वृंदा को नए शहर के इस मुहल्ले में आए दो महीने होने को आए, पंरतु अभी तक किसी से भी उसकी ठीक से
जान पहचान नहीं हुई थी। कुछ समय तो वो भी व्यस्त रही, बच्चों की स्कूल कालिज की एडमिशन और घर सैट करने
में। पति की बैंक की नौकरी के कारण हर तीन चार साल बाद उन्की ट्रासंफर हो ही जाती थी। उन्हें तो पहले दिन से
ही काम से फ़ुर्सत नहीं मिलती थी, बल्कि पहले से भी ज्यादा व्यस्त हो जाते। नई ब्रांच में जाकर काम भी तो
समझना होता है। वृदां की शादी के बाद यह चौथी या पाँचवी बार शहर बदलना हुआ। बड़ी बेटी मान्या कालिज पहुँच
गई और बेटा अंबर बारहंवी में। दोनों बच्चे पढ़ाई में बहुत लायक थे, इसलिए एडमिशन की ज्यादा दिक़्क़त नहीं आती
थी, और घर मिलने में भी कोई मुशकिल नहीं आई क्योंकि जो बैंक आफिसर पहले जिस घर में रहते थे, अक्सर वही
घर उन्हें मिल जाता था। हाँ, एक बार उन्हें पहले वाले मैनेजर का घर पंसद नहीं आया था तो उन्हें और घर ढ़ूढना
पड़ा। वृंदा को इन सब की आदत पड़ चुकी थी।शादी से पहले वो नौकरी करती थी, लेकिन बाद में सब छूट गया। उसे
पढ़ाने का बहुत शौक़ था, तो कई बार उसने बीच बीच में प्राईवेट स्कूलों में मौका मिला तो पढ़ाया भी। फरी समय में
वो तीन चार टयूशन ले लेती थी, मगर अभी यहाँ तो उसकी कोई जान पहचान ही नहीं थी। उसके पति कबीर ने अपने
तीन चार कुलीगस को टयूशन के बारे में बता दिया था।
दो महीने में सब सैट हो गया, तो अब वृंदा ने सोचा कि आसपास कुछ जान पहचान बनाई जाए, ताकि
खाली समय अच्छा निकले। आज के जमाने में सब व्यस्त है, हर कोई जैसे बस भाग रहा है। शाम को वो पास वाले
पार्क में कई बार सैर करने जाने लगी थी। वहाँ हर उम्र के लोग तो होते थे,पर अंधिकाश मोबाईल पर ही लगे रहते।
कुछ औरतें टोलियों में भी बैठी नजर आती, मगर वृंदा को अपने मुताबिक अभी कोई नहीं मिली । ऐसे ही एक शाम
या यूँ कहो कि रात सी होने वाली थी, वो सैर करने के बाद बैंच पर बैठी थी कि मोबाईल बज उठा। मगर ये उसके
मोबाईल की आवाज़ नहीं थी, देखा तो नीचे घास पर पड़ा मोबाईल बज रहा था। उसने उठा तो लिया, मगर सोच में
पड़ गई कि बात करे या न करे। मोबाईल बज कर बंद हो गया। समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे। शाम गहरा
गई थी तो लोग कुछ कम हो गए थे। काफी मंहगा मोबाईल लग रहा था। उसने वापिस काल करने की सोची तो देखा
कि मोबाईल तो लाक था, बिना पासवर्ड के खुल नहीं सकता था। किससे पूछे, पुलिस को दे, यही सोचते सोचते वो घर
आ गई। घर में भी बताया, तो कबीर ने कहा कि ,देखते है, शायद कोई काल करे, नहीं तो कल थाने में जमा करवा
देगें।
जब सभी खाना खा रहे थे तो वही मोबाईल बज उठा। अब तो वृंदा ने लपक कर उठाया और हैलो बोल
दिया। उधर से कोई औरत बोल रही थी, जिसका फ़ोन न जाने कैसे पार्क में गिर गया था। थोड़ी दूरी पर ही उन्का घर
था। वृंदा से इजाज़त लेकर वो अपने पति के साथ उसके घर आ गई। रात हो चुकी थी तो वो धन्यवाद कहकर जल्दी
ही चले गए, लेकिन दस मिंट में ही उनकी अच्छी जान पहचान हो चुकी थी। अगले दिन उन्का पार्क में फिर मिलना
