“माई अब इत्ते में गुजर नहीं होती। आप कोई और देख लो काम करने के लिए।”रमेशी ने जब ऐसा बोला तो अम्मा को विश्वास न हुआ।
छुटपन से अंम्मा ही पाले थी इस रमेशी को।उसकी माई तो जनम देते बखत ही परलोक जा बसी थी।बस गनीमत इत्ती रही कि उसके बाऊ ने दूसरा ब्याह न रचाया।
जब इसी रमेशी का ब्याह हुआ और तर ऊपर तीन लड़़कियाँ हुई तो अंम्मा ने रमेशी से कसम उतरवाई कि लड़के की आस में और परिवार न बढ़ाये।इन्हीं को पढ़ा-लिखा लायक बनाये।उसी समय अंम्मा की ओर से एक वचन भी आया।
“इन लड़़कियन के शादी-ब्याह का आधा खर्चे वे उठायेगी।”
उस वचन को निभाते अम्मा ने दो लड़कियों को ब्याह दिया।
“महँगाई बढ़ी हैं।तेरी गुजर न हो रही इत्ते में ,ये तुने आज बोला।चल,दुई-तीन सौ बढ़ाई देत हैं।”
“न माई! ये दुई-तीन सौ में बात न बनई।”
अंम्मा भी डटी थी,”तुझे छोटे से पाले है और तु हमहीं से भेद छिपा रहा हैं।तनिक हमे भी तो सुभीता हो।”
“माई ऊ सामने वाले सेठ के यहाँ हम दोनों को नौकरी मिल रही हैं।पैसे भी खुल कर दे रहे हैं।रहना-खाना सब का इंतजाम।”
“हाँ,तब तो जा भइया!!हम गरीबन के यहाँ अब तेरा गुजर न हो पायेगा।”
रमेशी चला गया।उसके बाद अम्मा ने काम के लिए जिसको भी रखा,केवल काम तक ही।कभी भावनाएँ नहीं मिलायी।
उस सवेरे जब अम्मा सोया-मेथी बिचारने बैठी।
“लाओ माई,हम करई देत हैं।”सामने रमेशी की घरवाली खड़ी थी।
“रहने दे,अब मेरी आदत न खराब कर।आज इधर कैसे?”अम्मा ने उसका हाथ हटाते कहा।
तभी उनकी नजर चौखट पर खड़े रमेशी पर गयी।वे थोड़ी देर ठहरी रही फिर बोली,”काहे चौखट टिक गये!!अंम्मा आज भी किसी दवारे आये को दवार से नहीं लौटाती।
अम्मा की आवाज का सहारा पा रमेशी लपकता आ अम्मा के पैरो में लोट गया।
“माई,माफ कर दो हमे।हमारी तो बुद्धि फिरी रहे।”
“तु वहाँ खुश हैं! फिर ये सब करम क्यों?”
“वही तो रोना रहे माई।इत्ते साल की सेवा के बाद अब सेठानी को हमारा काम नहीं भा रहा।गाँव से दुई आदमीयन के बुला ली।लाख गुहार लगाये कि दुई-तीन महीना सबर कर लो।बिटिया के ब्याह सर पर है पर न माने।”
“कब तय किये ब्याह?”न चाहते भी अम्मा पुछ बैठी।
“दुई महीना के ऊपर हुई गये।”रमेशी शर्मिंदा सा बोला।
अम्मा कुछ सोची-बिचारी।हाथ का काम छोड़ अंदर जा एक लिफाफा ला रमेशी के हाथ धर दिया।
“ब्याह का आधा खर्चो देने का वचन दिये रहे ।ये बिटिया के ब्याह के लिए। जाते दरवाजा उड़का देना।
अंजू निगम
नई दिल्ली