स्वर्ग यहां-नरक यहां – शुभ्रा बैनर्जी  : Moral Stories in Hindi

दीपावली की लंबी छुट्टी मिली थी स्वाति को।ऊपर से बेटी भी आ रही थी।उसके आ जाने से त्योहार की भागदौड़ नहीं करनी पड़ती थी स्वाति को।

आते ही फरमान जारी हो गया उसका”मम्मी,इस बार दीवाली में कांजीवरम साड़ी ही पहनना पड़ेगा।पापा के दिए झुमके भी निकाल दूंगी।मैं भी पायल पहन ही लूंगी।सारे काम समय से निपटा लेना इस बार।दादा(बड़ा भाई)जब पटाखा फोड़े तो तुम्हें भी देखना है।”स्वाति की बक-बक सुन स्वाति हूं हूं करती जा रही थी।जानती थी,यह अड़ियल मानेगी तो नहीं।पापा की कमी यही पूरी करती है।जैसे उन्हें शौक था पत्नी को सजी-धजी देखना,वैसे ही इसे भी है।दो दिन के अंदर घर की कायापलट कर दी थी बेटी(शिखा)ने।दादी की साड़ी,भाई का कुर्ता पायजामा और अपनी लांग स्कर्ट सुबह से निकाल कर रख लिया था।

स्वाति ने रात के खाने के लिए पालक पनीर और चिली मशरूम भी बना लिया था शाम को ही।पालक पनीर दादी और पोती का फेवरिट और चिली मशरूम पोते का।

संध्या बाती के समय करीने से सारे दिए सजा-सजाकर भाई को पकड़ाती हुई शिखा स्वाति को तैयार होने की चेतावनी भी दिए जा रही थी।इस दिन बंगाली लोग काली पूजा करते हैं।स्वाति के घर से काफी दूर होती थी पूजा।बहुत कम ही जा पाती थी स्वाति।प्रसाद चढ़ाकर आ जाती थी,रुकना नहीं हो पाता था।घर में शुरू से ही बुजुर्ग ससुर और सास थे।हर बार बेटी पहले से तय करती,और उसके मन का नहीं हो पाता था।इस बार तो दादी को देखकर खुश होकर बोली भी”वाह !दादी,आप अब बिल्कुल ठीक हो।जल्दी से खाना खा लेना,फिर हम लोग पटाखें फोड़कर मंदिर जाएंगे।लॉक बाहर से लगाकर ही चले जाएंगे।ठीक है ना?”

अपने पोते-पोतियों पर जान छिड़कने वाली दादी भी खुश होकर बोली”हां,हां,ले जाना मां को इस बार मंदिर।जा ही नहीं पाती कभी।पटाखे जलाना तो मुझे बुलाना।”

स्वाति को सास नहीं मां मिली थी।हर हाल में हमेशा साथ देने वाली।खाना खाने से पहले पटाखे जलते देखने की इच्छा जताई उन्होंने ,तो बेटे -बेटी फटाफट जलाने लगे।इस उम्र में भी बड़े शौक से बम के धमाके कान बंद कर सुनने का जो सुख उनके चेहरे पर था,वह अकल्पनीय था।

अंदर आकर इंसुलिन देकर स्वाति ने पालक पनीर और परांठा जैसे ही परोसा उन्हें,खुश हो गई।बच्चे बाद में खाएंगे,तो स्वाति रसोई समेटने लगी।खांसी हो रही थी मां को,तो स्वाति पानी गुनगुना करके देने गई।मां को देखकर उसके हांथ -पैर कांपने लगे।प्लेट हांथ में ही लिए,बिस्तर पर आधी गिरी हुई थीं वे।स्वाति ने देखा,आंखें ऊपर चढ़ी हुई थी,और पूरा शरीर पसीने से लथपथ।चिल्लाकर बच्चों को बुलाया तो पोती ने देखकर ही कह दिया, कि शुगर लो हो गया है।

आनन-फानन में घर पर ही शुगर टेस्ट करने लगे बच्चे।इतने में स्वाति भी दौड़कर कॉलोनी में रहने वाली नर्स को बुला लाई।ग्लूकोज पिलाया गया उन्हें।बात नहीं कर पा रहीं थीं।शरीर सुन्न हो गया था।ऐसी हालत में भी अपने पोते-पोती को जकड़ कर पकड़ रखा था उन्होंने। नर्स ने कहा आधे घंटे में अगर सुधार नहीं हुआ तो, हॉस्पिटल लेकर चलेंगे।दोनों बच्चे कुशलता के साथ दादी की देखभाल में लगे हुए थे।शिखा ने पॉट में यूरिन भी करवा लिया दादी का।लगभग घंटे भर बाद उनकी चेतना सामान्य हुई।सभी को पहचान भी रहीं थीं। नर्स का भी धन्यवाद किया उन्होंने।

नर्स ने स्वाति से कहा”भाभी,आज के जमाने में बहुत सी औलाद अपने मां-बाप को लेकर इतने गंभीर नहीं होते,जितने ये पोते-पोती हैं।यह आपकी परवरिश का फल है।आपकी सेवा को उन्होंने भी अपना धर्म मान लिया है।”

स्वाति ने नर्स से कहा”हां कविता,बात यही बड़ी है कि मेरे बच्चे ये कर रहें हैं। जिम्मेदारी तो पहले मेरी है।उनके बेटे के जाने के बाद मैं ही तो सब कुछ हूं उनके लिए।मगर मैंने उनकी सेवा करके कोई बड़ा काम नहीं किया,ये तो उनके पुण्य प्रताप हैं।मैं जो कर रही हूं,मेरे बच्चे भी उसी का अनुसरण कर रहें हैं।अपनी -अपनी करनी से ही पार उतरनी होती है भव सागर की नैया। स्वर्ग और नर्क इसी दुनिया में मिलता है।यह तो मां के अच्छे कर्म हैं,जो उन्हें अपनी औलाद के औलाद से सुख मिल रहा है।उनके जीवन का स्वर्ग देखकर मुझे भी उतना ही सुख मिलता है।दादी ने बचपन में जिन पोते-पोती की जी भरकर सेवा की,आज उन्हें उसी का फल मिल रहा है।

हमारे लिए यही सबसे बड़ी दीवाली है कि,वो स्वस्थ हो गईं।”

बेटी ने स्वाति की तरफ निराशा से देखा तो उसने सिर पर हांथ फेरकर कहा”दादी की जिंदगी में सांसों का दीप जलाकर मना तो ली हमने दीवाली।साड़ी कल पहन लूंगी पक्का।”

शुभ्रा बैनर्जी 

लघुकथा-अपनी करनी पार उतरनी

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