सुबह और शाम की भागदौड़ में बस दोपहर का ही समय थोड़ा राहत देने वाला होता है- जब आधे अधूरे कामों को पूरा करने और कुछ नया प्लान करने, साथ ही साथ थोड़ी थकान मिटाने को एकान्त मिलता है। इस एकान्त का भरपूर लाभ उठाती हूँ मैं।
आज भी कुछ हिसाब-किताब जोड़ रही थी तभी मेरा बेटा दो- तीन दोस्तों के साथ घर आ गया। इस तरह हँसते-खिलखिलाते सब आ रहे थे जैसे कोई कॉमेडी पिक्चर देखकर आ रहे हों। घड़ी देखी-न तो यह समय इनके कॉलेज से लौटने का है,
न ही किसी पिक्चर का पहला शो खत्म होने का। मतलब कुछ क्लासेज नहीं हैं, सो सीधा कॉलेज से ही घर आ गए। अच्छा ही है। इस उम्र में ज्यादा भटकने की आदत ठीक नहीं।
सब आराम से ड्राइंग रूम में पसरकर बैठ गए, पर हँसी किसी की रुक नहीं रही थी। मुझसे रहा नहीं गया। सबको पानी पिलाकर मैं वहीं बैठ गई- “भई! हमें भी बताओ, कौन सा कॉमेडी शो देखकर आ रहे हो?”
फिर से हँसी का फव्वारा फूट पड़ा- “आंटी यह तो रोज हमारी एकाउंट्स की क्लास में होता है। रोज पूछा कीजिए तो आपका सारा तनाव निकल कर सेहत सुधर जायेगी…..”
अच्छा! इस बन्दर ने तो कभी नहीं बताया ऐसा कुछ। “अरे मम्मी आप बोलोगी, टीचर का मजाक बनाते हो- इसीलिए ! वरना रोज सुनोगी तो बढ़िया इंगलिश भी सीख जाओगी और याद करके हँसते-हँसते तरो-ताजा बनी रहोगी।”
फिर से सब हँसने लगे- “हा! हा! तुम हँस सकते हो-यू हैव टाइम टू मेक नान एकाडमिक साउंड – पीयूष बोला।
“बट नथिंग टू मेक एकॉडमिक नॉयज – राघव ने वाक्य पूरा किया और फिर से सब हँस-हँस कर दोहरे होने लगे।
मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा- “भैया ये किस देश की भाषा है?”
नहीं समझी नः मम्मी ? सुनो-हम लोगों को पूरा हक है, बल्कि पूरा टाइम है कॉलेज के बाहर आवाज-शोर-शराबा करने और हँसने का। पर क्लास के अन्दर शोर-गुल करना मना है….।”
अब उनकी हँसी में मैंने भी साथ दिया। और एक दिन आंटी मुझे उठने में थोड़ी देर हो गई। मॉर्निंग कॉलेज है न! जल्दी से जैसे-तैसे तैयार होकर दौड़कर क्लास में पहुँचा। शायद कुछ जोर से ही सर से पूछ गया- ‘मे आई कम इन सर ?
मुझे नीचे से ऊपर तक घूर कर देखा सर ने, फिर कहते हैं- ‘आर यू कमिंग फ्राम विलेजर्स?”
