सायंकाल की लालिमा घर की खिड़की पर पिघल रही थी, जैसे नीरजा के जीवन का सुख पिघल गया था। विकास का सूटकेस, वह हरा-भरा पौधा जिसे वह प्यार से सींचती थी, और बैंक पासबुक – सब गायब थे। एक साधारण सा व्हाट्सएप मैसेज छोड़ गया था वह: -“माफ़ करना, नीरजा।
ज़िंदगी कभी-कभी गलत मोड़ ले लेती है।” विश्वास की वह मोटी डोर, जिसे वह अटूट समझती थी, बारह साल के विवाह के बाद धागे-धागे टूट गई थी। उसके साथ गया था उनकी सारी संचित पूंजी और… नीरजा की सांसों में बसी वह निश्छल आस्था। जीवन की कड़वी सच्चाई ने उसे निगल लिया था – विवाह-पत्र जैसे कागज भी कभी-कभी धोखे के आवरण बन जाते हैं।
अगले कुछ महीने धुंधले थे। उसकी आँखें सूख गईं, आँसू भी थक चुके थे। रिश्तेदारों की सहानुभूति में छिपी उत्सुकता, पड़ोसियों की कानाफूसी – हर चीज उसके जख्मों पर नमक छिड़कती। “विश्वास करोगी तो ऐसा ही होगा,” कहने वालों की कमी नहीं थी।
पर नीरजा ने खुद को समेटा। जीवन का पहिया रुका नहीं था। उसने अपनी सिलाई की कला को हथियार बनाया। छोटे से किराए के कमरे में ‘नीरजा हस्तशिल्प’ नामक एक टिन शेड खोला। हाथों में सूई और धागे थे, मन में लहूलुहान विश्वास की डोर के टुकड़े।
एक दिन, शकुंतला दीदी उसकी दुकान पर आईं – पड़ोस की वही बुजुर्ग महिला जिसके चेहरे पर समय की लकीरें थीं और आँखों में एक अद्भुत स्थिरता। “बेटा, यह पुराना साड़ा कुछ संवार सकती हो?” उनकी आवाज़ में वह स्नेह था जो नीरजा को महीनों से अनजाना था।
नीरजा ने साड़ी को प्यार से संवारा। शकुंतला दीदी ने न सिर्फ़ पैसे दिए, बल्कि उसकी कारीगरी की तारीफ़ करते हुए कहा, “तुम्हारे हाथ जादू जानते हैं, बेटा। यह डोर… यहाँ से टूटी है, तो कहीं और बनेगी। दुनिया में सिर्फ एक डोर नहीं होती।”
धीरे-धीरे, शकुंतला दीदी नीरजा की जीवन-रेखा बन गईं। वह ग्राहक लातीं, उसके काम की प्रशंसा करतीं, और कभी-कभी बिना कहे ही उसके खालीपन को भर देतीं। उन्होंने उसे सिखाया कि “टूटा हुआ विश्वास जीवन का अंत नहीं, एक कठिन पाठ है। जो डोर टूट गई, उसके शोक में जीना व्यर्थ है। नई डोर बुननी है, पर अब समझदारी से, नज़र रखकर।”
दो साल बीत गए। ‘नीरजा हस्तशिल्प’ अब एक छोटी सी दुकान बन चुकी थी। एक दिन, एक युवती, आदिति, उसके पास आई।
उसकी आँखों में चमक और एक सपना था – सामाजिक कार्य से जुड़ी महिलाओं के लिए कपड़े बनवाने का। उसने नीरजा के काम की बहुत प्रशंसा की और एक बड़ा ऑर्डर दिया। पर पैसों की बात आई तो उसने कहा, “नीरजा जी, मैं अभी शुरुआत कर रही हूँ। क्या आप कुछ कपड़े और धागा मुझे क्रेडिट पर दे सकती हैं? मैं वादा करती हूँ, बिक्री होते ही पूरा भुगतान कर दूंगी।”
वही शब्द – “वादा”। नीरजा के मन में विकास का चेहरा कौंध गया। विश्वास की टूटी डोर के टुकड़े चुभने लगे। उसका दिल धड़का – “फिर धोखा? फिर वही दर्द?” शकुंतला दीदी की बात याद आई – “विश्वास करो, पर आँखें खोलकर।” नीरजा ने गहरी सांस ली। उसने आदिति की ईमानदार आँखों में झांका। एक कड़वे सबक ने उसे सिखाया था कि अंधा विश्वास मूर्खता है, पर विश्वास ही न करना जीवन को बंजर बना देता है।
“ठीक है, आदिति,” नीरजा ने दृढ़ता से कहा, “पर पूरा माल एक साथ नहीं। मैं तुम्हें काम चलाने भर का कपड़ा और धागा दूंगी।
जब तुम उसकी बिक्री से कुछ पैसा कमाओगी, तभी मैं अगला लॉट दूंगी। यह मेरे लिए भी सुरक्षित रहेगा, तुम्हारे लिए भी प्रेरणा।” उसकी आवाज़ में अनुभव की ठोस पाठशाला थी। आदिति ने समझदारी से सिर हिलाया।
कई हफ्ते बीते। आदिति के कपड़े बिके। उसने न केवल समय पर पैसा लौटाया, बल्कि अगला ऑर्डर भी दिया – पहले से बड़ा। उस दिन, जब आदिति ने पूरा भुगतान किया और उसके सफल होने की कहानी सुनाई, तो नीरजा के चेहरे पर एक अलग ही प्रकाश खिला।
यह वह सुख नहीं था जो विकास के साथ था। यह गहरा था, परिपक्व था। जैसे बरसों बाद बरसात के बाद निकली धूप, जो जमीन की गहराई तक को सुखा दे।
शकुंतला दीदी उसी समय आ गईं। उन्होंने नीरजा की चमकती आँखों और आदिति के खुश चेहरे को देखा। बिना कुछ कहे, उन्होंने नीरजा की पीठ सहलाते हुए एक मुस्कान दी। वह मुस्कान समझ गई थी।
उस शाम, नीरजा दुकान बंद करके घर लौटी। रास्ते में एक बच्चा अपनी उड़ने लगी पतंग की डोर सम्हालने की कोशिश कर रहा था। डोर कई बार टूटकर जुड़ रही थी। नीरजा रुक गई। उसने देखा, फिर मुस्कुराई। उसके मन में कोई कड़वाहट नहीं थी, बस एक गहरी शांति थी। “विश्वास की डोर कभी अंतिम नहीं होती, वह तो जीवन के ताने-बाने में एक नया धागा भर है “।
कभी वह टूटती है, किसी के स्वार्थ के पत्थर से। कभी बुनती है, किसी के सच्चे स्पर्श से। जिस डोर ने उसे डुबोया था, उसी ने तैरना सिखाया था। आज वह जानती थी – “विश्वास करना जीवन का सुख है, और सतर्कता उस सुख का बुद्धिमान संरक्षक।
” टूटी डोर का दर्द उसकी आत्मा में एक मजबूत गांठ बन गया था, जिस पर अब एक नया, सच्चा और सुंदर आकाश टिका हुआ था। वह आकाश उसका अपना था, विश्वास के नए सूरज से जगमगाता हुआ।
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा (पालमपुर)
हिमाचल प्रदेश ।