तृप्ति – अनु नेवटिया : Moral Stories in Hindi

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निर्मला जी आज घर पर अकेली थीं, बेटा, बहु और पोता- पोती सब बाहर खाने गए थे। जाना तो उन्हें भी था, पर उनकी तबियत कुछ ठीक नहीं थी, और आज कई महीनों के बाद ये प्लान बना था तो जाना कैंसिल करके वो बच्चों को उदास नहीं करना चाहती थी, इसलिए उन्होंने सबको आग्रह करके भेज दिया और स्वयं घर पर रह गई। किताब पढ़ते- पढ़ते उनकी आँख कब लगी याद नहीं रहा, अचानक बाहर के शोरगुल से नींद खुली।

शायद प्रशांत, बहु और बच्चे आ गए।

निर्मला जी बड़ी उत्साहित होकर  बाहर गई, बच्चों के चेहरे की खुशी देखने, क्या खाया, कहां गए, सब बच्चों से सुनना कितना आनंददायक होता है।

पर बाहर तो अलग ही माहौल था।

प्रशांत और बच्चे बहु को कभी ताने दे रहे थे तो कभी तीनों मिलकर उसपर हँस रहे थे।

निर्मला जी के बाहर आते ही दस वर्षीय पोती, गरिमा ने हँसते हुए उनसे कहा ” दादी, पता है आज मम्मी ने क्या किया?”

“क्या हुआ तुम लोग तो बाहर खाने गए थे न” निर्मला जी असमंजस में थी।

“काश कि बाहर न ही जाते, घर में रहने वालों को बाहर ले जाना ही नहीं चाहिए” प्रशांत ने तंज कसते हुए कहा।

“दादी, पता है मम्मी ने होटल में क्या मंगाया?”

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“ऐसा क्या मंगा लिया बहु तूने” निर्मला जी ने पूछा

“मैं बताता हूं माँ, दस  अलग-अलग देशों का खाना था वहां और इसने मंगाया रोटी- सब्जी”

प्रशांत थोड़ा नाराज़ होते हुए बोला।

“हाँ, और उसकी एक- एक बाइट मम्मी ऐसे ले रही थी जैसे चीज़ बर्गर” हंसते हुए गरिमा ने कहा।

निर्मला जी ने एक नज़र बहु पूजा को देखा, इतने सब बाद भी वो उदास नहीं थी, बल्कि उसके चेहरे और सबकी बातों से तो ऐसा लग रहा था जैसे आज सबसे ज़्यादा उसने ही बाहर के खाने का लुत्फ उठाया है।”

निर्मला जी कुछ नहीं बोली न ही बहु पूजा ने किसी से कुछ कहा।

दूसरे दिन की सुबह हर सुबह जैसी ही थी, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर उन्हें टिफिन देकर, फिर प्रशांत का नाश्ता और टिफिन बनाकर पूजा ने निर्मला जी को भी नाश्ता दिया और फिर छोटे- मोटे काम निपटाकर रसोई में अपने लिए खाना लेने आई तो निर्मला जी को रसोई में देखकर आश्चर्य से पूछा “माँ आपको कुछ चाहिए?”

“नहीं, तुमने खाना खाया?”

“नहीं, बस वही लेने आई थी”

“तो सब्ज़ी डाल लो, तब तक मैं गरम रोटी सेंक देती हूं, एक लेकर जाओ तब तक और बनाती हूं”

“अरे नहीं माँ, रोटी तो बनी हुई..”

“बनी हुई कोई और खा लेगा, तुमसे कहा न सब्ज़ी डालो” पूजा की बात बीच में ही काटते हुए निर्मला जी ने एक गरमा गर्म गुब्बारे सा फूला हुआ फुल्का घी में चुपड़कर उसकी थाली में डाल दिया”

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“पर माँ इसकी क्या जरूरत है?” पूजा थोड़ी भावुक होते हुए बोली, इस स्नेह से उसकी आँखें नम थी, पर ऐसा पहली बार होते देख आँखों में एक सवाल भी था।

“ज़रूरत है, ताकि मेरी बहु फिर कभी किसी होटल में जाए तो विभिन्न देश और स्वाद के खाने खाए, घर का खाना उसे घर में वैसा ही मिले जैसा वो सबको परोसती है।”

कहते हुए निर्मला जी ने एक कौर  पूजा के मुंह में डाल दिया और दोनों सास बहु को वो तृप्ति मिली जो आज से पहले कभी नहीं मिल पाई।

– अनु नेवटिया  

कोलकाता

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