छोटे शहर की पुरानी हवेली में रहने वाली कुसुम देवी को मोहल्ले में एक अनुशासित, संस्कारी और सख्त सास के रूप में जाना जाता था। उनके बेटे रोहित की शादी एक साल पहले स्नेहा से हुई थी। स्नेहा पढ़ी-लिखी, सुशील, और स्वभाव से बेहद शांत लड़की थी। उसने शादी के बाद घर को अपना मानकर हर जिम्मेदारी निभाने की कोशिश की, लेकिन एक चीज़ जो उसे रोज़ खलती थी — वो थी उसकी सास की बेरुख़ी।
कुसुम देवी को लगता था कि नई पीढ़ी की बहुएं नाज़ुक होती हैं, कामचोरी करती हैं और ज़िम्मेदारी से जी चुराती हैं। इसी सोच के चलते वे स्नेहा की कोशिशों को कभी नहीं सराहतीं, बल्कि छोटी-छोटी बातों पर उसे टोकना, ताने देना उनका रोज़ का नियम बन गया था।
स्नेहा चुपचाप सब कुछ सहती रही। न तो उसने रोहित से कुछ कहा, न किसी और से। उसे लगता था कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा। जवाब देने से बात और बढ़ेगी।यदि उसके चुप रहने से सास का अहम संतुष्ट होता है तो कोई बात नहीं एक न एक दिन वे उसके गुणों को अवश्य समझेंगी इसलिए वह
वह हर संभव प्रयास करती सास के अनुरूप ढलने का लेकिन सास ने तो मानों ठान ही रखा था कि बहू के किसी काम की सराहना नहीं करनी है।
एक दिन तेज़ बुखार और कमजोरी के बावजूद स्नेहा ने सुबह की सारी जिम्मेदारियां निभाईं — झाड़ू, बर्तन, नाश्ता, सब्ज़ी काटना। चेहरे पर पसीना और थकान साफ़ नज़र आ रही थी, लेकिन कुसुम देवी ने आंख उठाकर भी नहीं देखा। उल्टा कहा,
“आज सब्ज़ी में नमक कम है, बहुओं को अब भाव खाना आता हैं, काम करना उनको बिल्कुल नहीं भाता।”
तभी पास बैठी पड़ोसन शीला चाची, जो चाय पीने आई थीं, बोलीं —
“कुसुम बहन, बहू का चेहरा देखा आपने? एक बार आंखें मिलाकर देखिए, शायद कुछ कहती न हो। लेकिनबहू का दुख-दर्द भी तो आपको ही बाँटना पड़ेगा।”
कुसुम देवी चुप रहीं। उस रात, जब सब सो गए, तब स्नेहा के कमरे से सिसकियों की आवाज़ आई। कुसुम देवी चुपचाप दरवाजे के बाहर खड़ी थीं। पहली बार उन्होंने उस दर्द को सुना, जो अब तक अनसुना था।
अगली सुबह स्नेहा की तबीयत बिगड़ गई और उसे अस्पताल ले जाना पड़ा। डॉक्टर ने बताया कि कमजोरी, थकावट और मानसिक तनाव से उसका शरीर जवाब दे रहा है।
वो पल कुसुम देवी की आँखें खोल गया। उन्होंने पहली बार महसूस किया कि बहू कोई मशीन नहीं, एक इंसान है — जिसे अपनापन चाहिए, सराहना चाहिए और सबसे ज़रूरी — समझदारी और सहानुभूति चाहिए।
स्नेहा के अस्पताल से लौटने के बाद, कुसुम देवी ने न केवल उससे माफ़ी मांगी, बल्कि घर के कामों में उसका साथ भी देने लगीं। अब वे स्नेहा के लिए कभी गर्म दूध तो कभी उसकी पसंद की खिचड़ी बनाकर लातीं। पहली बार स्नेहा की आँखों में सास के लिए कृतज्ञता के आँसू थे।
आज कुसुम को आभास हुआ कि बहू भी तो किसी की बेटी है।
मीरा सजवान ‘मानवी’
स्वरचित मौलिक