‘कठपुतली’ हां, यही संबोधन सुना था विमला ने अपने लिए..पूरे जीवन में न जाने कितने ऐसे नामों से उसे पुकारा गया था।बचपन की छुटकी, ससुराल की छोटी बहू, किसी की चाची और फिर बच्चा ना होने पर बांझ, बेचारी, फूटी किस्मत वाली जैसे संबोधनों से उसे पुकारा गया था और आज उम्र के इस पड़ाव पर एक नया संबोधन उसके खाते में जुड़ गया था।
पंद्रह दिन पहले ही तो वह अपने छोटे से कस्बे से बाहर निकल जेठ के बेटे के साथ उनके घर रहने आई थी या यूं कहो कि उसका भतीजा उसे बहुत ही मनुहार कर यहां ले आया था।
सालों से अपने छोटे से कस्बे में वह सुखी थी अपने पति के साथ..चाहे उनके जीवन में संतान की बहुत बड़ी कमी थी पर फिर भी वे दोनों आपस में खुश थे।समाज के व्यंग्यों और तानों से कभी-कभी उनका दिल टूट जाता पर फिर एक दूसरे की हिम्मत बन वे एक सुखी जीवन जी रहे थे।
दो महीने पहले अपने पति के आकस्मिक निधन से वह दुख के सागर में पूरी तरह से डूब चुकी थी।आस पड़ोस के साथ उसका व्यवहार बहुत अच्छा रहा था इसीलिए सब उसकी हिम्मत बांधने उसके आसपास खड़े थे।
मायके में सिर्फ एक भाई था जो अपने बच्चों के पास विदेश में जा बसा था। रिश्तेदारी के नाम पर सिर्फ जेठ और ननद का परिवार था।कुछ दिन तो सब उसके साथ रहे पर फिर वापिस अपने अपने घरों को लौट आए और वह रह गई अकेली।
कभी-कभी वह सोचती कि इतने बड़े संसार में वह बिल्कुल अकेली है.. नितांत अकेली। अगर आज उसके भी बच्चे होते तो अकेलेपन का दंश उसे सहना ना पड़ता पर फिर जब अपने बच्चों द्वारा सताए बुजुर्गों को वृद्ध आश्रम में भेजने की बातें सुनती तो खुद ही अपने आप को समझाती कि जिनकी संताने है वे भी तो आज अकेले ही हैं।
खैर, दो महीने तो पड़ोसियों के साथ से उसके आराम से गुज़र गए थे।फिर अचानक दो महीने बाद जेठ का लड़का मनोज उसके सामने आ खड़ा हुआ और बोला,” चाची, अपना सामान बांध लो..अब आपको अकेले रहने की ज़रूरत नहीं..आप चलो मेरे साथ और अब आप वहीं रहोगी।”
उसने मनोज को बहुत समझाया कि वह अपने ही घर में खुश है।आस पड़ोस का साथ है.. छोटा सा कस्बा है तो सभी एक दूसरे को जानते हैं इसलिए ज़्यादा परेशानी की कोई बात नहीं.. लेकिन मनोज तो जैसे अड़ ही गया,” नहीं चाची, आपको मेरे साथ जाना ही होगा”।उसकी जिद के आगे विमला की एक न चली और वह सामान बांध उसके साथ चलने को तैयार हो गई।
इतनी देर में जेठानी से भी उसकी फोन पर बात हो चुकी थी और वह भी उसे आने के लिए बार-बार मनाने की पूरी कोशिश कर रही थी।आस पड़ोस में जब यह बात पता चली तो उन्होंने भी उसे यह सलाह दी कि कुछ देर वह वहां पर रहकर देख आए और अगर अच्छा ना लगे तो अपने घर में वापिस लौट सकती है हम सब तो हैं ही यहां पर।
खैर मन में अनगिनत सवाल लेकर वह मनोज के साथ चल पड़ी थी। सवाल इसलिए क्योंकि जेठ के बच्चों ने कभी इतना प्यार उसकी तरफ नहीं जताया था.. हालांकि उनके बचपन में उसने अपनी सारी ममता इन बच्चों पर लुटाई थी।
तीन-चार घंटे के सफर के बाद वह जेठ जी के घर आ पहुंची थी।सबने उनका गर्म जोशी से स्वागत किया एक पल तो विमल को लगा कि जैसे अकेले रहकर उसने बहुत बड़ी गलती की थी उसे तो अपनों के बीच में रहना चाहिए था।
