की और एक शुभ-मुहूर्त में दोनों का विवाह हो गया।

      कुछ दिन ससुराल में रहकर साक्षी प्रशांत के साथ उसके पोस्टिंग-स्थल पर चली गई।अपना घर संवारने के साथ-साथ वो प्रशांत की पसंद-नापसंद का भी पूरा ख्याल रखती थी।एक दिन उसने भिंडी की सब्ज़ी बनाई थी।प्रशांत बोला,” तुम तो भिंडी खाती नहीं, तो अपने लिये क्या बनाया है?” साक्षी बोली,” मैं भी भिंडी ही खा लूँगी..।”

     तब प्रशांत ने उसे समझाया,” साक्षी.. तुम मेरी पत्नी बनी हो कोई # कठपुतली नहीं कि हर पल मेरे ही इशारे पर नाचती रहोगी।तुम अपनी पसंद के कपड़े पहनो.. अपने पसंद के लोगों से मिलो।मैं तो सिर्फ़ तुमसे पूछता हूँ।तुम्हें पसंद न हो तो मना करने की तुम्हें पूरी आज़ादी है।जब तुम्हें भिंडी पसंद नहीं है तो तुम मत खाओ जैसे कि मुझे लौकी पसंद नहीं तो मैं नहीं खाता पर तुम तो खाओ यार..।

” कहकर वह हँसने लगा।फिर उसकी आँखों में देखते हुए बोला,” साक्षी..खुद को कमतर कभी मत आँकना..तुम अपना निर्णय खुद लोगी तो मुझे बहुत खुशी होगी।” उस दिन के बाद से साक्षी को खुद पर विश्वास होने लगा..वो अपनी पसंद को महत्व देने लगी।

       डेढ़ साल बाद साक्षी ने एक बेटी को जनम दिया।प्रशांत ने उसका नाम कृतिका रखा लेकिन दोनों उसे कृति कहकर ही पुकारते थें।

     बेटी को पालने में ही साक्षी के दिन बीतने लगे।मायके-ससुराल जाना तो हो नहीं पाता था लेकिन वो फ़ोन करके दोनों घरों का जाना हाल-चाल पूछना कभी नहीं भूलती थी।देखते- देखते कृति तीन साल की हो गई और वो प्री-स्कूल जाने लगी।

      एक दिन खबर आई कि दुश्मनों ने सीमा पर हमला बोल दिया है।सैनिकों की एक टुकड़ी लेकर प्रशांत को तुरंत वहाँ के लिए रवाना होना पड़ा।नम आँखों से साक्षी ने उन्हें विदा किया।टेलीविजन पर सीमा पर की खबरें देखकर उसका मन घबराने लगता लेकिन फिर खुद को समझाने भी लगती थी।

सीमा पर से जब विजय होने की खबर आई तो वो प्रशांत के आने की प्रतीक्षा करने लगी लेकिन…।शाम को हेड ऑफ़िस से उसके पास फ़ोन आया कि दुश्मनों के साथ लड़ते-लड़ते लेफ़्टिनेंट प्रशांत शहीद हो गये हैं।

      साक्षी तो जैसे जड़वत हो गई थी।बड़ी मुश्किल से उसने अपने पति को अंतिम विदाई थी।अब तो सास-ससुर का ही सहारा था उसे।बेटी को लेकर वो ससुराल आ गई।वो खुद को संभाल ही रही थी कि बेटे के गम में उसके ससुर चल बसे और कुछ दिनों बाद उसके पिता..।इन दोनों मौतों का ज़िम्मेदार उसे ही मानकर सास उसे कोसने लगी।

मायके से उसे सास को माँ समान मानने की शिक्षा उसे दी गई थी, इसलिए उन्हें खुश करने के लिए उसने पहले तो सरकार से मिल रही वित्तिय सहायता की पूरी राशि उन्हें समर्पित कर दी और फिर # कठपुतली बनकर उनकी हर बात को आँख बंदकर मानने लगी।

इस बात का उसकी जेठानी ने भी फ़ायदा उठाया।वो दिन-भर उनकी सेवा में लगी रहती..उसे यह भी होश नहीं रहता कि उसकी बेटी ने खाना खाया या नहीं..।फिर भी उसकी सास के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया।

       उन्हीं दिनों प्रशांत के दोस्त लेफ़्टिनेंट सिद्धार्थ की पोस्टिंग आर्मी हाॅस्पीटल में हुई थी।एक दिन वो घर आये..प्रशांत की माँ से मिले और साक्षी से भी।घर आकर वो काफ़ी देर तक उसके बारे में सोचते रहे।वो उससे बात करना चाहते थे लेकिन घर के लोगों के बीच..।

भाग्यवश एक दिन जब वो घर आये तब साक्षी की सास-जेठानी एक शादी में गए हुए।तब उन्होंने साक्षी को समझाया कि आप पढ़ी-लिखी हैं, इस तरह से उनके हाथ का खिलौना बनकर आप अपने साथ-साथ अपनी बेटी का भी भविष्य खराब कर रहीं हैं।आज आप शोषित हो रहीं हैं और कल आपकी बेटी..।”

   ” मैं क्या कर सकती हूँ..वो मेरे प्रशांत की माँ-भाभी हैं..उनकी सेवा करना..।”

   ” बस कीजिये ये दकियानुसी बातें..प्रशांत आपको आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे और आप..।” सिद्धार्थ लगभग चिल्लाते हुए बोले तब उसकी चेतना लौटी।वह उस दिन फूट-फूटकर रोई..।वो बोली,” मैं क्या करूँ..मेरा कोई ठिकाना भी तो नहीं..।”

   ” आप आर्मी ज्वाइन कर लीजिये..।”

  ” आर्मी! लेकिन कैसे?” 

