उस शाम का सूरज भी थक कर लाल हो रहा था, जैसे अविनाश के दिन भर के काम के बोझ से। कार से उतरते हुए उसने जेब में पड़े छोटे से मखमली डिब्बे को दबाया। सालगिरह का तोहफा था – प्रगति के लिए। एक सोने की नाजुक चेन, उसकी कई महीनों की गोपनीय बचत का नतीजा। दिल में एक हल्की सी कंपकंपी थी। खुशी? डर? पता नहीं। प्रगति उपहारों में ‘व्यावहारिकता’ की पैरोकार थी।
घर में प्रवेश किया तो रसोई से खुशबू और तड़क-भड़क की आवाजें आ रही थीं। प्रगति अपने अंदाज में व्यस्त थी – एक हाथ से कढ़ी चलाते हुए, दूसरे से फोन कान से लगाए, और पैर से बेटे अयान के खिलौने को रोकती हुई।
अविनाश: (मुस्कराते हुए, ड्राइंग रूम में रखी मेज पर डिब्बा रखते हुए) “जन्मदात्री को जन्मदिन की मुबारकबाद! काम ख़त्म करो जल्दी, तोहफा इंतज़ार कर रहा है।”
प्रगति: (फोन पर बोलते हुए) “हाँ, हाँ रीना, बाद में बात करती हूँ… अयान, वो कार वहीं छोड़ दो बेटा!” (फोन रखकर रुमाल से हाथ पोंछती हुई बाहर आती है) “तोहफा? फिर कौन सा ‘व्यावहारिक’ आइडिया लेकर आए हो? पिछली बार तो स्टील का वो बड़ा सा डब्बा दिया था जो अलमारी में कबाड़ बनकर पड़ा है!”
उसकी आवाज़ में खिंचाव था, थकान थी, पर आँखों में एक चमक भी थी – अविनाश को चिढ़ाने की।
अविनाश ने झेंपते हुए, डिब्बा बढ़ाते हुए कहा “इस बार नहीं… खोलकर देखो।”
प्रगति ने उत्सुकता से, पर सावधानी से डिब्बा खोला। सुनहरे रंग की चमक ने कमरे की मद्धिम रोशनी में भी चमक बिखेर दी। वह चुप रह गई। उसके चेहरे पर खुशी की एक झलक तो दौड़ी, पर तुरंत ही भौंहों पर बल पड़ गए।
प्रगति ने चेन को सावधानी से निकालते हुए कहा “अविनाश… ये… ये सोना है ना? कितना भारी लग रहा है। कितने ग्राम का है? कहाँ से लाए? कितने का पड़ा?”
प्रश्नों की झड़ी लग गई। अविनाश का उत्साह थोड़ा मुरझाया।
अविनाश (थोड़ा ठंडे स्वर में) “मुबारकबाद देने का तरीका तो देखो। ‘खूबसूरत है’, ‘पसंद आया’ – ये शब्द तो कहीं गुम हो गए? सालगिरह है, याद दिलाने को एक निशानी… तुम्हारी गर्दन की खूबसूरती बढ़ाने को।”
प्रगति(चेन को घूम-घूमकर देखते हुए, आवाज में एक तीखापन) “खूबसूरती? अविनाश, ये खूबसूरती हमारे महीने के किराए के बराबर की होगी! अयान का स्कूल फीस बढ़ने वाली है, कार का इंश्योरेंस रिन्यू कराना है, और तुम… तुम सोने का हार ले आए? ये ‘तोहफा’ नहीं, एक और ज़िम्मेदारी है जो मुझे गर्दन में पहनकर घूमनी पड़ेगी!”
उसकी आवाज़ भावुक हो उठी थी। यह उपहार नहीं, उनकी जीवन की अलग प्राथमिकताओं का टकराव था, जो सोने की चेन पर उतर आया था।
अविनाश (आवेश में) “हमेशा पैसे-पैसे की बात! क्या ज़िंदगी सिर्फ बिल भरने, फीस जमा करने के लिए है? कभी कुछ खूबसूरत, कुछ बेमतलब सा, सिर्फ खुशी के लिए नहीं खरीद सकते क्या? तुम्हें याद है पिछले साल तुमने मेरे लिए जो कलाई घड़ी चुनी थी? वो भी तो खूबसूरत थी, ‘व्यावहारिक’ नहीं!”
प्रगति (चेन को मेज पर रखते हुए, आँखों में चमक) “वो घड़ी तुम्हें ऑफिस के मीटिंग्स में प्रोफेशनल लुक देती है! ये चेन? ये सिर्फ… सिर्फ दिखावा है! और कितना भारी है… लगता है गर्दन टूट जाएगी।” वह झुंझलाई हुई थी।
अविनाश ने कड़वाहट से कहा “तो क्या करूँ? लौटा दूँ? या फिर तुम इसे बेचकर उस पुराने मिक्सर के लिए पैसे जोड़ लो, जिसका जिक्र तुम हफ्ते से कर रही हो?”