हुआ। उसका नाम नीति था और उम्र में भी लगभग वृंदा जितनी ही थी। जल्दी ही वो उन्की किटी मैंबर बन गई।
किटी मैंबर बनना जान पहचान का बहुत बढ़िया ज़रिया है। वृंदा को टयूशन का काम भी मिल गया, जिदंगी अपनी
पटड़ी पर आ चुकी थी। वृंदा काफी प्रतिभावान थी, उसे आसपास के क्रियाकलापों में रूचि रहती थी। कह सकते है कि
निंदा चुग़लियों से दूर सभी का भला चाहने वाली, मददगार नेक औरत थी। जल्दी ही वो काफी लोगों से घुलमिल गई।
एक दिन वो सुबह पास वाले मंदिर जा रही थी तो उसने देखा कि एक घर के बाहर लान में एक लड़का पौधों को पानी
दे रहा था। देखने में लड़का या आदमी कुछ अजीब सा लग रहा था, यानि कि उसमें कुछ तो अलग था।
वैसे वो पागल भी नहीं लग रहा था, लेकिन नार्मल तो नहीं था। सोचते सोचते वृंदा आगे बढ़ गई। दो तीन
बार वो फिर उसे उसी लान में ही दिखा। जिज्ञासा तो थी, उसके बारे में जानने की, लेकिन किससे पूछे। अगली किट्टी
कृष्णा के घर पर थी। उम्र में वो सब किटी मैंबर से काफी बड़ी थी, बाकी सभी तो लगभग पैतांलीस से कम ही रही
होगी, सिरफ कृष्णा ही साठ पार थी, मगर अपने हंसमुख स्वभाव के कारण वो सबमें प्रिय थी। लंच के समय जब
एक दो मैंबर कृष्णा की मदद करने को उठी तो वो भी साथ हो ली ताकि सामान वगैरह लाने में मदद हो जाए। जब
वो किचन से ट्रै ला रही थी, तो उसे सामने वाले कमरे में परदे की ओट से वही लड़का दिखा। तभी उसे ध्यान आया
कि उसने इसे ही तो बाहर लान में दो तीन बार देखा है। पहले तो उसने सोचा कि इसके बारे में पूछूँ , पर कुछ
सोचकर चुप रह गई। दो चार दिन के बाद उसकी नीति से मुलाक़ात हुई तो उसने उस लड़के के बारे में पूछा। वैसे तो
उसकी कृष्णा से भी अच्छी दोस्ती थी, इतना तो वो जान गई थी कि वो उसके ही घर का कोई सदस्य है , लेकिन
उससे पूछना उसे उचित नहीं लगा। अब जब नीति से बात चली तो उसने बताया कि वो कृष्णा का सबसे छोटा बेटा है,
दो बड़े बेटे तो बिल्कुल ठीक है, अपनी बढ़िया फ़ैक्टरी चला रहे है, परंतु ये छोटा रोमी न जाने क्यूँ ऐसा ही पैदा हुआ।
क्योंकि नीति उस मुहल्ले में शुरू से ही रहती थी, तो उसे सब पता था। उसने आगे बताया कि जब
वो पैदा हुआ तो वज़न बड़ा कम था। इलाज चलता रहा, धीरे धीरे डाक्टरों ने कहा कि उसके दिमाग़ का विकास बहुत
धीरे हो रहा है। शरीर तो बढ़ता गया मगर दिमाग़ चार पाँच साल के बच्चे की उम्र जितना ही विकसित हुआ। इलाज
पर बहुत पैसा लगा लेकिन भगवान की मर्ज़ी के आगे किसी का वश नहीं चलता। सब्र करने के इलावा कोई चारा नहीं
था। देखने में उसकी उम्र पद्रहं सोलहां साल ही लगती है, लेकिन पैतांलीस साल का है। ध्यान से देखो तो चेहरे से पता
चलता है। दाढ़ी मूँछ भी है पर ग्रोथ बहुत कम है। सभी को उससे बहुत सहानुभूति है, पर कुछ कर नहीं सकते। घर
वालों ने पढ़ाने की कोशिश की, घर पर भी ट्यूटर लगाया लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। वो नहीं पढ़ पाया। बाद में
पता चला कि उसकी नजर भी कमज़ोर है, सुनता भी कम है, और ठीक से बोल भी नहीं पाता। उफ़्फ़ , कितनी
