पचहत्तर वर्षीय रामप्रसाद जी के जीवन का हर दिन एक संघर्ष बन गया था। उनकी उम्र और हालत दोनों ही उनके खिलाफ थे। उनकी पत्नी का देहांत हुए कई साल हो चुके थे, और तब से वे अकेले अपने जीवन की गाड़ी खींच रहे थे। उनके घर के छोटे-मोटे कामों में रघुआ उनकी मदद करता था, लेकिन भोजन की व्यवस्था उनके लिए सबसे बड़ी परेशानी थी।
आखिरकार, कितने दिन कोई सूखा चूड़ा-सत्तू खा सकता था? कभी-कभी पड़ोस के लोग या रिश्तेदार उन्हें खाना भेज देते, लेकिन यह मदद नियमित नहीं थी।
विनोद, जो उनके चचेरे भाई का बेटा था, ने हमेशा रामप्रसाद जी को अपने पिता जैसा मान-सम्मान दिया था। कुछ दिन पहले वह उन्हें अपने घर ले जाने आया था, ताकि रामप्रसाद जी आराम से रह सकें। लेकिन रामप्रसाद जी ने उसके साथ जाने से मना कर दिया था।
आज रघुआ ने उनसे पूछा, “चाचा, विनोद भैया लेने आए थे, फिर क्यों नहीं गए उनके साथ? वह तो आपको बहुत मानते हैं।”
रामप्रसाद जी की आंखों में हल्की उदासी छा गई। उन्होंने रघुआ की ओर देखा, लेकिन जवाब नहीं दिया।
रघुआ ने फिर से कहा, “चाचा, अकेले इस उम्र में रहना मुश्किल है। विनोद भैया आपको अपना पिता मानते हैं। उनका घर आपके लिए हमेशा खुला है। फिर आपने क्यों मना कर दिया?”
रामप्रसाद जी ने लंबी सांस लेते हुए कहा, “बेटा, अपने बेटे ने तो विदेश जाकर हमें छोड़ दिया। अब दूसरों से सेवा करवाना मेरे स्वाभिमान को चोट पहुंचाएगा।”
रघुआ ने उनकी बात पर ध्यान दिया, लेकिन उसकी समझ में नहीं आया कि वे विनोद के घर जाने से क्यों इनकार कर रहे हैं। उसने थोड़ा झिझकते हुए पूछा, “चाचा, विनोद भैया और अमन भैया तो बचपन से सगे भाइयों की तरह रहे। ऐसा क्या हो गया कि आप उनसे दूरी बना रहे हैं?”
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रामप्रसाद जी ने कुछ पल खामोशी साधी। उनकी आंखें अतीत की यादों में खो गईं। उन्होंने धीरे-धीरे कहा, “विनोद ने तो कभी कोई फर्क नहीं किया। लेकिन उसकी पत्नी…”
वे चुप हो गए। रघुआ ने उत्सुकता से पूछा, “क्या हुआ था, चाचा?”
रामप्रसाद जी ने कहा, “यह तब की बात है, जब विनोद और उसकी पत्नी मेरे पास आए थे। एक दिन, किसी साधारण बात पर नाराज होकर उसने कहा था, ‘आपके बेटे-बहू तो विदेश में रहते हैं, हम ही लोग आपका उद्धार करेंगे।’ ये शब्द उसके मुंह से ऐसे निकले, जैसे उसने मुझ पर कोई एहसान किया हो। उस दिन मैंने महसूस किया कि भले ही विनोद मेरे साथ कितना भी अच्छा व्यवहार करे, उसकी पत्नी मुझे बोझ समझती है।”
रघुआ ने बात समझ ली थी। उसने धीरे से कहा, “चाचा, यह तो क्षणिक आवेश में कही गई बात होगी। इस उम्र में ऐसी बातों को दिल से नहीं लगाना चाहिए। आपको विनोद भैया के साथ जाना चाहिए। यह न अभिमान है, न स्वाभिमान। यह तो बस मन का भ्रम है।”
रामप्रसाद जी ने गंभीरता से कहा, “नहीं रघुआ, यह स्वाभिमान है। किसी की दया पर जीने से बेहतर है कि मैं अकेले ही अपनी जिंदगी काट लूं।”
इस बातचीत के कुछ दिन बाद, विनोद एक बार फिर रामप्रसाद जी से मिलने आया। उसने बड़े आदर से कहा, “चाचा, आप मेरे लिए मेरे पिता समान हैं। अगर मेरे घर में आपकी सेवा करने में कोई कमी रह गई, तो मुझे माफ कर दीजिए। लेकिन कृपया मेरे साथ चलिए। मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए।”
रामप्रसाद जी ने विनोद की बात को सुना, लेकिन उनका मन अब भी असमंजस में था। उन्होंने विनोद से कहा, “बेटा, तुम्हारी बातों पर मुझे कभी शक नहीं हुआ। लेकिन मैं अब किसी पर बोझ नहीं बनना चाहता।”
विनोद की आंखों में आंसू आ गए। उसने कहा, “चाचा, यह बोझ नहीं है। यह मेरा कर्तव्य है। जैसे आपने मुझे बचपन में सिखाया कि बड़े बुजुर्गों की सेवा करना हमारा धर्म है, वैसे ही आज मैं आपकी सेवा करना चाहता हूं।”
विनोद के इस आग्रह के बावजूद, रामप्रसाद जी का मन अपने स्वाभिमान और समाज के भय के बीच झूलता रहा। उन्हें लगता था कि अगर वे विनोद के घर चले गए, तो लोग कहेंगे कि उन्हें अपने बेटे से भी सहारा नहीं मिला और अब वे अपने चचेरे भाई के बेटे के घर रह रहे हैं।
रघुआ ने उन्हें समझाते हुए कहा, “चाचा, समाज हमेशा कुछ न कुछ कहेगा। लेकिन आपकी खुशी और आराम सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। आप विनोद भैया के साथ जाकर अपना जीवन शांति से बिताइए।”
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कई दिनों की सोच-विचार के बाद, रामप्रसाद जी ने विनोद के घर जाने का फैसला किया। उन्होंने रघुआ से कहा, “शायद मैं गलत था। विनोद और उसकी पत्नी मेरी सेवा करना चाहते हैं, और यह उनकी इच्छा है। अगर मैं उनके साथ रहूंगा, तो यह स्वाभिमान का त्याग नहीं, बल्कि उनका मान बढ़ाना होगा।”
विनोद और उसकी पत्नी ने रामप्रसाद जी का अपने घर में बड़े प्रेम और सम्मान के साथ स्वागत किया। उनकी सेवा में कोई कमी नहीं छोड़ी। रामप्रसाद जी ने महसूस किया कि उनका निर्णय सही था।
उन्होंने विनोद से कहा, “बेटा, तुमने मेरी सारी भ्रांतियां दूर कर दीं। मैं अब समझता हूं कि स्वाभिमान और अभिमान के बीच का फर्क क्या होता है।”
दोस्तों उम्र के इस पड़ाव पर बुजुर्गों को सबसे ज्यादा जरूरत प्यार, सम्मान और देखभाल की होती है। स्वाभिमान जरूरी है, लेकिन इसे गलतफहमी और अहंकार में बदलने से बचना चाहिए।
विनोद और उसकी पत्नी ने यह साबित कर दिया कि रिश्तों में सच्चा प्रेम और कर्तव्य ही सबसे महत्वपूर्ण है। वहीं, रामप्रसाद जी का यह निर्णय उनके जीवन को नई दिशा और शांति देने वाला बना।
मूल रचना : पुष्पा पाण्डेय