जिन्दगी – ऋतु गुप्ता

अपने फटे चिथड़ो से किसी तरह अपने बदन को ढकते हुए कजरी अपने बच्चे को छाती से लगाकर अपनी ममता का लहू पिला रही थी, दूध तो बहुत दूर की बात है क्योंकि पिछले तीन दिन से उसे ना खाने को मिला है ना पीने को मिला है।

किसी तरह अपने बच्चे की भूख को अपनी छाती से लगाकर शांत कर रही है, बच्चा भी छाती से लग कर कुछ देर के लिए दूध की भूख भूल जाता है, बस छाती से लगे लगे मां की गोद में सो जाता हैं। 

लेकिन कुछ ही समय बाद भूख के कारण कुलबुलाने लगता है, मां का वात्सल्य ही है कि उस सूखी छाती से भी बच्चे के लिए दूध की कुछ बूंदें अमृत के रूप में बच्चे को मिल ही जाती है।

पर इस तरह कब तक चलेगा , उन लोगों की झुग्गी झोपड़ियां जलकर खाक हो चुकी है कबीला समुदाय तितर-बितर हो गया है,

उस समुदाय के मर्द काम की तलाश में बाहर निकल गये है, पर कुछ बूढ़ी औरतें और नन्हें शिशुओं की माएं वही रेल की पटरियों के पास बैठी अपनी जली हुई झोपड़ियों की तबाही को देख रही है।

 कजरी अपने बच्चे को दूध पिलाते पिलाते देख रही है कि सामने का चायवाला उसकी वात्सल्य से भरी छाती में भी अपनी वासना की तृप्ति करना चाहता है,उसके फटे अंग वस्त्रों में बेहाई और बेशर्मी से झांक रहा है,उसकी आंखों से लगता है कि जैसे वो आंखों से ही कजरी को खा जाना चाहता है।

 कजरी सोचती है ,हये री औरत, तेरी क्या बिसात है इन गीदड़ो की बस्ती में…. क्या एक औरत की ममता इतनी बेबस होती है ,? क्या औरत की ममता का कोई मूल्य नहीं?

अभी कुछ देर पहले जब वो मजबूर होकर चाय वाले से एक कटोरी दूध अपने बच्चे के लिए मांगने गई, तो उसने उसे पांच सौ का नोट दिखाते हुए कहा, बच्चे को दूध भी दूंगा और तुझे खाने को भी दूंगा, और साथ में पांच सौ रुपए भी, पर उसे उसकी वासना को शांत करना होगा, चाय वाले ने कहा क्या हुआ जो अपने बच्चे के लिए रात भर उसके साथ सो पाये तो?

कजरी को कुछ न सूझा बस उस चायवाले पर कोसते हुए वापस अपनी झुग्गी के पास आकर बैठ गई और बच्चे को अपनी छाती से लगा लिया।

तभी बच्चे की रोने की आवाज सुनकर अपनी भावनाओं के ज्वार भाटे से बाहर आकर वास्तविकता का सामना करती है, छाती में उठे वात्सल्य ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया और ना चाहते हुए भी एक मां की बेबसी ने अपनी ममता का मूल्य लेने के लिए उसके कदम चाय वाले की दुकान की ओर बढ़ चले। शायद यही जिन्दगी की बेबसी है।

ऋतु गुप्ता

खुर्जा बुलंदशहर

उत्तर प्रदेश

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