एक भारी चुप्पी छा गई। बस रसोई से आती कढ़ी की खदबदाहट सुनाई दे रही थी। प्रगति ने मेज पर पड़े चेन को देखा। चमकती हुई, नाजुक, पर उसकी नजरों में बोझिल। अविनाश सोफे पर बैठकर दूर कहीं देख रहा था, उसका मन उदास था।
प्रगति धीरे से, आवाज़ नरम करके बोल”अविनाश… मुझे माफ़ करना।” वह उसके पास बैठ गई। “तुम्हारा दिल टूट गया होगा। मैं… मैं समझती हूँ तुमने प्यार से ये सोचकर लाया होगा।”
अविनाश: (सिर घुमाकर, आँखें नम) “हाँ, सोचा था… तुम्हारी गर्दन पर ये सूरज की किरणों जैसी चमकेगी। तुम्हें अच्छा लगेगा। पर शायद मैं गलत था। तुम्हारी खुशी तो बचत बुक में बढ़ते अंकों में है।”
प्रगति नेउसका हाथ थामते हुए कहा “नहीं, ऐसा मत कहो। मेरी खुशी… हमारे इस छोटे से घर में सुकून से है, अयान की हँसी में है, तुम्हारे साथ इस थकी हुई शाम में चाय पीने में है।” वह चुप हुई, फिर बोली, “ये चेन… ये बहुत कीमती है अविनाश। सिर्फ पैसों में नहीं… तुम्हारे उस प्यार में जो तुमने इसे चुनने में लगाया। मैं डर गई… क्योंकि इतना कीमती तोहफा पाकर मैं खुद को इस लायक महसूस नहीं कर पाई।”
वह उठी और चेन उठा ली। उसे सावधानी से खोला। हुक लगाने की कोशिश करते ही, अचानक एक तेज आवाज हुई। चेन का एक छोटा सा लिंक, शायद पहले से ही कमजोर था, टूटकर चमकता हुआ फर्श पर गिर पड़ा।
प्रगति हक्का-बक्का”अरे नहीं! टूट गया! मैंने तो बस…”
अविनाश ने तुरंत उठकर, टूटा हिस्सा उठाते हुए कहा “कोई बात नहीं प्रगति। ये तो होता रहता है। कल ज्वैलर के पास ठीक करवा लेंगे।”
प्रगति ने टूटा हुआ लिंक और फिर अविनाश के चेहरे पर मिली-जुली निराशा और सांत्वना देखी। कुछ क्षणों तक वह चुपचाप देखती रही। फिर, एक अजीब सी मुस्कान उसके चेहरे पर खिली।
प्रगति बोली “रुको।” वह रसोई में गई और एक छोटी सी चांदी की चेन ले आई, जो उसकी पुरानी लॉकेट से जुड़ी थी। उसने सोने के हार से टूटे हिस्से को हटाया और चांदी की उस छोटी चेन को सावधानी से जोड़ दिया। सोने की चमकदार कड़ियों के बीच चांदी की एक अलग रंगत की कड़ी जुड़ गई, जैसे रात के आकाश में एक अलग तारा।
प्रगति ने अविनाश की ओर मुड़कर, आँखों में एक नई चमक के साथ कहा “देखो। अब ये और भी खास हो गया है। सिर्फ सोना नहीं रहा। इसमें अब एक कहानी जुड़ गई है। हमारी कहानी।”
उसने चेन पहनी। चांदी की कड़ी सोने के बीच अजीब नहीं, अनूठी लग रही थी।
अविनाश (गहरी निगाहों से देखते हुए, गले से उतरा हुआ स्वर) “हमारी कहानी… जिसमें खट्टा भी है, मीठा भी। टूटन भी है, और जुड़ाव भी।”
प्रगति उसके पास आकर, हाथ में लिए टूटे हुए सोने के टुकड़े को देखते हुए बोली “ये टूटा हुआ टुकड़ा… इसे रख लेते हैं। याद रहेगा कि कभी-कभी प्यार भी टूटता है, पर उसे चांदी की मासूमियत से जोड़ा जा सकता है। और देखो…” वह मुस्कराई, “अब ये हार हल्का भी हो गया है। बिलकुल हमारे रिश्ते की तरह… जब हम एक-दूसरे का बोझ साझा कर लेते हैं।”
अविनाश ने उसे खींचकर गले लगा लिया। रसोई से कढ़ी के उबलने की आवाज़ थी, बेडरूम से अयान के खिलखिलाने की आवाज़ आई। उस छोटे से टूटे हुए टुकड़े में, उस मिली-जुली चेन में, उन्हें अपना सारा जीवन नज़र आया – अधूरा, टूटा-फूटा, पर अपनी हर खामी के साथ अनूठा और प्यारा। वह तोहफा सिर्फ सोना नहीं रहा था; वह उनके साझा जीवन का, उनकी खट्टी-मीठी यर्थाथता का प्रतीक बन गया था।
“सच्चा तोहफा वह नहीं जो चमकता है, बल्कि वह भावना है जो टूटने पर भी जुड़ जाती है, और मिली-जुली होकर भी अपनी अनूठी चमक बनाए रखती है।”
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा (पालमपुर)
हिमाचल प्रदेश