विकल्प – अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’ : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : ऐसा नहीं था कि इस घर में पहले ऐसा पहाड़ न टूटा हो |रतन गया था |दस बरस पहले |बीती बात है, पर आज भी नई – सी  लगती है ,पुरानी नहीं पड़ी |अरे !पुरानी  पड़ेगी भी तो  कैसे ? सर्वजीत बाबू  की साँसें जो नहीं टूट रहीं , ऊपर से दर्द की पोटली विद्या भाभी जो अटकी पड़ी हैं |पर उनका क्या ! ना आये की ख़ुशी ना गए का गम |

              घर में बिछी  सन्नाटों की कनातें  देख, ऐसा लग रहा था मानो पूरे  घर के जैविक –अजैविक पक्षों के बीच खुद को शान्त रखने  की आम सहमति  हो चुकी है  | 

पेड़ की कोटरों  की तरफ डबडबायी  आँखें फेरते  हुए – नन्ही चिड़ियों के पर आ गए हैं मानो | उड़ना चाहते हैं अब वे सभी ,इसीलिए शोर मचा रखा है |

बोलते –बोलते, थोड़ा रुककर पत्नी की तरफ़ देखते हुए सरबजीत बाबू फिर कहने लगे   –  ‘ जाने दो …..अपना भाग्य , अपना करम लेके जाएगी | अब वो रुकने से रही, जिद्दी हो गयी है ….जाने दो …जाने दो !’ के साथ ही दोनों हथेलियों से  चेहरे को ढंककर सोफे पर बैठ गए  |

 विद्या भाभी कुछ बोलना चाहती थीं पर अपने मन पर सिल – बट्टे रख दिए | राखी के आगे एक ना  चली | डूबती साँसें लिए, दो जोड़ी कातर आँखे डबडबा आयीं थी | पर ना जाने किन सर्द भावों ने आँसुओं  को कोरों से बाहर ना आने दिया | निगोड़ी क्व़ार  के बादलों -सी आँखे ! यूँ ही नहीं हुई थीं | 

            क्या तर्क पेश कर रही थी राखी – ‘ पहले भी ऐसा हुआ है इस घर में ; रतन भैया को रोक पाए आप लोग ? अपनी – अपनी जिन्दगी होती है सबकी, कोई बेजान नही है; बेजान बने रहिये आप लोग, उमर बीत गयी ,जिन्दगी का सुख -स्वाद ना जाना ,अरे ! ऐसी जिन्दगी पर तो राखी के सपने भी ना उगना चाहें |’ 

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कॉउंसलिंग – ज्योति अप्रतिम

 ‘ चुपकर ! जुबान लड़ाती  है बूढ़े बाप से , लाज- शर्म है भी कि  नहीं ,न जाने किस पर ये तुर्रा है| अभी पाँवों  तले ज़मीन है ,तो आसमान नीला नज़र आता है …हुं… अरे sssss! तू क्या जानेगी इस उमर की इच्छाएं | माँ –बाप के लिए क्या ज़रूरी होता है, पर तुझे क्या पता , खैर ! सबका अपना -अपना भाग्य है | हुंह …..आस – पास बरसे, दिल्ली पड़ी तरसे ’  – बड़बड़ाते हुए   विद्या भाभी ,बेटी की ओर  मुँह करके  फुफकार उठीं |

               यूँ तो राखी को पढ़ाने में सर्वजीत बाबू ने कोई कोर – कसर नही छोड़ी थी | और अब ये अचानक घर छोड़कर बेंगलूरू  जाने का फैसला | 

‘ कौन सी नौकरी मिल रही है तुझे बेंगलूरु  में,  जो लखनऊ  काटने लगा ?’ विद्या भाभी के  प्रश्न का उत्तर उतनी  ही  तेजी से देते हुए  -‘ रोकड़ा छापने की….’ राखी का टका – सा जवाब सुन विद्या भाभी ने आँखे चौड़ी कर ली थीं |सर्वजीत बाबू  से एक ही रट  लगाये जातीं – ‘ बाँध दो इसे किसी खूंटे से वरना एक दिन कुल – खूंट ….’ | ‘ कोई  भलामानस मिले तो  सही!’ – सर्वजीत बाबू की बात बीच में ही छीन – ‘ अच्छा…SSSजी… तो इस जिभछिलनी के लिए  कोई  भलामानस खोज रहे हैं आप | देखिये जी ! दिल्ली फ़ोन करके बड़े भाई साहब को बोल दीजिये , खाते – पीते घर का कोई लड़का ..और हाँ ! कहे देती हूँ, अगर आप कान में बंसेटा डाले बैठे रहे तो , काली माई की कसम, मैं ही कुछ ऊंच- नीच कर डालूंगी |’