फिर से सब हँसते-हँसते दोहरे होने लगे। मुझे गर्व है कि मेरा बेटा शहर के नामी कान्वेन्ट स्कूल से निकलकर क्रिश्चियन कॉलेज में बी. कॉम पढ़ रहा है। स्वाभाविक ही है कि उसकी इंग्लिश, उसकी पसंद, उसका उठना-बैठना – सब कुछ एक अलग ही आभिजात्यता को प्रदर्शित करता है।
मैं ड्राइंग रूम से निकलकर आ रही थी, पीछे से राघव बोला- ‘यार ये क्रिश्चियन कॉलेज में इतनी पूअर इंग्लिश वाले लेक्चरर क्यों रखते हैं? कॉलेज की भी तो इमेज खराब होती है।
“तेरा दिमाग खराब है- डी.पी. सर के मुकाबले कोई खड़ा हो सकता है? इतना बढ़िया रिकार्ड है उनका। जब क्लास में खड़े होकर वे बोलते हैं तो तू उनकी इंग्लिश सुनता है या उनका लेक्चर? जो पेपर वो तैयार करवाते हैं, किसी लाइब्रेरी में घंटों छानकर ही मिल पायेगा।”
बच्चों के सवाल-जबाब मेरे दिमाग में स्कूल के घंटे की तरह टन् से टकरा गये। हाँ, यह तो वही पहचानी सी बात है। बहुत नई नहीं तो बहुत पुरानी भी नहीं-जब हम स्कूल में पढ़ते थे….।
स्कूल जरूर हिन्दी माध्यम का था, पर उसका अनुशासन, पढ़ाई का रिकार्ड-सब इतना दमदार था कि आज भी स्कूल की याद आने से चेहरे पर मुस्कान खेल जाती है। हमारी प्रिंसिपल थीं एक पंजाबी महिला- फकाफक गोरा रंग कुछ लालिमा लिए हुए,
भरा-भरा शरीर, चेहरे पर चिपकी मुस्कान बरबस ही सामने वाले को मोह लेती, मगर अनुशासन भी उतना ही सख्त।
थोड़ा भारी शरीर कहा था, मगर उस तीन मंजिला बिल्डिंग में दो राउंड तो स्कूल के जरूर लगते उनका रोज का नियम था। हर क्लास की ओर झाँकते हुए गुजर जाना– आशाओं पर ही नहीं, टीचर्स के ऊपर भी पूरा असर डालती थी।
छात्राओं में जैसी विविधता थी, वैसी ही टीचर्स में भी कोई पंजाबी, कोई गुजराती वगैरह, उनमें एक कश्मीरी टीचर भी थीं। मगर सबसे अलग थीं हमारी इंग्लिश टीचर-बांग्ला देश की। हालाँकि तब बांग्ला देश नहीं बना था, वह बंगाली ही कहलाती थीं-वेडील शरीर,
पेट कुछ निकला हुआ, रंग काला आबनूसी, हाथ-पैर कुछ छोटे, चेहरे पर मोटे-मोटे दो-तीन काले तिल। दाँत बड़े- बड़े बाहर की ओर
निकले हुए- कुल मिलाकर कुछ वीभत्स रस का ही बोध होता था। चेहरे पर हँसी का जो भाव रहता था- वह भी अद्भुत रस का प्रतिपादन करता था। उनकी हँसी पर भी लड़कियाँ मुँह छुपाकर हँसती थीं।
शरीर की तरह ही नाम भी उनका अद्भुत मर्दाना सा था- मिसेज़ सेन। उनके पास हर मौसम में एक छाता हाथ में रहता था, साथ में एक प्लास्टिक की डोलची-जिसमें एक तौलिया, एक डाभ, हार्लिक्स की शीशी, पानी की शीशी और दो-एक छोटी-छोटी चीजें होती थीं। टीचर्स रूम तीसरे मंजिल पर था। पचास- पचपन की उम्र में इतना सामान लेकर ऊपर चढ़ना उनके लिए सम्भव न था।
अतः सीढ़ी पर खड़े होकर इन्तजार करती थीं- कोई न कोई छात्रा पास आकर जब कहती- “मैम हम पहुँचा दें” तो खुश होकर तुरन्त सारा सामान उसके सुपुर्द कर देतीं और ऊपर पहुँचकर इतने आशीर्वाद देर्ती कि वह भी लड़कियों के मनोरंजन का एक कारण बन जाता था।
उनकी इंग्लिश से क्लास में सभी छात्राएँ घबराती थीं। बहुत सावधानी के बावजूद अच्छी-अच्छी लड़कियाँ भी अपने आप को बहुत कमजोर महसूस करतीं। एक दिन इसी तरह उनकी डाँट सुनते-सुनते, उनके चेहरे के भाव, उतार-चढ़ाव लक्ष्य करते एक छात्रा को हँसी आ गई।
धीरे से उसने कहा- “हमारी क्लियोपेट्रा गुस्से में कितनी सुन्दर लगती हैं-फिर -फिर तो हँसी रोग की तरह तरह पूरी क्लास में फैल गई। मुँह दबाकर सब छात्राएँ हँस रही थीं। मैम गुस्से में बिलबिलाती इंग्लिश से हिन्दी पर उतर आईं- “तुम हमारा मोजा पाया है…. क्या समझता हमको….. (तुम हमारा मजाक बनाती हो?)।”
उनका वाक्य पूरा होने के पहले ही एक छात्रा उठकर बोली- “मिस यहाँ तो कोई मोजा नहीं है, किस कलर का था? कब उतारा आपने?”