बेइन्साफी की उसके साथ क़ुदरत ने। वृंदा का मन बहुत खराब सा हो गया यह सब सुनकर। उदास मन से उसने नीति
से विदा ली। वहाँ रहने वालों को तो ये सब पता था, लेकिन वृंदा ने यह सब पहली बार जाना था। वैसे तो दुनिया में
न जाने कैसी कैसी क़ुदरत की माया है लेकिन जो हम सामने देखते है, इंसानियत के नाते उसे हज़म कर पाना इतना
आसान नहीं होता, और फिर एक औरत का मन तो वैसे भी करूणापूर्ण बनाया है ईशवर ने।
अब वृंदा की नीति के इलावा बाकी किट्टी मैंबरों से भी अच्छी दोस्ती हो गई थी, ख़ास तौर पर
कृष्णा से। जब दिल मिल जाएं तो उम्र कोई मायने नहीं रखती। परिवारिक बातें भी होने लगी। कृष्णा वैसे तो बहुत
हँसमुख थी, मगर बेटे रोमी की चिंता उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही थी जो कि स्वाभाविक ही था। उसके दोनों बड़े
बेटे, बहुएँ , बच्चे सब इकटठ्ठे मिलजुल कर बड़े प्यार से रहते थे। आजकल के जमाने में इस प्रकार के संयुक्त
परिवार कम ही देखने को मिलते है।कृष्णा हमेशा ही अपने बच्चों की बहुत प्रशंसा करती रहती थी। कहती थी कि दोनों
बेटे बहुएँ हमारा और ख़ास तौर पर रोमी का बहुत ध्यान रखते है। वृंदा ने कहा कि आजकल कई ऐसी संस्थाएं भी है,
जो रोमी जैसे स्पैशल बच्चोका ध्यान रखती है, और उन्हें उनकी क्षमता मुताबिक काम करना भी सिखाती है, जैसे
कि कुर्सिया बुनना, पेंट करना या ऐसे ही कुछ हाथ के काम। कृष्णा ने उत्तर दिया कि उन्के पास प्रभु का दिया सब
कुछ है, अपने बेटे का ऐसे काम करना उन्हें गवारा नहीं । चूकिं दोनों में अच्छी दोस्ती थी, इसलिए वृंदा ने कहा कि
बात पैसों की नहीं, बाहर निकलने से, औरों से मिलने जुलने से, काम करने से आत्मविश्वास पैदा होता है।
एेसे ही एक दिन बातों ही बातों में कृष्णा ने बताया कि उसके पति बहुत ही दूरदर्शी और समझदार
है। कल को बच्चों में कोई लड़ाई झगड़ा न हो इसलिए उन्होनें वसीयत तैयार करवा कर रजिस्टरड भी करवाई हुई है।
बस यूँ समझो कि हमारे बाद सब कुछ दोनों भाईयों का आधा आधा है।वैसे तो वसीयत एक फारमेलिटी है राम
लक्ष्मण जैसे है मेरे दोनों बेटे। ' और जो तीसरा भरत है, उसका क्या, उसके बारे में नहीं सोचा' वृंदा ने कहा। अरे
उसका क्या सोचना, दोनों भाई, भतीजे जान छिड़कते है उस पर। उसकी हर ज़रूरत का ध्यान रखते हैं। तभी तो वो
इतना ज़िद्दी हो गया है। भाभियों से अपने लिए अलग अलग तरह का नाश्ता बनवाता है। जब सब परौठें खा रहे होगे
तो उसे इडली खानी होती है। ऐन मौक़े पर मनचाही सब्ज़ी की फ़रमाइश कर देगा। खाना भले ही लेट हो जाए मगर
उस हीरो की फरमाईश जरूर पूरी होती है। परंतु वृंदा के दिल में कुछ खटक रहा था, उसने हिम्मत करके कह ही दिया
कि जो भी हो, रोमी के लिए कुछ अलग से इंतज़ाम करना जरूरी है। माँ बाप के सामने और पीछे की बात और होती
है। तभी तो कहते है दूध के फटते और बुद्धि के भ्रष्ट होते देर नहीं लगती।
उस समय तो कृष्णा चुप रही लेकिन वृंदा ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया। उसने सोचा कि बहुएँ
