स्मृति बीते हुए किसी विशेष पल के बंधन में जकड़ी नहीं रह पाती ,इसमें इतना अपनापन ,इतना माधुर्य होता है कि वह किसी भी वक्त वर्तमान बन बेहद करीब आ बैठती है .सच कहूं तो स्मृति उस सुगन्धित धूप बत्ती के सदृश होती हैं जो जल कर बुझ भी जाए तो भी कई घंटों तक फ़िज़ा को महका कर खुशनुमा एहसास देती रहती हैं.आज सुंदरता का एक एहसास मेरे ज़ेहन में बड़ी ही खूबसूरती से कैद है.
“सुंदरता किसी व्यक्ति,वस्तु,प्राणी,या स्थान में नहीं बल्कि उसे देखने वाले की आँखों में होती है.”
यह कथन अक्षरसः सत्य है तभी तो चेचक जैसी महामारी से भी जीवित बचे उन प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के दाग भरे चेहरे की दमक अब तक मेरे संपूर्ण व्यक्तित्व का प्रकाश स्तम्भ बनी मार्गनिर्देशन कर रही है. चेहरे पर चेचक के अनगिनत दाग भरे गड्ढे, चौड़े काले रंग की फ्रेम जड़े मोटे शीशे के अंदर से दिखती दो छोटी-छोटी गहरी आँखें …मानो उन दो लघु बूंदों में जीवन का संपूर्ण ज्ञानुभव सिंधु हिलोरें ले रहा हो……..कुछ धूप-छाँव सी ही श्वेत-स्याह मूंछे और उनसे छुपने का असफल प्रयास करती मोहक सी मुस्कान…….
ज़िंदगी के अनुभवों का एहसास देते …तेल लगे चमकते केश कुछ इस कुशलता से पीछे की ओर संवारे होते कि ऊंचे ललाट पर रक्तिम तिलक की चमक स्पष्ट दृष्टिगोचर होती ……..मोटे खादी की दूधिया कुर्ता-धोती के कुर्ते की आस्तीन इतनी लम्बी कि हाथों की उँगलियों को भी ढके रहती… ..शायद यह दागों को भरसक छुपाने का एक प्रयास था तभी तो चेहरे के अतिरिक्त संपूर्ण काया दूधिया वर्ण में सिमट जाती थी…सामान्य व्यक्तित्व के कई शिक्षकों से बिलकुल भिन्न छवि वाले ये थे हमारे हिंदी साहित्य और संगीत के शिक्षक….
आज साहित्य और संगीत के प्रति किशोरावस्था का वह रूझान इस कदर मुखर हो उठता है कि समझ में नहीं आता यह औरों को बेहद कुरूप पर मुझे अत्यंत मोहक दिखने वाले उस व्यक्तित्व की सुंदरता के प्रति रूझान की परिणति है या साहित्य और संगीत की स्वयं सिद्ध सौंदर्य का प्रभाव . सच कहूं तो उनकी उँगलियों के बीच लम्बी सफ़ेद चॉक बड़ी लुभावनी लगती ..हालांकि लम्बी चॉक की चूँ-चूँ की आवाज़ से व्यवधान होने के कारण वे उसे तोड़ना चाहते पर हम सब विद्यार्थी उन्हें ऐसा करने से रोक देते थे विशेष रूप से मैं मन ही मन उस चॉक तथा सर दोनों के चिरंजीव होने की दुआ करती रहती….
उनकी एक ख़ास विशेषता थी कि वे जो भी पद्य,नाटक,कहानी कक्षा में पढ़ाते ..गीत-संगीत की कक्षा उसी पर आधारित होती..यहाँ तक कि वार्षिकोत्सव पर उन्ही का मंचन भी किया जाता और कई विद्यालयों की प्रतियोगिता में गीत संगीत नाटक के क्षेत्र में हमारे विद्यालय के सर्वोच्च तमगे का एकाधिकार कई वर्षों तक बना रहा.मैथिली शरण जी की’माँ कह एक कहानी’ पर आधारित नाटिका …
जय शकर प्रसाद जी की ‘अरूण यह मधुमय देश हमारा’पर समूह नृत्य… ‘बीती विभावरी जाग री ‘पर एकल नृत्य …उनके द्वारा ना जाने कितने ऐसे साहित्य-संगीत की गंगा जमुनी तहज़ीब की बेहद खूबसूरत यादें अतीत की कक्षा से सफ़र करती हुई मेरे वर्त्तमान को दिशा और भविष्य को स्वप्न दे रही हैं . प्रत्येक विद्यार्थी के लिए उनके मन में स्नेह का सागर लहराता था …
हर सितारे को वे सूरज बना देना चाहते थे और मुझे तो उन्होंने कभी सितारा माना ही नहीं …….इसकी एक खास वज़ह भी थी.याद है मुझे संगीत की वह कक्षा जब समूह गान की बजाय प्रत्येक विद्यार्थी को व्यक्तिगत प्रतिभा का परिचय देना था..४० विद्यार्थी और प्रत्येक कक्षा में 10 विद्यार्थी की परीक्षा… चूँकि मेरे नाम का प्रथम वर्ण ‘य ‘था अतः अंतिम समूह में मुझे परीक्षा देनी थी…उन्होंने रामचरित मानस में से श्लोक दिया….’नमामि शमीशान निर्वाण रूपम विभुं…..’ हारमोनियम के एक सुर समाप्ति के तुरंत बाद मुझे गायन शुरू करना था…..पर…. अश्रु की अविरल धारा के बीच सिसकी और हारमोनियम की आवाज़ उन सिसकियों में खो सी गई…
मैं फूट-फूट कर रो पडी .सर ने अन्य 9 विद्यार्थियों को कक्षा से बाहर जाने को कहा …उनमें से एक ने चिल्ला कर कहा “सर,य तोतली है.”अब तो मेरी सिसकी रूदन के पंचम सुर बिखेरने लगी..सर ने जोर से कहा,” गाओ “मैंने आरम्भ किया,”नमामि तमीतान निर्वाण रूपमसुर बिखेरने लगी..सर ने जोर से कहा,” गाओ “मैंने आरम्भ किया,”नमामि तमीतान निर्वाण रूपम…..