दबी हंसी तेज हंसी में बदल गई। उसी के साथ मैम ने हाथ की पुस्तक मेज पर पटक दी और धम्-धम् करती क्लास के बाहर निकल गई। उसी समय प्रिंसिपल मैडम अपने राउंड पर थी, हमारी ही क्लास के सामने खड़ी थी। लड़कियों को मानो साँप सूध गया।
प्रिंसिपल मैडम चुपचाप आकर कुर्सी पर बैठ गई और क्लास के मॉनिटर को पास बुलाया। सिर झुकाये उसने जस का तस वर्णन कर दिया। मैडम भी हल्के से मुस्कुराई, फिर छात्राओं से पढ़ाई के बारे में दो-चार सवाल पूछे- मानो अपने आप को संयत कर रही हों। फिर दोपहर को टिफिन टाइम में सबको अपने रूम में आने को कहकर प्रिंसिपल चली गईं।
लड़कियों की जान सूख रही थी, पूरा स्कूल देख रहा था। टिफिन टाइम में लाइन लगाकर पूरी क्लास प्रिंसिपल के रूम के बाहर खड़ी थी।
मैडम ने बाहर आकर सबको अपने रूम में अन्दर बुलाया- वहाँ मिसेज़ सेन पहले से बैठी थी, बच्चों की तरह मुँह फुलाये। लड़कियाँ सिर झुकाकर खड़ी थीं, पता नहीं क्या होगा! अचानक प्रिंसिपल मैडम मैम के पास जाकर हाथ जोड़कर खड़ी हो गई-
‘दीदी! ये आपके बच्चे हैं, इनसे गलती हो गई। इनकी तरफ से मैं आपसे माफी माँगती हूँ-वे हाथ जोड़कर खड़ी रहीं।
सब लड़कियाँ हिल गईं, तुरन्त सबने हाथ जोड़कर माफी माँगी। मॉनिटर ने आगे बढ़कर मैम के पैर छूकर माफी माँगी- मानो प्रिंसिपल मैडम का अनुसरण कर कुछ आगे बढ़ी। बाकी छात्राओं ने भी यही किया।
मैम गद्गद् हो गई बच्चों की तरह चहक कर बोलीं- “ठीक है! ठीक है! कोई बात नहीं, ऐसा होता। फिर मुस्कुराकर बोलीं- “असल में हम देखने में बहुत खराब हैं न, सब हँसता। कोई बात नहीं। पर हमको बच्चा लोग अच्छा लगता, तभी तो हम स्कूल आता। तुम सब बहुत अच्छा-जाओ-जाओ टिफिन खाओ…..”
टिफिन के बाद प्रिंसिपल फिर क्लास रूम में आईं और शान्ति से कुर्सी पर बैठ गई- “मुझे तुम लोगों से एक बात कहनी है यही सही मौका है। तुम लोग सेन मैम को बस एक इंग्लिश टीचर की तरह जानती हो, बस ! मगर विधाता ने
रंगरूप छोड़कर कुछ ऐसे दुर्लभ गुण भी दिये हैं उन्हें जो सबके पास नहीं होते। से सन् सैतालिस के दंगों में ढाका से भागकर कलकत्ता आई हैं-एक बड़े जमीदार की इकलौती लाडली बेटी-जिसका सब कुछ दंगों में लुट गया। उस जमाने में वे चार विषयों में एम.ए. थीं। पढ़ना ही उनका शौक था। भूगोल के एक प्रश्न को लेकर मेरा उनसे परिचय हुआ था।
जिसका उत्तर मैं कई लोगों, कई टीचर्स से पूछ चुकी थी-सिर्फ इन दीदी ने ही तुरन्त वह समस्या सुलझा द… उन्हें अफसोस सिर्फ अपनी उस ढाका वाली घरेलू लाइब्रेरी का है जिसमें कई दुर्लभ पांडुलिपियाँ थीं-जिन्हें दंगाइयों ने जला दिया….। इस अनमोल हीरे को मैं ही इस स्कूल में लाई हूँ और आशा करती हूँ कि तुम लोग भी उनकी इज्जत समझोगी।”
प्रिंसिपल तीर की तरह क्लास से निकल गईं। हम सब लड़कियाँ फिर से खड़ी हो गईं दोनों के सम्मान में- बिना किसी के समझाये।
लेखिका : सरिता अग्रवाल