       साक्षी की सास के आने का समय हो रहा था, इसलिए उन्होंने साक्षी का फ़ोन नंबर लिया और मैं बताता हूँ..” कहकर वो चले गये।

    साक्षी का आत्मबल मजबूत हो चुका था।उसने अपने पैर पर खड़ा होने का ठान लिया।लेकिन जब घर में बताया तो सास ने बहुत नाटक किया।तब उसकी माँ-भाभी बोलीं,” हम हैं ना तेरे साथ..आ जा..।” और इस तरह साक्षी अपने नये सफ़र की ओर चल पड़ी।

       सिद्धार्थ की मदद से साक्षी ने ऑनलाइन आवेदन-फ़ाॅर्म भर दिया और लिखित परीक्षा की तैयारी करने लगी।कृति भी अपनी नानी के साथ स्कूल जाने लगी।

महीने भर बाद उसकी भाभी उसे आश्रित होने का एहसास दिलाने लगी..अक्सर उसे काम थमा देती ताकि उसकी पढ़ाई में खलल पड़े लेकिन उसने सब सहकर परीक्षा दी और उत्तीर्ण भी हो गई।जब प्रशिक्षण के लिये जाने का समय आया तब उसने बेटी को अपने साथ रखने की अर्ज़ी दी जो मंजूर कर ली गई।

        प्रशिक्षण पूरा होते ही वो लेफ्टिनेंट साक्षी बन गई और उसे रहने के क्वार्टर भी मिल गया।यूनिफॉर्म पहनकर पहले दिन ड्यूटी पर जाने से पहले उसने अपने पति को सैल्यूट किया और सिद्धार्थ को धन्यवाद दिया जो अब कैप्टन सिद्धार्थ बन गये थे।

     इसी बीच सिद्धार्थ साक्षी को पसंद करने लगे थे।एक दिन मौका देखकर उन्होंने अपने मन की बात कह दी।जीवन के इतने उतार-चढ़ाव देखकर साक्षी को एक बात तो समझ आ गई थी

कि हर रिश्ता अपेक्षाओं से बँधा होता है।अब वो खुद को किसी बंधन में नहीं बाँधेगी।देश की सेवा करते हुए ही अपनी बेटी को बड़ा करना उसने अपना उद्देश्य बना लिया।इसीलिये उसने सिद्धार्थ से माफ़ी ली और अपनी ड्यूटी करने में लग गई।

        समय के साथ कृतिका बड़ी होती गई।उसने अच्छे अंकों से बारहवीं की परीक्षा पास करने के साथ-साथ मेडिकल प्रवेश-परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली और मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेकर डाॅक्टरी की पढ़ाई करने लगी।

      साक्षी के मना कर देने के कुछ महीनों बाद कैप्टन सिद्धार्थ ने अपने माता-पिता के पसंद की हुई लड़की से विवाह कर लिया।विभिन्न अवसरों पर एक मित्र और कलीग की हैसियत से दोनों एक-दूसरे से मिलते रहते थे।

     डाॅक्टर की डिग्री मिलते ही कृतिका एक सरकारी अस्पताल में अपनी सेवा देने लगी।कुछ समय बाद उसने अपने ही अस्पताल के सीनियर डाॅक्टर अनिरुद्ध के साथ विवाह कर लिया।

     साक्षी पर अब उम्र हावी होने लगा, वो अस्वस्थ रहने लगी।तब उसने इस्तीफ़ा दे दिया और किराए के मकान में रहने लगी।खाली समय में वो किताबें पढ़ती, आसपास के घरों में काम करने वालों के बच्चों को पढ़ाती और अपनी सामर्थ्यानुसार दीन-दुखियों की मदद करती।

      एक दिन कृतिका बोली,” मम्मी..अब आप हमारे साथ रहिये..अपनी नातिन के साथ खेलिए और जो करना चाहती हैं कीजिये..आपको पूरी स्वतंत्रता रहेगी।” बेटी के मोह में बँधी माँ ने तुरंत हामी भरनी चाही लेकिन फिर उसे अपने पति की बात याद आ गई कि अपनी डोर किसी के हाथ न देना.., बेटी-दामाद के पास जाकर तो उसे उनकी दिनचर्या में ढ़लना होगा..

नहीं-नहीं, मेरा छोटा-सा घर ही सही लेकिन यहाँ मैं अपनी मर्ज़ी की मालकिन हूँ..।उसने प्यार-से अपनी बेटी को समझा दिया और कभी-कभी उनके घर जाकर माँ-नानी का फ़र्ज़ निभाने लगी।

                                    विभा गुप्ता 

# कठपुतली                 स्वरचित, बैंगलुरु

Leave a Comment

error: Content is protected !!