उपेक्षा का दंश – वीणा सिंह : Short Moral Stories in Hindi

 Short Moral Stories in Hindi : बचपन से उपेक्षा का दंश झेलती मैं विधि आज बसेरा एनजीओ की डायरेक्टर हूं.. पर आज भी अक्सर स्मृतियों के समुंदर में न चाहते हुए भी गोते लगा हीं लेती हूं..

            तबियत ठीक नहीं रहने के कारण आज पहले हीं ऑफिस से आ गई.. सोचा थोड़ा रेस्ट करूंगी..

            मेरी कुक सेविका दोस्त समय समय पर सभी भूमिकाओं में ढल जाने वाली चौबीस घंटे परछाई की तरह मेरे साथ रहने वाली पहाड़न बाला  संजू अदरक इलायची वाली चाय का ग्लास रख मेरा सर दबाने लगी.. दीदी क्यों इतना सोचती हो, मुझे देखो पति छोड़ दिया ससुराल छूट गया पर किस्मत समझ इतने सालों से तेरे साथ हूं.. कहां कभी दुखी होती हूं उनके लिए..

                   मैं चाय पीकर कमरे में आ गई, संजू को कहा सोने जा रही हूं, तू तब तक अपना काम खत्म कर ले..

          बुखार से जलते शरीर की तपिश दिल दिमाग को भी अपने चपेटे में ले रहा था…

    बचपन के नाम पर दोनो भाइयों से जो बचता वो मेरे हिस्से में आता.. दोनो भाई सेंट जेवियर्स स्कूल में पढ़ते थे और मैं सरकारी स्कूल में.. उनकी किताबें चाहे कितनी भी फटी क्यों न हो, वही मेरे हिस्से में आती.. मिठाइयां फल दोनो भाइयों के लिए था, जब बासी हो जाता तो मां मुझे उठा के देती थी.. आम मुझे बहुत पसंद थे पर जब दाग लग जाते तब मेरे हिस्से में आते.. कभी कभी लगता मैं इनकी सौतेली बेटी तो नही..

                     यही उपेक्षा मुझे पढ़ाई के प्रति समर्पित होने की वजह बनी.. क्योंकि इसी वजह से मुझे बाहर मान सम्मान मिलने लगा था… जो मेरे उपेक्षित मन आत्मा को स्निग्धता प्रदान करता था.. आठवीं कक्षा से मुझे वजीफा मिलने लगा… स्कूल की शिक्षिका कंचन काव्या मैडम मुझे बहुत मानती थी.. स्नेह भरा हाथ जब मेरे सर पर रख कहती बेटा तुम्हे कोई जरूरत हो तो निः संकोच मुझसे कहना मैं तुम्हारी मां जैसी हूं तो जी करता छाती से लग कर जी भर के रो लूं.. मेरी उदास आंखों में छुपा दर्द शायद वो महसूस कर रही थी.. निः संतान थी पर दिल वात्सल्य रस से ओत प्रोत था..

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मैं साइंस लेना चाहती थी बारहवीं में पर मां और पापा ने भाइयों की सलाह पर साफ मना कर दिया.. कौन सा डॉक्टर बनना है.. दोनो भाइयों का रिजल्ट अच्छा नही होता था.. ट्यूशन कोचिंग के बाद भी.. बड़ा भाई प्लस टू तीसरे श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ..

               ग्रेजुएशन करने के बाद मेरी शादी के लिए लड़के की तलाश शुरू हो गई.. कौन सा तुझे नौकरी करनी है.. मैने चुपके से ओपन यूनिवर्सिटी से पीजी के लिए फॉर्म भर दिया..

     मेरी शादी हो गई और मैं अपने ससुराल आ गई.. सोचा था भगवान को शायद मेरे ऊपर तरस आ जाए मुझे ससुराल में पत्नी बहु का सम्मान मिले.. पर मेरे आगे आगे किस्मत चल रही थी..

  पति सास ससुर देवर ननद सब खाना खा लेते, फिर किचन समेट कर ठंडा बचा हुआ खाना किसी तरह हलक से उतारती.. पति के लिए मैं सिर्फ उनकी जरूरतें पूरी करने की वस्तु थी.. पूरी रात आंसुओं से तकिया भीगा देती पर पति ओह….

                  शादी के बाद मैने ये जाना था की जिस लड़की का मायके में मान सम्मान नही होता वो ससुराल में भी उपेक्षित होती है.. सास बेवजह जली कटी सुनाती.. देवर ननद भी बहती गंगा में हाथ धोने से बाज नहीं आते.. और पति उसके लिए तो मैं कठपुतली थी..

शादी के दो साल होने को आए थे, मैं अब त क मां नही बनी थी.. पति और सास जब कभी डॉक्टर से दिखाने की बात करती मैं डांट देते.. किसके भरोसे मैं आगे बढ़ती.. अब मुझे बांझ होने का ताना सब लोग देने लगे..

                        उड़ते उड़ते ये खबर मिली मुझे मायके भेज देंगे बांझ होने का इल्जाम लगा कर…

         और मैने उसी रात अपना पांव घर की दहलीज से बाहर निकाला..

        और पहुंच गई अपनी स्कूल की शिक्षिका  कंचन काव्या मैडम के पास.. सेवानिवृति के बाद उन्होंने अनाथ बच्चियों के लिए अपने घर में बसेरा नाम से संस्था बनाया था… वर्षों से उपेक्षित ये जीवन और मन मैडम के प्यार की फुहार से भींग उठा.. मैडम ने मुझे मां कह के बुलाने को कहा ..

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                 और मैने अपनी पढ़ाई मां के सहयोग से पूरी की.. पीएचडी किया जापान से.. और फिर पीछे मुड़कर नही देखा.. और वो छोटा सा बसेरा आज इतना बड़ा एनजीओ का रूप ले लिया है.. विदेशों से भी इसको चलाने के लिए फंड मिलते हैं.. कंचन मां तो नही रहीं पर बसेरा के लिए जो सपने उन्होंने देखे थे, उसको पूरा करने का वादा जो मैने किया था, उसे निभाया…

कितना इज्जत मान मुझे मिलता है पर उपेक्षा का वो दंश जिसे मैंने अपने बचपन और जवानी में झेला था कभी कभी बिच्छू सा डंक मार हीं देता है..

#स्वलिखित सर्वाधिकार सुरक्षित #

वीणा सिंह

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