  सर्वजीत बाबू ने कातर स्वर में कहा ‘ अरे नही विद्या ! तुम तो भला ऐसा ना  कहो | बारी –बारी  सब तो छोड़ कर  जा रहे हैं …|’

               एक बेटा –बेटी सहित सुखी परिवार ,क्या नहीं था सर्वजीत बाबू  के पास ! बच्चों को शुरू से आत्मनिर्भर बनाने की पुरज़ोर कोशिश भी की थी |बेटा जब लायक हो गया तो जिंदगी के कैनवास को नया रंग देने ऑस्ट्रेलिया चला गया ,पांच वर्ष बाद ‘हम दो हमारे एक’  की तस्वीर घर भिजवा दी | लो पीटो माथा | बेटा न लौटा, तो सर्वजीत बाबू ने बेटी को ही बेटा  मान लिया | 

           और आज दस बरसों के बाद सर्वजीत बाबू का घर फिर उसी मोड़ पर …

             माँ – बाप अपनी दूसरी आँख खोकर अंधा नही बनना  चाहते थे |शाम हो रही थी , विद्या भाभी अकेले आँगन में बैठी, नज़र घोसले पर  टिकी हुई ,बाहर लॉन में राखी ,सर्वजीत बाबू के साथ बैठी थी |टेबल पर रखी चाय ठंढी हो रही थी |सर्वजीत बाबू शांत थे |मोबाइल की घंटी बजने के साथ ही राखी की सांसे तेज हो गयीं, राखी ने मोबाइल उठाना ही चाहा, तभी झटके से सर्वजीत बाबू ने मोबाइल उठा कान से लगा लिया … ‘ हेलो राखी ! मैं रितेश ..बेंगलुरू से , मेरा मोबाईल खो गया ..पी. सी. ओ. से फ़ोन कर रहा हूँ …..’

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सबक – नीरजा कृष्णा

                  सर्वजीत बाबू के माथे पर पसीने की बूंदे उभर आयीं , आँखे बंद कर लम्बी -लम्बी साँसें खीचने लगे| राखी खुद को अपमानित महसूस कर रही थी | मेज पर रखी पत्रिका के पन्नों को अनमने ढंग से पलटने लगी |

फ़ोन कट चुका  था, सर्वजीत बाबू शांत थे | शायद चुप ही एक विकल्प था |आज से दस वर्ष पूर्व वे चिल्ला – चिल्लाकर देख चुके थे| शोर का विकल्प उनके काम न आया था |सर्वजीत बाबू  उम्र के इस पड़ाव पर कौन –सा विकल्प चुनें ? चुपचाप ,अखबार उठा उसमें  छपी कविता को बुदबुदाते लगे  ………..

‘नन्हे पाँव, बड़े हुए 

जिद पर अड़े हुए ,

माँ –बाबा सोचते !

क्यों बड़े हुए ? 

उनकी दुआओं का हुआ  कैसा असर !

तकते सूनी राह , उड़ती पगधूल 

कहाँ हुई भूल ?

सवाल करते ख़ुद से ,दरवाजे पर खड़े हुए’ 

नन्हे पाँव बड़े हुए ………………….|

               वे दोनों हाथों से चेहरे और आँखों को मल रहे थे कि तभी राखी की धीमी सकुचाई आवाज़ … ‘ पापा !वो मैंने …’ सर्वजीत ने राखी की आवाज़ को बीच में ही विराम देते हुए –  ‘ ठीक कह रही हो बेटा ! तुम्हारी जिन्दगी , तुम्हारी है | जिस ढंग से चाहो जियो ,अगर तुम्हारी नज़र में जिन्दगी के यही मायने हैं तो ..अरे ! हम लोग पुरानी पीढ़ी के लोग ठहरे बेटा | जिन्दगी की जरूरतें वक्त के हिसाब से बदलती रहती हैं , पर एक बात याद रखना बेटी ,पंख सिर्फ़ आकाश की ऊँचाइयाँ छूने के लिए नहीं होते ,वे ज़मीन पर उतर कर बैठने के लिए भी होते हैं | राखी ने सर्वजीत बाबू के हाथों पर सिर टिकाते हुए.. ‘ पापा रितेश अच्छा लड़का है ,अभी तक लखनऊ में ही था |दो महीने हुए बेंगलुरू  …’

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‘ बस रहने दो बेटी ..! गलती तो हमारी ही है ,हमने तो तुमसे कभी जानने की कोशिश भी नहीं की, तुम लोग कब बड़े हो गए, हम लोग समझ ही नहीं पाए…’  दर्दभरी मुस्कान का सहारा लेकर  सर्वजीत बाबू बुदबुदाते गए | 