तीन-चार दिनों में सबका प्यार पाकर वह बहुत खुश थी।जेठानी भी उसके साथ खूब बातें करती और उनकी बहू उसके आगे पीछे डोलती और उसके खाने पीने का भी पूरा ध्यान रखती।उसने भी तीन-चार दिनों में ही इस घर को अपना मान लिया था।
अगले 15 दिनों में अब उसे यह घर बिल्कुल अपना लगने लग पड़ा था।वह भी आगे होकर अब सारे काम करने लगी थी।बहू की रसोई में मदद करनी हो या माली से पौधों की कटाई छंटाई करना,
धोबी को गिनकर कपड़े देना लेना..ऐसे छोटे-मोटे अनगिनत काम उसने अपने सिर पर ले लिए थे।वैसे उसे शुरू से ही आदत भी थी इन सब कामों की पर उसकी यह खुशी ज़्यादा दिन तक नहीं टिक पाई थी।
एक रात को उसने सोचा कि क्यों ना सुबह सभी को उनकी पसंद का नाश्ता कराया जाए।मन ही मन सुबह के नाश्ते के बारे में सोचती हुई वह रसोई घर में सुबह का सारा सामान इकट्ठा करने चल पड़ी थी कि तभी रसोई घर में जाते हुए उसे जेठ जी के कमरे से सभी की आवाज़ें सुनाई दी थी।
उसे लगा कि सभी यहां इकट्ठे होकर बातें कर रहे हैं..वह भी कमरे के अंदर जाने को हुई तो अपना नाम सुनकर उसके कदम ठिठक गए।
जेठ जी कह रहे थे,” तुम सब बहुत अच्छा कर रहे हो। विमला को किसी बात की भनक नहीं लगनी चाहिए अगर उसे ज़रा भी शक हुआ तो वह 1 मिनट नहीं लगाएगी यहां से जाने के लिए।वैसे भी उसे किसी तरह उसका मकान बेचने पर तैयार कर लो और साथ ही साथ उसके गहने और जो कुछ पैसे उसके पास जमा है उसका भी पूरा हिसाब किताब अपने पास रख लो।
उसे यह जता देना कि तुम्हारे पास ही सब सुरक्षित है और इतनी उम्र में वह यह सब कहां देखेगी।मैं जानता हूं कि इसके पास अच्छी खासी रकम होगी..आखिर खर्चा ही क्या था इन दोनों का..कोई संतान तो थी नहीं जिसके ऊपर यह पैसे लुटाते”।
तभी जेठानी जी की भी आवाज़ आई वह अपने बेटे बहु को हिदायत देकर कह रही थी,” अपना व्यवहार इसी तरह संतुलित रखना।विमला के सामने मैंने भी हमेशा हंस-हंसकर उससे सारी उम्र अपने काम निकलवाए हैं।
हमेशा वह मेरे हाथों की कठपुतली ही बन कर रही और देखना आगे भी वह तुम्हारे हाथों की कठपुतली बन जाएगी।उसका अपना कहने को कौन है अब इसी घर में उसे रहना है और जब अपना मकान नहीं रहेगा और पैसे और गहनों का हिसाब भी हमारे पास होगा तो मजबूरी में उसे हमारे हाथों की कठपुतली बनकर रहना ही होगा।देखना, तुम्हारे सारे काम भी मुफ्त में हो जाया करेंगे”।
मां की बात सुनकर दोनों बेटा बहू भी ज़ोर -ज़ोर से हंसने लग पड़े। विमला को ऐसे लगा जैसे वह अभी चक्कर खाकर गिर जाएगी।किसी तरह वह अपने कमरे में आई और फिर देर तक पलंग पर बैठकर कमरे में रखा पानी पीकर अपने आप को थोड़ा उसने शांत किया।यह कैसा षडयंत्र रच रहे थे उसके जेठ जेठानी… पैसों के लिए कोई इतना गिर सकता है
उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था और वह तो हमेशा देने में ही विश्वास रखती आई थी।वह यह मकान और पैसा, ज़ेवर इन बच्चों को ही दे जाती ना.. क्या अपने साथ ले जाती वह।यही सब सोचते सोचते उसे अतीत की बातें भी याद आ रही थी जब उसकी जेठानी कैसे मीठे बोल बोल कर उससे सारे काम करवाती थी
