जगदीश को देखते ही पिता ने सवाल किया-
“अरे जगदीश आ गये? कहो समाचार। बात कुछ बनी?”
” बात तो बन जायेगी। शुक्ला मौसा लड़का के दोस्त हैं। दोनों बनारस में एक साथ पढ़ते थे।”
शुक्ला मौसा जगदीश की मौसी के देवर हैं। लड़का जमींदार घराने का था। सुन्दर, संस्कारी और शहर में वकील था।
जगदीश अपनी छोटी बहन आभा के लिए लड़का देख रहे थे। उस लड़के में एक ही कमी थी, वो विधुर था। एक तीन साल की बच्ची भी थी।
उम्र में आठ साल का फासला था। यदि उसकी ये कमी नहीं होती तो जगदीश उसके दरवाजे पर पैर रखने के भी काबिल नहीं थे।
जगदीश जैसे तो उनके यहाँ नौकर थे, लेकिन हाँ जगदीश गरीब भले थे पर खंदानी लोग थे। फिर लड़की को सुन्दर, समझदार और सुशील होने का प्रमाण शुक्ला जी दे ही चुके थे।
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तीन कपड़ों में आभा बिदा हो गयी। चुलबुली, उन्मुक्त विचारों की चिड़िया सोने के पिजरे में कैद हो गयी।
महीना भर तो लगभग सबकुछ ठीक था,लेकिन इसके बाद सास ने तीन साल की बच्ची को उसकी गोद में डाल दिया।
” बहू, अब से इसकी परवरिश की जिम्मेवारी तुम्हारी है। अब तुम इसे अपना समझकर पालो या सौतेली, ये तुम जानो।”
आभा के पति पास के शहर में वकील थे। माता- पिता नहीं चाहते थे कि वो वकालत करने शहर जाए, लेकिन आदर्श वादी नीरज अदालतों में अन्याय के खिलाफ गरीबों का केस लड़ता रहा।
शनिवार को आते थे और सोमवार को सुबह ही चले जाते थे। फ्राॅक पहन खेतों में सहेलियों के साथ घूमने वाली आभा
आज अचानक एक बच्चे की माँ बन गयी साथ ही तेरह सदस्यों का भोजन भी बनाने की जिम्मेवारी आ गयी। एक जेठानी और एक देवरानी थी।
दोनों घनाढ्य परिवार की बेटी थी।अपने मायके से गहनों से लदी आई हुई थीं, वहाँ आभा एक पायल और एक झुमके में आई थी। ससुर जी कभी कह भी देते थे कि तुमलोग भी थोड़ी उसकी मदद करो। सामने तो नहीं जाने के बाद बोलती थीं-
” गरीब घर की है, उसे काम करने की आदत है।”
सासू माँ भी कभी क्रोधित होती थी तो यही कहती थी-
” भिखार घर की भिखारन क्या जाने बड़े घर के तौर-तरीके?”
आभा की आत्मा लहू- लूहान हो जाती थी, लेकिन वह कुछ बोल नहीं पाती थी।
वैसे काम में मदद के लिए दो- दो नौकरानी थी, लेकिन कच्ची रसोई तो आभा को ही बनानी थी।
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एक दिन आभा ने अपने पति से हिम्मत करके कहा-
” मुझे भी अपने साथ वहीं ले चलिए न। गुड़िया भी शहर के स्कूल में पढ़ेगी।”
” मैं तुमलोगों को ये सुख- सुविधा शहर में नहीं दे सकता। घर में दो- दो गाय है, सभी मौसम के फल-सब्जियाँ है। इतना बड़ा घर है। ये शहर में नहीं मिल पायेगा।”
” मेरा शहर में नाम है, पैसा नहीं। हम गरीब और लाचार के वकील हैं। सच की लड़ाई लड़ता हूँ। उस पैसे से सिर्फ पेट ही भर सकता है।”
” उतना काफी है।”
आभा पति से खुलकर कह तो नहीं पाई,लेकिन मन- ही-मन में बुदबुदायी- सोने के पिंजरे से अच्छा तो झोपड़ी में रहना है जहाँ हम आत्मसम्मान के साथ रह तो सकते हैं।
स्वरचित
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।