‘ पापा रितेश ने कहा है , मुझे सर्विस मिलते ही शादी औ..र …. वो आप लोगों को भी अपने पास बेंगलुरू बुला लेगा  ..’  बेटी की ऐसी बातें सुनकर सर्वजीत बाबू का दर्द हँस पड़ा, ‘ यही बात तो तेरे भाई ने भी कही थी बेटा  ..! फिर भी मुझे तुम लोगों पर  विश्वास है |’  

          राखी सर्वजीत बाबू की ख़ामोशी के नीचे दबती चली जा रही थी |उसने सोचा था , पापा चीखेंगे, चिल्लायेंगे ,घर से भगा देंगे …….इन्ही सब में उसे अपनी बातें कहने का सम्मानजनक अवसर  मिल जायेगा | पर यहाँ सब कुछ विपरीत| राखी क्या कहे ! समझ नही आ रहा था |

सर्वजीत बाबू लगातार अनमने से कहते जा रहे थे –‘ बेंगलुरू  पहुँचकर  पर फ़ोन कर देना ,वहाँ की तस्वीरें भेजना ..न जाने क्या -क्या ….और हाँ ! तू कहती थी ना ! कि पापा,  फेसबुक अकाउंट बना लीजिये  | उसे तू ही बना देना बेटा ! फिर तेरी ,तेरे भाई-भाभी और पोते की तस्वीरें देखा करूँगा उस पर|  बातें भी हो जायेंगी , टाइपिंग आती है मुझे ,एक एनड्राऐड भी ले लूँगा ,फिर वो वीडियो कॉलिंग …..|’ 

                  और तभी पत्नी को अपने बगल खड़ा देख , थोड़ा सकुचाते हुए – बोल पड़े … ‘ देखो राखी की माँ ! बिटिया सफ़र पर जा रही है , कुछ बना देना रास्ते के लिए, आजकल ट्रेनों में बहुत जहरखुरानी ……’ 

बात को बीच में काटते हुए ….. ‘ आप भी चले जाइये ना साथ में बेटी के  ,आप क्यों रुके हैं यहाँ ? अरे ! जवान बेटी का बाप होना सीखिए, बहुत मनबढ़ हो गयी है ,नात – रिश्तेदार क्या सोचेगें ?अकेले  बेटी को नौकरी खोजने भारत भ्रमण पर भेज दिया | अकेली रहती वहाँ, तो भी कोई डरने वाली बात नही , ऊपर से  उस अनजान छोकरे की बातें  करके कलेजा और तार –तार कर रही है |’ कहते हुए विद्या भाभी  वापस चली गयीं | 

‘ तेरे जाने का दुःख बोल रहा है बेटी ! तेरी माँ कभी ऐसा बोली है तुझसे ,पहली बार बेटी को घर से …..’ कहते -कहते सर्वजीत बाबू का गला रुंध गया |

                        राखी बच्चों – सा सब कुछ सुनती जा रही थी |उसके पास शब्द ही शेष नही रहे …रिजर्वेशन टिकट को हाथ में लिए उलट -पलट रही थी ,उसे अपने दोनों पांवों में पड़ी चप्पलें काफ़ी बड़ी नज़र आने लगीं थीं ,उसे ऐसा लग रहा था मानो वह भागने की कोशिश कर रही हो और पापा हर बार उसे गोद में उठाकर उछाल दे रहे हों |पापा के एक – एक शब्द राखी को वर्तमान से अतीत की तरफ खींच रहे थे |अब उसे महसूस होने लगा था कि माँ -पापा के इन्ही शब्दों में कहीं न कहीं उसका स्वर्णिम भविष्य  छुपा है ,फिर क्यों भटक रही है वह  ? अपनों के दामन में इतनी छाँव, फिर भी कहाँ -कहाँ छाँव तलाश रही है ?

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चेहरे पे चेहरा  – बेला पुनिवाला 

            राखी के विचारों का सैलाब उसकी आँखों को नम कर रहा था |मन की ज़मीन गीली हो रही थी, पत्थर पिघल रहा था …सर्वजीत बाबू उसके बचपने की बातों के बीच -बीच में, जरूरी हिदायतें भी देते जा रहे थे –‘पानी रख लेना पर्याप्त ,और हाँ ..रास्ते में मत उतरना, किसी प्लेटफ़ॉर्म पर, पत्रिका लेने |बचपन में मेरे पीछे भाग कर चली  आती थी, माँ का हाथ छुड़ाकर…हहssहाहा  …कोमिक्स लेने , कोमिक्स खूब पढ़ती थी | जब कभी माँ से डांट खा जाती तो भागकर मेरे पास आ जाती ,और ढेर सारी कहानियाँ बना –बना के सुनाने लगती थी तू |

       ‘ अरे सुनती हो ! वो जियालाल स्वीट्स से राखी के  जन्मदिन के लिए केक बोला था ,जरा फ़ोन करके उसे मनाकर देना ! ’ 

