तृषा थकी हुई, चिंतित और खिन्न मन से अपनी माँ के पास आई थी। उसकी आँखों में गहरी उदासी थी और चेहरे पर तनाव साफ झलक रहा था। उसने दरवाजा खोला और सीधे माँ के सामने जाकर बैठ गई। उसकी माँ, मीरा जी, अपनी बेटी के इस बदले हुए भाव को देखकर चिंतित हो उठीं। तृषा ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, “माँ, मैं अब तुषार के साथ और नहीं रह सकती। रोज़-रोज़ की तकरार, तू-तू, मैं-मैं से मैं तंग आ चुकी हूँ। आज मैंने फैसला कर लिया है कि अब मुझे अलग होना है।”
मीरा जी हैरान थीं। “तृषा! क्या कह रही हो? तुम दोनों की शादी को अभी कुछ ही साल हुए हैं और इतनी जल्दी यह फैसला?”
“माँ, मैंने बहुत कोशिश की। समझने, समझाने की, लेकिन तुषार बदलते ही नहीं। हर बात पर तकरार, हर छोटी-छोटी चीज़ पर लड़ाई। मैं भी इंसान हूँ माँ, कब तक सहूंगी?” तृषा की आवाज़ में दर्द साफ झलक रहा था।
मीरा जी ने शांत स्वर में पूछा, “तृषा, तुमने कोशिश तो की है, लेकिन क्या तुषार ने भी कोशिश की? क्या यह समस्या केवल तुम्हारी है या तुषार की भी कोई भूमिका है इसमें?”
“माँ, मुझे लगता है कि हमारी सोच ही अलग है। वह नहीं समझते कि मैं भी एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर इंसान हूँ। मेरी अपनी जिंदगी है, मेरी अपनी प्राथमिकताएँ हैं। हर समय अपने हिसाब से जीना चाहता है। मैंने कितनी बार समझाया, पर वह सुनते ही नहीं,” तृषा ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा।
मीरा जी कुछ देर तक चुप रहीं। फिर उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा, “तृषा, तुम्हारी आत्मनिर्भरता तुममें आत्मसम्मान और आत्मबल का संचार करती है, यह बहुत अच्छा है। परंतु क्या तुम्हें लगता है कि कहीं तुम्हारी आत्मनिर्भरता अहंकार में तो नहीं बदल रही है? रिश्ते केवल अधिकार और स्वतंत्रता की बातें करने से नहीं चलते। उन्हें निभाने के लिए संवेदनशीलता, समझदारी और कभी-कभी त्याग भी जरूरी होता है।”
“माँ, क्या मतलब है तुम्हारा? क्या मैं गलत हूँ? अगर मैं अपना आत्मसम्मान बनाए रखना चाहती हूँ तो इसे अहंकार क्यों कह रही हो?” तृषा की आवाज में नाराजगी और दर्द था।
मीरा जी ने प्यार से उसका हाथ थामते हुए कहा, “बेटा, मैं यह नहीं कह रही कि तुम गलत हो। पर क्या कभी तुमने खुद से पूछा है कि तुषार का दृष्टिकोण क्या है? हो सकता है, उसे भी कुछ परेशानियाँ हों। क्या तुमने उसे सुना है? केवल अपने मन की बात रखने से पहले क्या उसकी भी कुछ सुनी है?”
तृषा ने नजरें चुरा लीं। उसने कई बार तुषार के तर्कों को अनसुना कर दिया था। उसे अपनी आत्मनिर्भरता पर गर्व था, पर शायद वह गर्व और अहंकार के बीच की लकीर को न पहचान पाई थी।
मीरा जी ने उसकी खामोशी को भांपते हुए कहा, “रिश्तों में केवल प्रेम ही नहीं, बल्कि एक-दूसरे की भावनाओं को समझने की कला भी जरूरी होती है। कभी-कभी चुप रहकर सुनने में भी बड़ी ताकत होती है। मुझे लगता है, तुम दोनों को एक बार फिर से अपनी बातें साफ-साफ कहनी चाहिए।”
“माँ, मैंने बहुत कोशिश की है। पर तुषार का अहंकार…उसके लिए मेरा आत्मनिर्भर होना जैसे एक चुनौती बन गया है। वह नहीं समझता कि मैं भी अपने काम में कितनी मेहनत करती हूँ। हर वक्त अपनी इच्छाएँ और अपनी जरूरतें थोप देता है,” तृषा की आँखें भर आईं।
मीरा जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “तृषा, किसी भी रिश्ते में अहंकार का आना खतरनाक होता है। तुम्हारा भी और तुषार का भी। तुम दोनों अपने-अपने स्थान पर सही हो सकते हो, पर क्या सही होने के चक्कर में रिश्ता खत्म करना सही है?”