खाना तो खिला देती है लेकिन बाकी सारा ध्यान तो वो उसका पति या फिर नौकर बिरजू रखता है। चूकिं कृष्णा के
रिटायर पति की भी अच्छी पैंशन आती थी और मकान भी उन्होनें नौकरी में ही बनवा लिया था। दोनों बेटों ने पढाई
तो ठीक ठाक की थी, मगर फ़ैक्टरी का काम अच्छा चल निकला था। लोन लेना था तो फ़ैक्टरी दोनों बेटों के नाम थी
और मकान कृष्णा के पति अनिल के नाम पर था। एक दिन मौका देखकर कृष्णा ने पति से वृंदा वाली बात कही। उस
समय तो उन्होनें हंस कर टाल दिया, पर मन ही मन विचार उन्हें भी करना पड़ा। वो अपनी पत्नी से उम्र में दस साल
बड़े भी थे। हम हमेशा वही सोचते है, जो हम चाहते है। मगर दूसरा पहलू भी देखना जरूरी है। एक बार तो बात खत्म
हो गई थी, पंरतु अब अनिल विचार में जरूर पड़ गए थे।समय की गति कहाँ रूकती है। वृंदा के पति की चार साल
बाद ट्रासंफर हो गई तो उसे जाना ही थी। परंतु वो कृष्णा के टच में रही। वृंदा के जाने के कुछ महीनों बाद ही अनिल
का हार्ट अटैक से निधन हो गया। रात को सोए तो सुबह उठे ही नहीं। आदमी बीमार हो तो कुछ बात करे, बताए
लेकिन वो तो जाते समय किसी को कुछ न बता सके। दुनिया की रीत है, सब रस्में हो गई, हर कोई अपने काम में
व्यसत हो गया। घर का माहौल धीरे धीरे बदलने लगा। कृष्णा की सेहत भी ठीक नहीं रहती थी।
रोमी को अब कोई नहीं पूछता था, कुछ खाया , खाया न खाया तो न सही। सब से बड़ी समस्या
उसके नहाने की थी। पहले बिरजू ही साथ लगकर उसे नहलाता था, लेकिन अब उसे फ़ुर्सत ही नहीं मिलती थी, बेचारा
चाह कर भी कुछ न कर पाता। और लोगों के काम ही खत्म नहीं होते थे। बिरजू को तनख़्वाह अनिल बाबू दिया करते
थे, वो सारा दिन वहीं पर रहता था, कई बार फ़ैक्टरी भी जाना पड़ता था, उसका अपना परिवार गाँव में था। कृष्णा को
फ़ैमिली पेंशन तो लग गई थी, मगर उसे कुछ नहीं पता कि कितनी है। अनिल के निधन के बाद जहाँ बेटों ने कहा
उसने साईन कर दिए। आनलाइन और ए टीएम के जमाने में बार बार साईनों की ज़रूरत भी कहाँ पड़ती है। कृष्णा
और रोमी की दवाइयों का खर्च भी था। यूँ समझो कि माँ बेटा दोनों मुहताज हो गए। कृष्णा भी दंसवी पास थी, लेकिन
उसने कभी बैंक वगैरह के कामों की और ध्यान नहीं दिया। सब काम पति अनिल ही कर देते थे। कृष्णा के दोनों बेटों
के आगे दो दो बच्चे थे, बड़े बेटे के एक बेटा बेटी और छोटे के दो बेटे ही थे। सब कालिज पढ़ने वाली उम्र मे थे।
पहले पहल तो वो दादी के पास आते जाते रहते, रोमी के साथ थोड़ा बहुत खेल लेते, कुछ बाहर से खाने को ला देते,
वो खुश हो जाता। लेकिन अब सब खत्म हो गया। पोती कभी कभार दादी से मिलने आ जाती।
कृष्णा समझ नहीं पा रही थी कि आख़िर ये सब क्या हो रहा है। कोई मुहँ से तो कुछ न कहता मगर जिस
तरह रूखाई से बात करते, दोबारा कृष्णा की कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं होती थी।छ: महीनों में हालात ये हो गए
थे कि माँ बेटे को खाने तो मिल रहा था लेकिन समय का कुछ ठिकाना नहीं। बेचारा बिराजू जब फरी होता तो दे