और वह बेवकूफों की तरह सुबह से लेकर रात तक उनके बच्चों के और उनके कितने ही काम करती जाती.. बिना किसी शिकायत के..बिना चेहरे पर कोई शिकन लिए। कभी-कभी उसके पति कह भी देते,” इतना काम मत किया करो कुछ भाभी को भी करने दिया करो आखिर उनके बच्चे हैं..मां का भी तो कोई फ़र्ज़ होता है अपने बच्चों के लिए कुछ करने का” तो वह तुनक कर कहती ,
” क्यों, वे मेरे बच्चे नहीं है.. मैं उन पर अपनी ममता लुटाती हूं तो अपने बच्चे समझ कर ही” पर वह क्या जानती थी कि इन सब के पीछे जेठानी सिर्फ उसे एक कठपुतली ही समझती थी जिसे कि वह अपने हाथों में नचा रही थी और अब आने वाला शेष जीवन भी उसे उनके हाथों की कठपुतली बनकर रहना होगा।
“नहीं.. बस अब और नहीं” उसकी अंतरात्मा से एक आवाज़ आई,” क्यों बनू मैं किसी की कठपुतली सिर्फ इसीलिए कि मेरी कोई संतान नहीं।अरे, जिनकी संतान नहीं होती तो क्या वह दूसरों के गुलाम बन कर रह जाते हैं.. क्या उनके जीवन पर किसी और का हक हो जाता है..क्या वह मजबूर हो जाते हैं कि वह दूसरों के इशारों पर नाचे।
उसका खुद का घर है ..अपने पास पैसा है उसके और पति की कमाई हुई इज़्ज़त है और आस पड़ोस का साथ है तो वह क्यों बनेगी किसी के हाथों की कठपुतली” यही सब सोचते हुए उसने अपने आंसू पोंछे.. मन में एक निर्णय लिया और भोर होते ही अपना सामान बांध सबके उठने से पहले वह अपने घर के लिए निकल पड़ी और पीछे छोड़ गई एक चिट्ठी जिसमें उसने लिखा था,
” भैया, भाभी मैंने आपको हमेशा अपना समझ मान दिया और आपके बच्चों को अपने बच्चे समझा..पर शायद आप मुझे अपना नहीं मान पाए क्योंकि आप तो मुझे सिर्फ एक कठपुतली ही समझते रहे और कठपुतली कभी अपनी हो सकती है क्या… नहीं ना..इसीलिए अब मैं जा रही हूं अपने घर अपने हिसाब से अपना जीवन जीने जहां पर मैं अपनी इच्छा से कुछ कर पाऊंगी और किसी के हाथों के कठपुतली नहीं होऊंगी”।
कुछ देर बाद यह चिट्ठी पढ़कर जेठ जेठानी अपना सिर पीट रहे थे और विमला जी अपने घर पहुंच चुकी थी।आस पड़ोस के लोग उनको देखते ही उनसे मिलने आ गए..सब ने मिलकर उनको ज़रूरत की सारी चीज़ें लाकर दी। कोई चाय बना कर ले आया तो कोई दोपहर का खाना..
सबका प्यार पाकर विमला जी भावुक हो गईं थी।तभी उनके पड़ोसी गिरधारी काका ने अपने अनुभव से सब कुछ समझते हुए कहा,” बेटी, तुम अकेली नहीं हो..आस पड़ोस सब तुम्हारे अपने हैं।”
कुछ महीनों बाद विमला जी अपनी मर्ज़ी से अपना जीवन जीती नज़र आ रही थी।मकान का एक हिस्सा उन्होंने किराए पर दे दिया था और शाम को वह बच्चों को संगीत सिखाने लग पड़ी थी जिसमें वह माहिर थी और सुबह के समय आस पड़ोस की लड़कियां और कुछ औरतें उनसे पाक कला सीखने आ जाती जिसके वे उन्हें पैसे भी देती।
कमाई का एक साधन बन गया था और सबसे बड़ी बात थी वह आत्म सम्मान से जी रही थी।जेठ जी का दो तीन बार फोन आया पर उसने उठाया नहीं.. मनोज भी दोबारा उनके घर नहीं आया शायद वह सब जान चुके थे कि अब वह उनकी बातों में कभी नहीं आएगी।
अब वह खुलकर जी रही थी…मुस्कुराते हुए.. अपनों के साथ जो सही मायने में अपने थे।अब वह किसी के हाथों की कठपुतली नहीं थी। वह जीती जागती विमला थी… सिर्फ विमला।
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#अप्रकाशित
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गीतू महाजन,
नई दिल्ली।