“माँ, अगर यह रिश्ता इतना कष्टदायक है, तो इसका क्या मतलब?” तृषा ने सवाल किया।
“मतलब यह है, बेटा, कि तुम दोनों को एक-दूसरे की जरूरतों और भावनाओं को समझने का वक्त देना चाहिए। रिश्ते में सिर्फ अपना पक्ष नहीं, सामने वाले का भी महत्व होता है। जब तक संवाद नहीं होगा, तब तक हल नहीं मिलेगा। तुम कहती हो कि तुम आत्मनिर्भर हो, तो आत्मनिर्भरता में रिश्तों को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी भी आती है।”
“माँ, क्या तुम चाहती हो कि मैं समझौता करूँ और खुद को भूल जाऊँ?” तृषा ने कटाक्ष भरे स्वर में कहा।
“नहीं बेटा, मैं समझौता कहकर तुम्हें कमजोर नहीं कर रही हूँ। मैं सिर्फ यह चाहती हूँ कि तुम अपनी बात मजबूती से कहो, लेकिन सामने वाले को भी सुनो। जो समझौता प्यार, विश्वास और सम्मान के साथ हो, वह कोई कमजोरी नहीं, बल्कि एक रिश्ते को मजबूत बनाने वाला कदम है।”
मीरा जी की बातें सुनकर तृषा कुछ सोच में पड़ गई। उसने महसूस किया कि वह केवल अपने पक्ष को सही साबित करने में लगी रही थी। तुषार की हर बात को अनदेखा कर चुकी थी। शायद वह भी अपनी बात रखने की कोशिश कर रहा था, पर दोनों के अहंकार ने दीवारें खड़ी कर दी थीं।
मीरा जी ने धीरे से कहा, “बेटा, अगर तुम्हें लगता है कि यह रिश्ता तुम्हारे लिए बहुत बोझिल हो गया है, तो फैसला तुम्हारा होगा। पर एक बार ठहर कर सोचो, क्या सबकुछ खत्म करने से पहले एक आखिरी कोशिश नहीं की जा सकती? बातचीत, प्यार, समझदारी और त्याग से रिश्ते में नई शुरुआत करने की कोशिश। कभी-कभी हार मानने से पहले एक आखिरी कोशिश जरूरी होती है।”
तृषा ने अपनी माँ की बात सुनी और आँखें मूँद लीं। उसने अपने और तुषार के बीच के लम्हों को याद किया, जब वे एक-दूसरे के लिए सबकुछ थे। उसने उन खुशियों को भी याद किया, जो छोटी-छोटी बातों में हुआ करती थीं। शायद इस रिश्ते में अब भी कुछ बचा था।
उसने अपने आँसू पोंछते हुए कहा, “माँ, शायद तुम सही कह रही हो। मुझे और तुषार को एक बार खुलकर बात करनी होगी। अगर दोनों अपने-अपने अहंकार को छोड़कर एक नई शुरुआत करने को तैयार हों, तो यह रिश्ता बच सकता है।”
“बिल्कुल, बेटा,” मीरा जी ने प्यार से कहा। “कभी-कभी सबसे बड़े कदम छोटे-छोटे त्यागों से ही शुरू होते हैं। तुम्हारी आत्मनिर्भरता तुम्हें मजबूत बनाती है, पर रिश्तों में सजीवता का आधार एक-दूसरे के प्रति सम्मान और प्यार है। कभी-कभी झुकना रिश्ते को और मजबूत बनाता है।”
तृषा ने अपनी माँ को गले लगा लिया। उसने फैसला किया कि वह तुषार से बात करेगी, उसे भी सुनेगी और रिश्ते को बचाने की हर संभव कोशिश करेगी। यह केवल उसके आत्मसम्मान की बात नहीं थी, बल्कि दोनों के रिश्ते को एक नई शुरुआत देने की भी थी।
अगले दिन
तृषा ने तुषार से मिलने का फैसला किया। दोनों ने अपनी बातों को खुलकर रखा। गलतफहमियों को दूर करने की कोशिश की। धीरे-धीरे उन दोनों ने समझा कि उनका अहंकार ही उनके बीच की दीवार बना हुआ था। अब दोनों ने यह तय किया कि वे एक-दूसरे की बातों को सुनेंगे, एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करेंगे, और अपने रिश्ते को फिर से मजबूत करेंगे।
तृषा ने यह भी महसूस किया कि आत्मनिर्भरता एक वरदान है, पर जब यह अहंकार में बदल जाए तो रिश्तों को नुकसान पहुंचा सकती है। उसने अपनी माँ की बातों का मान रखते हुए एक नई शुरुआत की। अब वह और तुषार एक-दूसरे की बातों को ध्यान से सुनते, समझते और प्यार के साथ रिश्ते को आगे बढ़ाते।
मीरा जी ने तृषा को यह बात सिखाई थी कि समझदारी, प्रेम और संवेदनशीलता से रिश्ते को मजबूत किया जा सकता है। इस बार तृषा और तुषार ने अपने रिश्ते को नई उम्मीदों और विश्वास के साथ एक नया रूप दिया।