देता। सुबह की चाय नौ बजे तो शाम की छ: सात बजे। कई बार चाय बनी पड़ी है, किसी और ने आवाज़ लगा दी तो
ठंडी भी हो गई। आजकल कृष्णा को अपने मायके वालों की बहुत याद आ रही थी, लेकिन इस उम्र में मायके भी कैसे।
उससे छोटे एक भाई और बहन और थे लेकिन सबकी अपनी गृहस्थी और उम्र भी हो ली। वैसे तीनों में बहुत प्यार था,
लेकिन समय के साथ सब अपने अपने परिवार में व्यसत थे। पहले उसका भाई कई बार उसे अपने पास बुलाता था,
लेकिन रोमी की वजह से वो बहुत कम जा पाती थी। जाती भी तो रोमी को साथ ले जाती । अनिल तो कम ही जाते
थे, गए भी तो एक दो दिन में ही वापिस आ जाते।
कृष्णा का अपना दो मंजिला अच्छा मकान था। नीचे दो बेडरूम , नौकर बिरजू का कमरा और
रसोई, दो बाथरूम , बरामदा और लान थे, जबकि उपर चार कमरे और रसोई के इलावा अटैचड बाथरूम थे। कुछ दिन
पहले नीचे वाले एक बेडरूम को बहाने से खाली करवा कर रोमी को कृष्णा के साथ यह कह कर शिफ़्ट कर दिया कि
अकेले न रहे। जबकि रोमी आराम से अकेले सो जाता था, अब उसे दूसरे कमरे में नींद ही नहीं आती थी, लेकिन
सुनता कौन।नीचे वाले कमरे को गैस्ट रूम बना दिया, जबकि पहले किसी के आने पर उसे उपर ठहराया जाता था।
उस दिन कृष्णा बहुत उदास थी। वो अनिल की अल्मारी खोलकर देखने लगी। ऐसा कई बार हो चुका
था। लगभग अनिल का सारा सामान जरूरमंदों में बँट चुका था। कुछ कपड़े , काग़ज़, फाईलें पड़ी थी। एक दो बार बेटों
ने बैंक पासबुक मांगी थी, परतुं कृष्णा दे नहीं पाई। सिरफ अनिल की पेंशन वाली पासबुक ही उसने दी थी।तब उसके
मन में कुछ नहीं था, लेकिन अब बच्चों के बदले व्यवहार से उसे बहुत आघात लगा। उसने कई बार पूछा कि उसे
कितनी पेंशन लगी है, उसे ए. टी. एम से पैसे निकालना सिखा दो, लेकिन वो सुनते कहां थे। छोड़ो मां, तुम कहाँ
बैंको के चक्कर काटोगी, जो चाहिए बता दिया करो। कहने और करने में बहुत अन्तर होता है। दो दो दिन दवाईयां
खत्म रहती। एक दो हज़ार रूपए हर महीने उसके हाथ पर रख देते। अाज के समय में इतने कम पैसों से क्या होता
है। जबकि उसे पक्का पता तो नहीं था, लेकिन उसे विशवास था कि उसकी फ़ैमिली पेंशन पचीस तीस हज़ार तो होनी
ही चाहिए। कई बार अनिल जब कुछ मरने वरने की बात करते तो वो मुंह पर हाथ रखते हुए कहती, ऐसी बातें न
करो, मरे आपके दुश्मन। रोमी का तो विशेष ध्यान रखना पड़ता था। जब अनिल जिंदा थे तो हर तीन महीने बाद
उसके चैकअप के लिए डाक्टर घर पर आता, टैस्ट करवाए जाते, ताकि वो बीमार न पड़े। उसकी इम्यूनिटी बहुत कम
थी। जब अनिल थे तो सबके जन्मदिन पर पूरा परिवार बाहर जाकर खाना खाते, कई बार कहीं दूर एक दो दिन के
लिए घूम भी आते। कृष्णा कई बार मना भी करती लेकिन बच्चे मनुहार करके भी ले जाते।गिफ़्ट भी दिए जाते। मगर
अब कुछ पता नहीं क्या हो रहा है। पहले पहल तो उसे लगा कि पिता की मौत का शौक़ मना रहे है, लेकिन ऐसा कुछ
नहीं था। सब अपने अपने तरीके से बाहर जा कर खुशिंया मना रहे थे। सिरफ वो मां बेटा ही घर से बाहर नहीं निकले।
अनिल की अल्मारी खोलकर वो सफाई करने लगी और सोचा कि क्यूँ ना अखबार बदल दूँ। ऐसा करते
