“मोहित बेटा! तुम अमेरिका से वापस कब लौटे?”
अचानक एक जानी पहचानी आवाज सुनकर घर के बाहर खड़े अपने स्कूटर की सफाई कर रहे मोहित का ध्यान भंग हुआ…
“अरे अंकल आप! नमस्ते अंकल! बहुत दिनों बाद इधर आना हुआ आपका!”
किराया देकर अभी-अभी ऑटो से नीचे उतरे जगदीश्वर जी को देखते ही मोहित ने उनके पांँव छू लिए। जगदीश्वर जी भी अपना हाथ बढ़ाकर मोहित के कंधे का सहारा लेते हुए बोले…
“क्या बताऊं बेटा! मन तो बहुत करता है कि यहां आकर अपने पुराने पड़ोसियों से मिलूं लेकिन अब शरीर साथ नहीं देता, बूढ़ा हो गया हूंँ ना!”
अपना पुराना मोहल्ला छोड़कर अब अपार्टमेंट के फ्लैट में रहने वाले जगदीश्वर जी के चेहरे पर एक फीकी-सी मुस्कान तैर गई।
मोहित अभी कुछ कह पाता उससे पहले ही भीतर के कमरे से निकलकर अपने घर के बरामदे में आ पहुंचे मोहित के पिता राधेश्याम जी की नजर अपने पुराने पड़ोसी जगदीश्वर जी पर पड़ी तो उन्होंने मुस्कुरा उठे…
“अभी कहां आप बुड्ढे हुए हैं भाई साहब! अब तो पोते पोतियो के साथ खेलने की आपकी उम्र हुई है!”
यह कहते हुए राधेश्याम जी ने वही बरामदे में पड़ी कुर्सी जगदीश्वर जी की ओर खिसका दी…
“आइए बैठिए! बड़े दिनों बाद याद आई आपको हम सबकी! लेकिन सच कहूं तो आज अचानक आपको यूं यहां आया देख कर बहुत खुशी हो रही है।”
अपने चेहरे पर फैली उदासी को दरकिनार कर कुर्सी पर बैठते हुए जगदीश्वर जी ने मोहित की ओर देखा…
“बेटा! आजकल तुम्हारी नौकरी कैसी चल रही है?”
जगदीश्वर जी का सवाल सुनकर मोहित मुस्कुराया…
“अंकल मैंने नौकरी छोड़ दी है!”
“नौकरी छोड़ दी! लेकिन क्यों बेटा?”
“अंकल! मैंने अपना खुद का बिजनेस शुरू किया है।”
जगदीश्वर जी के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा लेकिन राधेश्याम जी मुस्कुराए…
“बेवकूफ है ये! मेरी जरा सी बीमारी की खबर सुनकर यह अपनी अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर घर वापस लौट आया, कहता है कि बिजनेस के माध्यम से कई लोगों को मैं खुद रोजगार दूंगा! मेरी तो कोई बात इसके पल्ले पड़ती ही नहीं, जरा आप ही कुछ समझाइए भाई साहब!”
“बेटा! आज के वक्त में पढ़े लिखे नौजवान के हाथ में एक अच्छी नौकरी होना बड़े गर्व की बात होती है और तुम तो विदेश में नौकरी कर रहे थे! तुम्हें तो वहां से वापस आना ही नहीं चाहिए था।”
जगदीश्वर जी मोहित को समझा रहे थे। लेकिन मोहित मुस्कुराता रहा और धूल मिट्टी झाड़कर अपने स्कूटर को चमकाता रहा, कुछ बोला नहीं। जगदीश्वर जी आगे बताने लगे…
“अब मेरे दोनों बेटों को ही देख लो! दोनों पढ़ लिखकर विदेश में नौकरी कर रहे हैं! तनख्वाह डॉलर में पाते हैं! ऐशो-आराम की जिंदगी है उनकी, उन्हें किसी बात की कोई कमी नहीं है।”
राधेश्याम जी गौर से सुन रहे थे और जगदीश्वर जी बड़े गर्व के साथ बता रहे थे…
“मेरे दोनों बेटे आज के वक्त में रुपए कमाने में इतने व्यस्त हैं कि, उनके पास समय ही नहीं होता है कि वो मेरी छोटी मोटी बीमारी की खबर सुनकर आ जा सके! मेरे रहने के लिए भी उन्होंने यहां मोहल्ले के शोर-शराबे से दूर अपार्टमेंट में फ्लैट खरीद दिया है। अब तो किसी से यूंही बात करने तक कि उनके पास फुर्सत नहीं होती है।”
“वक्त का यही तकाजा है भाई साहब!”
राधेश्याम जी मुस्कुराए तो जगदीश्वर जी ने भी उनकी हांँ में हांँ मिलाई…
“सही कहा आपने भाई साहब! और वैसे भी जो वक्त के साथ नहीं चलता है वह वक्त से बहुत पीछे छूट जाता है!”
अभी बातों का सिलसिला चल ही रहा था कि राधेश्याम जी की बहू रश्मि ने सामने डाइनिंग टेबल पर सभी के लिए नाश्ते की थाली सजा दी।
हर रोज अकेले ही भोजन करने वाले जगदीश्वर जी मना करते रहे लेकिन मोहित और उसकी पत्नी का आग्रह वो ठुकरा ना सके।
खुद के दो बेटे और बहुएं होने के बावजूद अपने घर में अकेले रहकर हर रोज नौकर के हाथों बना भोजन करने वाले जगदीश्वर जी आज बड़े दिनों बाद परिवार के साथ बैठकर भोजन कर रहे थे।
भोजन के दौरान इधर-उधर की बातें होती रही। लेकिन पत्नी के गुजर जाने के बाद जगदीश्वर जी के भीतर लगभग ठोस हो चुका परिवारिक एहसास अचानक पिघल कर उनके आंखों के कोर तक आ पहुंचा। जो वो राधेश्याम जी की नजरों से छुपा ना सके…
“आपकी आंखों में आंसू कैसे? किसी सब्जी या दाल में मिर्च अधिक हो गई है क्या भाई साहब?”
“नहीं भाई साहब! भोजन का स्वाद तो लाजवाब है! और ये आंसू नहीं मेरे जीवन का सूनापन है जो आज आपके परिवार का स्नेह पाकर दिल से उतर कर आंखों तक बह आया है।”
यह कहते हुए जगदीश्वर जी ने अपनी जेब से रुमाल निकाल कर अपनी आंखें पोंछते हुए राधेश्याम जी की ओर देखा…
“भाई साहब! मैं लाख बड़प्पन कर लूं अपने तरक्की पसंद दोनों बेटों की लेकिन वास्तव में अमीर तो आप हैं! हीरे जैसा बेटा है आपके पास, वरना ऐसी तरक्की किस काम की जो बुढ़ापे में मांँ-बाप को बेसहारा बना दे।”
अब तक अपने बच्चों की कमाई और उनकी तरक्की गिन-गिन कर बता रहे जगदीश्वर जी अपने अकेलेपन को संभाल ना सके और अचानक फूट-फूटकर रो पड़े।
विदेश की नौकरी छोड़ घर वापस आ जाने की वजह से अक्सर अपने बेटे को कोसने वाले राधेश्याम जी कभी जगदीश्वर जी की ओर तो कभी मोहित की ओर देख रहे थे। लेकिन अपनों के होते हुए भी अकेलेपन के शिकार जगदीश्वर जी को अपने शब्दों से सांत्वना देने में वो खुद को असमर्थ पा रहे थे।
पुष्पा कुमारी ‘पुष्प’
पुणे (महाराष्ट्र)