सुख दुख का संगम – गीता वाधवानी  : Moral Stories in Hindi

आज राधिका आदित्य के साथ ब्याह करअपनी ससुराल आ गई थी।वह एक संयुक्त परिवार से थी और उसका विवाह भी एक बहुत बड़े परिवार में हुआ था। 

विवाह के कुछ समय उपरांत ही उसे एहसास हुआ कि उसकी ससुराल में बहुत सारे लोग हैं लेकिन उन में आपस में कोई प्यार नहीं है। 

उन लोगों में आपस में बहुत ईर्ष्या थी।राधिका नई बहू थी तो उसके साथ किसी भी व्यक्ति को त्योहार मनाने का कोई उत्साह नहीं था। 

किसी का मुंह पूर्व में रहता था तो किसी का पश्चिम में,सब एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते थे ।शुरू में राधिका बेहद खुश थी क्योंकि वह संयुक्त परिवार से थी और उसे संयुक्त परिवार में रहना ही अच्छा लगता था और संयुक्त परिवार के कितने सुख हैं वह अच्छी तरह जानती थीऔर संयुक्त परिवार में जब किसी के ऊपर कोई कष्ट या दुख आता है तो वह सब के साथ मिलकर कैसे बीत जाता है पता भी नहीं लगता। 

लेकिन धीरे-धीरे ससुराल वालों का हाल देखकर उसकी सारी खुशी काफूर हो गई।उसे मायके का हर पल ,हर त्यौहार  हर सुख दुख का संगम रह रहकर याद आता था। 

उसे याद आ रहा था कि एक बार मायके में जब उसकी चाची जी बहुत बीमार हो गई थी तो कैसे सब ने मिलकर उनको हिम्मत बधांई थी और उनकी सेवा करके उन्हें तीन दिन में ही भला चंगा कर दिया था।और राधिका की मां एक बार जब अपने छोटे बेटे के साथ कर्फ्यू लग जाने के कारण मायके से समय पर वापस नहीं आ पाई थी तब उनकी अनुपस्थिति में सब ने मिलकर कैसे राधिका और उसकी बहन को संभाल लिया था।

सब लोग मिलकर हंसी खुशी होली दिवाली ,रक्षाबंधन त्यौहार मनाते थे।दादा दादी,चाचा चाची,और मम्मी पापा सब लोग बारी-बारी से घूमने जाते थे।किसी को ऐसा नहीं लगता था कि हम घूमने नहीं जा पाए और फिर घर की सुरक्षा भी हो जाती थी। एक परिवार जब घूमने जाता था तो उसे पीछे की चिंता नहीं होती थी।एकल परिवार में जाने से पहले कितना कुछ संभालना पड़ता है। 

राधिका को याद आ रहा था कि एक बार चाचा जी गुस्से में नौकरी छोड़कर आ गए थे,तब पूरे 6 महीने तक दादाजी और पापा ने उनके घर का खर्चा हंसते-हंसते उठाया था क्योंकि उन्हें पता था कि चाचा जी का गुस्सा गलत नहीं है।इसी तरह राधिका की शादी में चाचा जी ने दिल खोलकर खर्च किया। 

और यहां ससुराल में,यहां की तो बात ही मत पूछो,राधिका की जेठानी बस कहने भर के लिएएक मकान में रहती थी।राधिका से उसने शादी के दूसरे दिन ही कह दिया थाअपना खर्चा और घर खुद संभालो ,हमारे बस की नहीं है।और यहां तक की एक बार राधिका को 104 डिग्री बुखार होने पर भीउन्होंने राधिका की कोई देखभाल नहीं कीऔर ना ही उसे डॉक्टर के पास ले गई।पति के आउट ऑफ स्टेशन होने के कारणराधिका को खुद ही रिक्शा में डॉक्टर के पास जाना पड़ा।राधिका की सास भी कुछ काम नहीं थीराधिका की तबीयत खराब होने पर जब वहकिसी दिन देर से उठती थी,तो वह कहती थी किउठ राधिका सोने से क्या होगा,उठ जा,मैंने अभी तक चाय नहीं पी है,खुद भी चाय पी  और मुझे भी पिला दे। 

और त्योहार,उसकी तो बात ही मत पूछिए,सासू मां कोसारे कायदे कानून पूरे करने होते थे,बस यही त्यौहार मनाने का तरीका था,ना कोई खुशी ना उत्साह। 

राधिका को लगने लगा था किइतने बड़े परिवार का क्या फायदा,जब कोई किसी का साथ नहीं देताऔर त्योहार पर भी लड़ाई होती है। 

राधिका हर पल ,हर घड़ीअपने मायके केखुशियों से भरेमाहौल कोयाद करती थीऔर ससुराल में भीवैसा ही माहौल बनाने की कोशिश करती थी,लेकिन बरसों बाद भीकोई फर्क नहीं पड़ा।धीरे-धीरे उसने कोशिश करना छोड़ दियाऔर अपने पति और बच्चों के साथहंसी खुशी रहने लगी।देर से ही सही ,वह समझ चुकी थी किवह इन लोगों को बदल नहीं पाएगी और फिर उसी को बदला जा सकता है जो सचमुच अपने अंदरबदलाव लाना चाहता हो। 

स्वरचित अप्रकाशित गीता वाधवानी दिल्ली

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