आती रहना – रश्मि झा मिश्रा : Moral Stories in Hindi 

“…बाप रे, इतना घमंड भी अच्छा नहीं छोटी…!”

” इसमें घमंड कैसा दीदी… मैं तो बस अपने मन की बात कह रही थी… तुम्हारे है ही कौन… बेटियां तो ब्याह कर अपने घर जाएंगी… तुम्हारा जो कुछ है, कल को सुरेश और अनूप का ही होगा ना… अब दोनों बहने ब्याह के बाद यहां क्या लेने आएंगी… भाई तो यही दोनों हैं… मिलकर रहेंगी तो मायका बना रहेगा…!”

” वाह छोटी… ये अच्छी कही… और अगर मैं सब कुछ अपनी बेटियों को ही दे दूं… तो क्या भाई नहीं रहेंगे…!”

” अरे, भला तुम ऐसा क्यों करोगी… यह तुम्हारे बेटे नहीं हैं क्या… मेरे बेटे ही तो तुम्हारे बुढ़ापे में काम आएंगे… बेटियां थोड़े ही आएंगी, तुम्हें देखने ससुराल से बार-बार…!”

 सविता चुप हो गई… कुमुद से बहस करना बेकार था… उसे अपने बेटों पर जरूरत से ज्यादा घमंड था… वह बात-बात पर अपनी जेठानी सविता को नीचा दिखाने में लगी रहती थी…

 सविता और कुमुद यों तो एक ही घर में रहती थीं… लेकिन उनका साथ केवल ऊपरी ही था… कुमुद को सिर्फ अपने आप से मतलब था… घर में सास थी… दो ननदें थीं, जो अक्सर आती जाती रहती थीं… लेकिन कुमुद की उन लोगों से कभी रत्ती भर भी नहीं बनती थी…

 वह अपने काम खत्म कर चुपचाप अपने कमरे में जाकर दरवाजा बंद कर लेती… बाहर किसी को और कुछ जरूरत हो, या बात करनी हो, तो कोई मतलब नहीं… 

सविता सबके साथ बैठती… उनसे बातें करती… वह कुमुद को भी समझाने की कोशिश करती…” देखो कुमुद… वक्त से डरो… वक्त हमेशा एक सा तो नहीं रहता… आज वे तुम्हारी सास ननद हैं… कल को तुम्हारी भी बहू आएगी… तुम भी तो सास बनोगी… कहीं ऐसा ना हो कि, आज तुम किसी से बातें नहीं करती, और कल कोई तुमसे बात करने को ही ना हो…!”

” दीदी… आप मेरी चिंता मत करिए… मुझे बातें करने का शौक ना आज है ना कल होगा… वह अपना काम देखे… मैं अपना देख लूंगी… और कौन सा मेरी बेटियां आकर उसके सर पर बैठेंगी… दोनों बेटे ही तो हैं… आप अपना सोचिए…!”

 दोनों बहू में नहीं बनने के बावजूद भी घर जुड़ा हुआ था… इसका सबसे बड़ा कारण था दोनों भाइयों के आपस का प्रेम… उनका अपना बड़ा सा दुकान था, बीच बाजार में, बहुत चलती थी उनकी दुकान… दोनों भाई मिलकर उसे संभालते थे…

धीरे-धीरे बच्चे बड़े हुए… सविता की बेटियां बड़ी थीं… दोनों का विवाह हो गया… कुमुद के बेटे अभी अपनी पढ़ाई में ही लगे थे… सास गुजर गईं… नंदों ने भी धीरे-धीरे आना बहुत कम कर दिया… आखिर सब की गृहस्थी फैल गई थी… ननदें अब खुद सास बन गई थीं…

 घर में अब सुरेश और अनूप की शादी की चर्चाएं चलनी शुरू हो गई थी… सुरेश ने तो नौकरी कर ली थी… बहुत दूर की नौकरी लगी थी उसकी… सबने मिलकर धूमधाम से सुरेश का ब्याह करवाया…

 वह बहुत दूर में रहता था… बार-बार आना संभव नहीं था… इसलिए एक हफ्ते के अंदर ही बहू को लेकर चला गया…

 समय के प्रभाव से कुमुद का पति भी नहीं रहा… वह भी चल बसा… नई बहू महीने भर भी सांस से बातें नहीं करती… कहीं से कोई खबर नहीं मिलती… सविता को चिंता होती रहती…” क्या छोटी… बहू से बात हुई… सुरेश से बात हुई…!”

” अरे दीदी… छोड़िए ना… जाएंगे कहां… अभी बच्चे होने की बारी आएगी, तो मुझे ही बुलाएगी ना… तब देखिएगा आप… कैसे पूछती है दिन रात मुझे…!”

 मगर ऐसा नहीं हुआ… सुरेश की बीवी ने दो महीने पहले ही अपनी मां को अपने पास बुला लिया… सास की खुशामद तो क्या… उसे एक बार दिल रखने को भी नहीं पूछा… बस पड़ोसियों की तरह बता दिया कि पोता हुआ है…

 कुमुद ने मन में सोच लिया… अबके तो ऐसी बहू लाऊंगी… जो यहीं रहेगी… बेटे के साथ… उसे उड़ने की इजाजत नहीं दूंगी… अनूप ने बड़े पापा के साथ दुकान संभाल लिया था… तो वह घर में ही रह गया था…

 कुमुद के छोटे बेटे का ब्याह सबसे अधिक धूमधाम से हुआ… आखिर घर के सबसे छोटे बेटे की शादी थी…

 जिस बेटे बहु पर कुमुद अपने सपनों के पुल खड़े कर रही थी… उस बहू ने आते ही घर में बंटवारे की दीवार खड़ी करवा दी… 

इतने दिनों से जो परिवार नहीं बंटा था… उसमें अनूप की बीवी ने, पहले अपनी सास और बड़ी सास का बंटवारा करवाया… क्योंकि उसे दुकान में अपना हिस्सा चाहिए था… और ऐसा तभी होता जब दोनों भाइयों का बंटवारा होता… तो जो अब तक नहीं हुआ था वह अब हो गया… सविता और कुमुद के चूल्हे अलग हो गए… 

उसके कुछ ही दिनों बाद बहुरानी ने अपनी सास से अपना हिस्सा मांगना शुरू कर दिया… आखिर रोज-रोज की चिक-चिक से परेशान होकर, कुमुद ने बड़े बेटे को बुलाकर सुरेश और अनूप का बंटवारा भी करवा दिया…

 अनूप अपने हिस्से की दुकान और मकान को घेर कर अलग हो गया… कुमुद अब बिल्कुल अकेली थी… चार बातें कहने सुनने को सविता थी… लेकिन एक दिन दिल के आघात से वह भी चल बसी… अब कुमुद दिन रात अकेली, बनाती… खाती… और रास्ते पर आने जाने वालों को ताकती रहती थी…

 सविता की बेटियां अक्सर अपने बाबा से मिलने चली आतीं… जब भी आतीं छोटी मां से भी जरूर मिलतीं… कुमुद अब वह छोटी मां नहीं थी… जो कभी सीधे मुंह किसी से बात भी नहीं करती थी… अब वह बेटियों का बड़ा आदर, सत्कार, मान करती… उनसे बार-बार रह जाने की दिल से गुहार करती…

” बिटिया रानी… तुम ही दोनों के आने से तो थोड़ी रौनक बनती है… फिर आना… आती रहना… जल्दी आना… और भी जाने क्या-क्या…!” 

अब उसे सविता की कही बात अक्सर याद आ जाती थी…” छोटी वक्त से डरो… वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता…!”

रश्मि झा मिश्रा 

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