“सर ने कहा,” बस, इतनी सी बात.तुम सिर्फ ‘स’ ‘श’ और ‘ष’ का उच्चारण ‘त ‘करती हो….देखो,इतने कुरूप चेहरे के साथ भी मैं दुनिया का सामना कर रहा हूँ ….. इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं पर तुम्हे मैं मंच सञ्चालन करते देखना चाहता हूँ …….इस तरह हारोगी तो दुनिया और रूलायेगी …..तुम्हे एक अभ्यास करना होगा रोज़ अकेले शांत जगह पर बैठ ,जीभ पर बहुत छोटे-छोटे दो पत्थर रख कर धीरे से ‘श’ बोलने की कोशिश करना और कुछ महीनों में तुम्हे परिणाम दिखाई देगा “…..
ना जाने वह मंच संचालन का प्रलोभन था या सर के दिली गहराइयों में दफ़न उनकी जीजिविषा की तड़प और साहस से उपजी प्रेरणा …उस दिन से प्रयास जारी रखने पर तीन महीनों बाद मैंने’ श’ का उच्चारण सही रूप से किया….उन्होंने बाल सभा में मुझे एकल रूप से कविता पाठ दिया वह कविता थी साहिर लुधियानवी जी की…
‘पिघला है सोना दूर गगन पर फ़ैल रहे हैं शाम के साये.”इस एक पंक्ति में दोनों श ,स वर्ण थे .मंच के कोने में हारमोनियम पर सर की उंगलियां चल रही थीं…एक बच्ची को सशक्त करने की संतुष्टि की दीप्ति उन्हें और भी हैंडसम बना रही थी….कविता का गीत मंचन समाप्त होते ही हॉल तालियों से गूँज रहा था …सर को एक विद्यार्थी में इस सुन्दर सुधार के लिए सम्मानित भी किया गया ….तब से वे हंसते और कहते , “यमुना अर्थात रवितनया सूर्य की पुत्री हो ..उसकी तरह चमको .”
किशोरावस्था के उस अल्हड पड़ाव से परिपक्वता के इस गतिशील यात्रा में कई शिक्षक,संगीत प्रेमी,विद्याप्रेमी से रूबरू हुई पर अपने बाह्य व्यक्तित्व के दैन्य से रहित ,जीवन के प्रति कृतज्ञ ….जीजिविषा की प्रतिमूर्ति …अपने व्यवसाय के प्रति दर्प …अपने विद्यार्थियों के प्रति निःस्वार्थ जवाबदेही…का अद्भुत संयोग फिर कभी ना देखा ,ना पाया.शिक्षण व्यवसाय से जुडी वर्त्तमान हताशा का तो नामो निशाँ मैंने उनमें नहीं पाया …
उन्हें तो कक्षा की हर बूंद पर विश्वास था…प्रत्येक बूंद में अनंत सम्भावनाओं का सागर तलाश करना वे अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते थे. सर ने मुझे चार वर्ष पढ़ाया…जिस दिन वे सेवानिवृत हो रहे थे उनकी विदाई का समारोह था …मैं उनकी प्रिय छात्रा थी…
मुझे भी मंच पर बोलने का अवसर मिला…क्योंकि मेरा शुद्धता से बोलना तो उन्ही की देन थी….मैं उस वक्त कक्षा नौ में थी…बस इतना ही कहा “सुन्दर वह है जो सुन्दर करे….handsome is as handsome does “सर सचमुच बहुत ‘हैंडसम’ हैं क्योंकि उन्होंने मेरी वाक्शक्ति को ‘ब्यूटीफुल ‘बनाया .”वे सच में ‘ हैंडसम ‘ थे वे सच में ‘ हैंडसम ‘ थे।
हर्ष और विषाद से बहते आंसू सर की आँखों पर लगे चश्में पर बादल बना रहे थे.
तकनीक उस समय इतनी विकसित ना थी….ना मोबाइल ,फोन की सुविधा थी ….ना ही कैमरा हर बच्चे की हाथों का खिलौना था….उनकी कुछ श्वेत श्याम तस्वीर ,उनके द्वारा लिखी व्याकरण की गीतमाला पुस्तक अवश्य बहुत वर्षों तक मेरे पास थी…पर कई स्थान पर यायावरी ज़िंदगी का एक ही दुष्परिणाम यह रहा कि अब मानस पटल पर उनकी स्मृतियों के सिवा मेरे पास कुछ भी चिन्ह नहीं है……।
लेखिका :यमुना पाठक
#नियति