हुए उसे अखबारों के नीचे से एक फ़ाईल मिली। उसने अच्छे से देखा तो 20-25 लाख की एफ़डीज थी,जो कि दोनों के
नाम से थी, और साथ में ही वसीयत के काग़ज़ । खोल कर देखा तो वो कुछ समय पहले की हुई वसीयत थी। ओह,
तो इसका मतलब कि अनिल जी ने अपनी वसीयत बदल दी। पहली वसीयत में तो उनके बाद घर दोनों बेटों का था।
अनिल तो चाहते थे कि वो घर कृष्णा के नाम पर करें मगर उसने मना कर दिया था। परतुं इस बदली हुई वसीयत
में सारा घर कृष्णा के नाम पर था। इसका मतलब तो पुरानी वसीयत ख़ारिज मानी जाएगी।अनिल जी के देहांत को
साल होने वाला था।गिने चुने लोगों की उपस्थिती में पहली बरसी हुई। कृष्णा के मायके वाले भी आए। भाई ने साथ
चलने को कहा तो वो तैयार हो गई। रिवाज के मुताबिक भी ऐसे शोक के बाद एक बार मायके जाने का चलन है।
रोमी को भी साथ ही जाना था, वैसे भी किसी ने मना ही नहीं किया।जाते जाते भाई के सामने कृष्णा ने यह कर
बेटे से अपना एटीएम मागं लिया कि उसे पैसों की ज़रूरत पड़ेगी । मामा के सामने मना करने का तो सवाल ही नहीं
था।
मायके से पाँच सात लोग आए थे, दोनों माँ बेटा उनके साथ गाड़ी में बैठकर चल दिए। कृष्णा की उदासी को
सबने स्वाभाविक ही लिया। किसी को अंदेशा भी नहीं था कि परिस्थितियाँ कैसी प्रतिकूल हो चुकी हैं। रात को खाने के
बाद सब सो गए तो कृष्णा ने रोते रोते भाई को सारी बात बताई। उम्र में वो उससे काफी छोटा था, पर भाई तो भाई
होता है। संयोग से बहन भी उसी शहर में रहती थी। अगले दिन वो मिलने आई तो उसे भी सब बताया गया। कृष्णा
के दोनों भतीजे तो सब सुनकर आग बबूला हो रहे थे। परतुं समय शांति से काम लेने का था। फिर वैसे भी माँ तो
आख़िर माँ ही होती है। जैसे भी हो , दोनों बेटे उसकी आँखों के तारे थे।वो तो चाहती थी कि सब को अपना अपना हक
मिले।तभी तो कहते है, पूत भले ही कुपूत निकले मगर माता कभी कुमाता नहीं होती। दस दिन कृष्णा वहाँ रही, उसने
भतीजों की मदद से एटीएम चलाना और कुछ बैंक जानकारियाँ ले ली। अब उसके पास पैसे थे। वापिस आकर उसने
वक़ील को बुलाया और वसीयत दिखाई। बेटों की हैरानी की सीमा न रही, वो पुरानी वसीयत लिए बैठे थे, जिसकी अब
कोई वैल्यू नहीं थी।
पैसों के आते ही कृष्णा में न जाने कहां से ताकत और विशवास भी आ गए। कुछ समय बाद ही
उसने दोनों बेटों की रसोई उपर करवा दी। बिरजू को नीचे रख लिया,अब वो उसकी सैलरी देने में सक्षम थी। पहले उपर
के लिए सीढ़ियाँ अंदर से थी, उसने बाहर से ही करवा दी। अब सब ठीक हो गया। रोमी का भविष्य सुरक्षित करने के
लिए अब वसीयत करने की उसे ज़रूरत थी। सच ही कहते है कि जैसे मृत्यु एक अटल सत्य है, उसी प्रकार इस
संसार में धन सब कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ है, मगर इमानदारी से अर्जित किया गया हो। और वसीयत की
कीमत भी वो जान चुकी थी। पति की दूरदर्शिता के आगे उसका सर झुक गया। आज उसे रह रह कर वृंदा की भी
याद आ रही थी तो उसने मोबाईल पर उसका नं लगाया, उसका धन्यवाद करने के लिए।
विमला गुगलानी