          विद्या भाभी तमककर बोलीं –‘ आने दो मना क्यूँ करूँ भला ?  हम और आप ही केक काट कर खा जायेंगे , मुझे केक पसंद है ….रहने दीजिये,जब तक मैं हूँ, आप हैं,  क्या ज़रूरत किसी की  ! जिसको जहाँ जाना हो जाये | वैसे भी बेटियों को घर में बैठा कर कौन रख पाया है भला ? ,जाना तो एक दिन था ही | कलेजा मजबूत कर रखा है मैंने अपना , अपने विदाई वाले दिन से ही | आप अपनी सोचो|

          विद्या भाभी आसमान की तरफ आँखें उठाये बोले जा रही थीं –‘ हमारा पूरा घर फूट –फूट कर रोया ,मैं तो महीनों रोती रही थी  | पर सारा भरम उसी दिन टूट गया, जब शादी के बाद पहली बार मायके गयी |तीन- तीन भाइयों के बीच इकलौती बहन थी |रात का खाना खाने के बाद जब सभी  बैठे बातें कर रहे थे , तभी एक मासूम पर  ज़िम्मेदार आवाज  ‘ बुआ कहाँ सोयेगी मम्मा ? उनके कमरे में तो पूजाघर शिफ्ट कर दिया गया है ! ’ 

 ने सभी को चौंका दिया | 

       आठ साल के भतीजे की चिंता और मेरी आँखों से अनायास बह निकले आँसुओं ने कितना कुछ सिखा दिया था |’ माहौल को हल्का करने के लिए मैं बस इतना बोल पायी थी  -‘अपने राजा बेटे के साथ, उसके कमरे में |’ सुनकर भतीजे के नन्हे हाथों ने मुझे कसकर जकड़ लिया ना समाने  वाली  ख़ुशी पाकर  वह उछल पड़ा था |

           थोड़ा रुककर लम्बी साँस लेते हुए – ‘ औरss…  आते समय अम्मा की बातें’ – ‘ पुराने सलवार – सूट ,गाने की डायरी,अलबम ,और सहेलियों के बीच सीख -सीख कर बनाये गए, कुछ घरेलू साज -सज्जा के सामान, बड़े बॉक्स से निकालते हुए – ‘लेती जाना अपने सारे सामान ! बेकार में पड़े -पड़े खराब हो जायेंगे यहाँ  |’

‘ कोई तो एक याद रख लो अम्मा !’ , मेरे  भारी मन की खीझ और पीड़ा एक साथ बोल पड़ी थी | बाद में जी भर रोये दोनों माँ-बेटी गले मिलकर ,अंतिम बार | सारा दर्द बह गया था  |और आज…… दर्द भी नहीं रहा और माँ भी नही |

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सु कर्म – कंचन श्रीवास्तव

        उसी दिन से आज तक बस इसी आँगन की होके रह गयी |एक- एक कर अम्मा ,बाबू ,बाबा ,दादी सब चले गए | धीरे -धीरे तुम लोग बड़े होते गए जिम्मेदारियों के बोझ, रिश्तों को सरकाकर खुद कंधे बैठते गए |  

            राखी बच्चों – सा चुपचाप माँ –बाप  के मन को पढ़ रही थी  | उनको सुन रही थी | उनकी पीड़ा को महसूस रही थी | दस बरस पहले की स्याह रात एक बार फिर , उसकी वजह से आये |  वह नहीं चाहती थी | भैया के जाने के बाद कैसे बिसूर- बिसूर कर रोये थे सभी|  माँ -बाप को चुप कराने के लिए उसे भी बड़ा बनना पड़ा था उस दिन |भैया से सम्बंधित धुंध ख़बरों पर पापा सभी से कहते –‘ क्या हुआ रतन चला गया तो | मेरी राखी बिटिया तो है ! क्या घर ,क्या बाहर सब काम देख लेती है |’ सोंचते हुए राखी की ऑंखें समंदरी हो रही थीं |

           माँ – बाप की डांट ,उनका गुस्सा , उनका प्यार सभी कुछ अपने उम्र और चिंतन के बटुए में भर लेना चाहती थी | यही उसकी सबसे बड़ी पूँजी थी , जिसे खोकर वह स्वछन्द तो हो सकती थी पर ………. !

              रात की गहराई बढ़ती जा रही थी | राखी के हाथों में पसीने से सने कागज़ के टुकड़े टूट -टूट कर गिरते जा रहे थे ,दूर पटरियों पर रेल के गुजरने की आवाज़ मंद पड़ती जा रही थी | 

             रिश्तों की झीनी  होती चादरों से , छन रही संवेदनाओं की साँसों के बीच, जिन्दगी चुपचाप अपने मायने तलाश रही थी |

अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’ 

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