दादा जी गुजर गए थे और वसीयत लिखी है की नहीं किसी को पता नहीं था। घर के बाहर अंतिम दर्शन करने वालों की भीड़ इकट्ठी थी लेकिन उनके चारों बेटे अंदर जमीन जायदाद के लिए झगड़ रहे थे।
“पिता जी ने कभी कुछ बताया ही नहीं की किसको क्या – क्या मिलेगा? भइया क्या वसीयत बनाई थी पिताजी ने? अगर नहीं तो बुआ जी को हिस्सा देना पड़ेगा “कमलेश बड़े भाई अशोक से पूछ रहा था।
बुआ जी यानि सावित्री देवी जो शादी होने के कुछ ही सालों के बाद ससुराल से मायके क्या आईं थीं की दोबारा लेने ही नहीं आया कोई।सुना था बहुत ही बेदर्द थे सभी, बहुत सताते – मारते थे।जब कोई लेने नहीं आया तो बुआ जी ने भी कभी जाने को नहीं कहा था।
एक दिन दादा जी को सारी बातें बताई थी। तबसे दादा जी के साथ ही रहतीं थीं। दादी जी के चले जाने के बाद दादा जी का पूरा ख्याल रखती थी। यहां तक की सारे लड़के अपने – अपने परिवार में मस्त थे ।
दादा जी जने बिस्तर पकड़ लिया था तब भी एक स्त्री होते हुए भी उनको नहलाना, खिलाना सब करतीं थीं।कई बार तो तो पेट खराब होने की वजह से बिस्तर खराब हो जाता था,तब भी वो अकेली ही सब संभालती जैसे एक मां अपने बच्चों को निस्वार्थ भाव से सेवा करती हैं।
रिश्तेदारों ने आवाज लगाई तो चारों भाई ने आकर अंतिम संस्कार की तैयारी की ।दादा जी हमेशा के लिए चले गए थे जिसका दुख सबसे ज्यादा बुआ जी की आंखों में ही दिखाई दिया था।
अब प्रश्न जायदाद तक ही नहीं था उससे भी बड़ा प्रश्न था कि बुआ जी कहां रहेंगी? क्योंकि बुआ जी को अकेले छोड़ दिया तो गांव वाले और भी सुनाएंगे। इससे भी ज्यादा की पता कैसे किया जाए की बुआ जी को कितना हिस्सा मिला है या कुछ भी नहीं मिला।
अशोक और राकेश एक कोने में बैठ कर इसी उधेड़बुन में लगे थे,लेकिन किसी की हिम्मत ही नहीं थी की कोई बुआ जी से कुछ पूछ पाता।
तेरहवीं हो गई थी और एक – दो दिन में सभी को निकलना भी था। सारे भाइयों का भी आपस में कम ही मिलना होता था तो यही मौका और जगह भी थी सबकुछ निपटाने की भी।
बड़ी भाभी ने बुआ जी से कुछ उगलवाने की कोशिश की थीं उसी समय कोई मेहमान आ गया तो बात अधूरी रह गई थी।
बुआ जी को अंदाजा तो लग गया था सबके बात व्यवहार से की दादा जी के जाने का विशेष दुख नहीं था सभी को, ज्यादा फ़िक्र बंटवारे को लेकर थी।
बड़े भइया ने दादा जी के संदूक की तलाशी ली तो हक्के-बक्के रह गए क्योंकि दादा जी ने सारी जायदाद बुआ के नाम लिख दिया था और उसमें ये शर्त रखी थी कि जो बुआ जी की अंतिम समय तक अच्छी तरह सेवा करेगा उसी को सबकुछ मिलेगा।
अब बड़े भइया के तेवर बदल गए थे और उन्होंने किसी भाई से इस बात की जिक्र भी नहीं किया और बुआ जी को अपने साथ रखने का फैसला सुना दिया परिवार को।
तीनों भाइयों को समझ में नहीं आ रहा था कि बड़े भइया को दादा जी के देखभाल की कभी भी कोई चिंता नहीं थी और बुआ जी के प्रति इतना स्नेह।
जब कुछ खास हांथ नहीं आया तो सभी अपने अपने घर लौट गए और फैसला लिया की फिर से यहीं घर पर इकट्ठा हो कर लेखपाल से मिलकर जमीन के बारे में पता करेंगे।
बुआ जी तो बेसहारा सी हो गई थी क्योंकि दादा जी का साथ जो छूट गया था और वो दोनों ही आपस में बातचीत करके सुख – दुख बांट लिया करते थे।
बड़े भइया के घर पहले तो खूब आदर सम्मान मिला लेकिन धीरे-धीरे व्यवहार में बदलाव आने लगा था। कुछ महीनों बाद बड़े भइया बुआ जी को गांव छोड़ आए थे,सबसे ये कहा की बुआ जी को शहर का दाना – पानी नहीं लग रहा है।
बुआ जी गांव आ गई थी और आस पास के लोग उनका परिवार से भी बढ़कर ख्याल रखते थे।खाने – पीने की दिक्कत नहीं थी क्योंकि दादा जी ने कुछ धन राशि बुआ जी के नाम अलग से की थी। पड़ोस का गुड्डू बुआ जी के साथ जाता और महीने का खर्चा बैंक से बुआ जी निकाल लातीं। ज्यादा जरूरतें भी नहीं थी और भगवान की कृपा से बीमारी भी नहीं थी। कामकाज अच्छी तरह से कर लेती थीं।
वादे के अनुसार जब सभी भाई इकट्ठा हुए तो बड़े भइया ने बहाना बनाया की उनकी तबीयत ठीक नहीं है, तुम सब जो फैसला लोगे मुझे मंजूर है।
जब तीनों भाइयों ने जमीन पर नाम चढ़ाने की बात की तो पता चला की सारी जमीन बुआ जी के नाम नहीं बल्कि बड़े भइया के नाम है। बड़े भइया ने छल कपट से बुआ जी के हस्ताक्षर लेकर सबकुछ अपने नाम कर लिया था और बुआ जी को गांव पहुंचा दिया था।
जब बड़े भइया से सवाल किया गया तो मासुमियत से जबाब दिए की मुझे नहीं पता,हो सकता है दादा जी को मुझसे ज्यादा लगाव होगा क्योंकि मैं सबसे बड़ा था तो मेरे नाम सबकुछ कर दिए हों।
तीनों भाइयों ने कोर्ट कचहरी की धमकी दी और घर के सारे रिश्ते तार – तार हो चुके थे और सड़क चौराहे पर इज्जत नीलाम हो चुकी थी।
बुआ जी तो कुछ सालों के बाद चल बसी थीं।उनको तो पहले भी धन दौलत का लालच था ही नहीं।एक अच्छी बेटी बनकर उन्होंने दादा जी की सेवा करके अपना धर्म निभाया था और जिन्होंने सिर्फ धन दौलत की लालच की थी वो आज भी कचहरी के चक्कर लगा रहे थे। अशांति और मन-मुटाव ने सबकुछ खत्म कर दिया था।
फैसला आने तक तो बड़े भइया भी नहीं रहे थे। सभी को सम्पत्ति में हिस्सेदारी तो मिल गई थी पर उससे ज्यादा का नुक़सान उठाना पड़ा था, रिश्तों का भी और दौलत का भी।
प्रतिमा श्रीवास्तव नोएडा यूपी