पुरानी संदूकची की धूल चाटती कुंडी खुली। अंदर, समय के क्षय से बचे कागज़ों की सुगंध थी – पुरानी मासूमियत और स्याही की मद्धिम खुशबू। रितिका ने हाथ बढ़ाया। उंगलियां एक मोटे फाइल के ऊपर ठहरीं, जिस पर उसकी बचपन की टेढ़ी-मेढ़ी लिखावट में लिखा था – “मेरी जीतें”। इसे खोलना… स्मृतियों की एक माला को टटोलने जैसा था, जहां हर मनका चुभता था, पर पकड़े रखने को मन करता था।
सबसे ऊपर पड़ा एक फीका सा सर्टिफिकेट – “नन्ही रितिका, प्रथम कक्षा, सांस्कृतिक प्रतियोगिता, प्रथम पुरस्कार”। इसके नीचे पिताजी का लिखा वो छोटा सा नोट था, जो हमेशा सर्टिफिकेट के पीछे चिपका रहता: “मेरी चांदनी की पहली चमक। संभालकर रखना।” पापा… जो माह में सिर्फ एक बार, दूर शहर की नौकरी से थके-हारे, घर आते। पर जिस दिन आते, उनकी आंखों में वही चमक होती, जो रितिका के जन्म के दिन रही होगी। बताती थी मां – “तुम्हें देखकर वो फूले नहीं समाते थे बेटा। कहते थे, मेरी सूरत तो इसी ने चुरा ली है!”
एक-एक करके निकलने लगीं यादों की परतें। स्कूल की वार्षिक पत्रिका में छपी उसकी पहली कविता। कॉलेज मैगज़ीन का वह अंक, जहां उसका लेख ‘मेरे पिता: मेरा अनकहा प्रेम’ प्रकाशित हुआ था। हर कागज को पापा ने सावधानी से लिफाफों में रखा, ऊपर तारीख और एक छोटी सी टिप्पणी लिखी। ये उनके लिए सिर्फ कागज नहीं थे; ये उस बेटी की बढ़ती परछाईयां थीं, जिस पर उन्हें असीम गर्व था, पर जिसे वे कभी शब्दों में नहीं ढालते थे। उनका प्यार चुपचाप कागजों को संभालने में, दूर से आकर उसके सिर पर हाथ फेरने में, उसकी कॉपियों की मार्कशीट पर लंबी नज़र डालने में बसता था।
फिर वह मोटा कागज नज़र आया – उसकी बी.एड. की डिग्री। इससे जुड़ी याद ने सांसें रोक दीं। डिग्री मिलने के बाद कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ. श्रीवास्तव ने पापा को बुलाया था। रितिका आज भी उस क्षण को जी सकती थी। डॉ. श्रीवास्तव ने पापा की ओर देखा, उन आंखों में जो हमेशा थकान से डूबी रहतीं, पर उस दिन एक अलग ही चमक थी।
“श्री वर्मा जी,” प्रिंसिपल ने मृदु स्वर में कहा, “आप वाकई बहुत भाग्यशाली हैं। रितिका जैसी मेधावी, संस्कारवान और प्रतिभाशाली बेटी मिलना… यह किसी पुण्य का फल है। कॉलेज में उसकी छाप अमिट है।”
एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। रितिका ने पापा की ओर देखा। उनके चेहरे पर भावों का तूफान उठा। वे जो कभी अपनी भावनाओं को शब्द नहीं दे पाते थे, उस पल उनकी आंखें बोल उठीं। पारदर्शी आंसुओं की झिलमिलाहट ने उनकी आंखों को चमका दिया, जैसे बरसात की पहली बूंदें सूखी धरती को चमका देती हैं। उनके होंठ कांपे। फिर, अचानक, उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए। सिर झुकाकर, गले में एक गांठ के साथ, उन्होंने प्रिंसिपल की ओर देखा।
“धन्यवाद, मैडम,” उनका स्वर भारी था, भावनाओं से सराबोर, “बस… इसके लिए… ईश्वर का शुक्रिया।” उस ‘इस’ में उनकी बेटी का पूरा अस्तित्व समाया हुआ था – उसका जन्म, उसकी हर उपलब्धि, उसका वह अस्तित्व जो उनके लिए संसार से बड़ा था।
वह दृश्य रितिका के मन पर अंकित हो गया था – पापा की झिलमिलाती आंखें, जुड़े हुए हाथ, कृतज्ञता से भरा वह क्षण। यह उनका अपनी बेटी के प्रति प्रेम का सबसे ऊंचा, सबसे मार्मिक प्रदर्शन था। उनके हृदय का वह अकथित गर्व, जो सालों से चुपचाप जल रहा था, उस एक पल में प्रज्वलित होकर सबके सामने आ गया था।
सिर्फ दो साल।
संदूकची की गहराई में अब वह कागज दिखा – एक सादा, सफेद पेपर। मृत्यु प्रमाण पत्र। जिस तारीख ने सारी यादों को एक दुखद अंत की ओर मोड़ दिया। पापा की असामयिक विदाई। वह चुप गर्व, वह अनकहा प्यार, वह मासिक एक बार की प्रतीक्षा… सब धुंधलाकर रह गए।
रितिका ने ‘मेरी जीतें’ वाली फाइल को छाती से लगा लिया। कागजों की खुरदरी सतह उसकी आंसुओं को सोखने लगी। इन सर्टिफिकेटों, इन लेखों, इन पुरानी मैगज़ीनों में पापा की सांसें बसी थीं। उनका वह आखिरी कृतज्ञ भाव, उनकी चमकती आंखें… यही उनकी विरासत थी।
स्मृतियों की यह माला अब कुछ ज्यादा ही भारी लग रही थी। हर मनका – एक उपलब्धि, एक पापा की मुस्कान, एक दूर बैठे का गर्व, एक जुड़े हाथों वाला धन्यवाद – अब एक अनुपस्थिति का साक्षी था। पर इस भार में ही एक सुखद ऊष्मा भी थी। क्योंकि ये कागज सिर्फ उसकी जीत के प्रमाण नहीं थे। ये उस पिता के अटूट, अनकहे प्रेम के साक्षी थे, जिसकी चुप्पी में हजारों अहसास बसे थे, और जिसका आखिरी आभार ही उस प्रेम का सबसे ऊंचा स्वर था। रितिका जानती थी, जब तक ये स्मृतियां उसकी धड़कनों में रची-बसी हैं, पापा का प्रतिबिंब उसके भीतर जीवित रहेगा। स्मृतियों की यह माला, हर मनका चुभता हुआ, फिर भी उसकी सबसे अनमोल धरोहर थी।
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा (पालमपुर)
हिमाचल प्रदेश