गाँव के एक कोने में एक पुराना, टूटा-फूटा मकान खड़ा था, जिसकी दीवारें झड़ रही थीं और छत से पानी टपकता था। लोग उसे बुढ़िया का घर कहकर बुलाते थे। उस घर में रहने वाली बुजुर्ग महिला, सावित्री देवी, अकेली थीं। उनका बेटा और बहू शहर जाकर बस चुके थे, और अब साल में कभी-कभी ही आते थे।
एक दिन गाँव में तेज़ तूफ़ान आया। कई घरों को नुक़सान हुआ, और सावित्री देवी का घर पूरी तरह से टूट गया। लोगों ने सोचा कि अब तो वह शहर चली जाएंगी। पर अगली सुबह जब सूरज की पहली किरण पड़ी, तो देखा कि सावित्री देवी वहीं आँगन में बैठी तुलसी को पानी दे रही थीं।
गाँव के कुछ लोग उनके पास पहुँचे और पूछा, माई, अब तो घर ही नहीं रहा, कहाँ रहोगी आप?
सावित्री मुस्कराई और बोलीं-बेटा, घर दीवारों से नहीं, अपनेपन से बनता है। जब तक यादें, रिश्ते और अपनापन हैं, तब तक घर है। यह आँगन ही मेरी दुनिया है।
उसकी बातें सुनकर गाँव की पंद्रह वर्षीय स्नेहा के मन में कुछ खटकने लगा। वह रोज़ देखती थी कि कैसे सावित्री देवी खुद खाना बनाती हैं, अपने पुराने फोटो एलबम से बात करती हैं, और मंदिर में दीया जलाना नहीं भूलतीं।
स्नेहा ने अपने माता-पिता से बात की, और कुछ ही दिनों में सावित्री देवी को अपने घर बुला लिया। अब वह उनके साथ रहती थीं । जैसे एक दादी पोती के साथ रहती है। धीरे-धीरे, गाँव के और भी बच्चे उनसे कहानियाँ सुनने लगे, महिलाएँ उनसे पुरानी परंपराएँ सीखने लगीं, और सावित्री देवी फिर से अकेली नहीं रहीं।
एक दिन शहर से उनका बेटा आया। वह बड़ा आश्चर्यचकित था ,माँ का टूटा घर तो मिट चुका था, पर उनका रिश्ता, उनका सम्मान और प्यार अब और भी गहरा हो गया था।
उसी शाम, गाँव के चौपाल में एक छोटा-सा आयोजन हुआ। स्नेहा ने सबके सामने कहा, हमने एक बात सीखी है — “घर दीवार से नहीं, परिवार से बनता है।” और परिवार केवल खून के रिश्ते नहीं होते, वे होते हैं जो आपको अपनाते हैं, आपकी परवाह करते हैं।
सावित्री देवी की आँखें भर आईं, और मुस्कान उनकी आत्मा की चमक बन चुकी थी।क्योंकि-
एक मकान केवल ईंट, सीमेंट और छत से नहीं बनता। वह केवल तब ‘घर’ कहलाता है, जब उसमें रिश्तों की गर्माहट, अपनत्व की खुशबू और साथ निभाने वाले लोग होते हैं। दीवारें तो वक्त के साथ ढह जाती हैं, पर जो दिलों में बसे, वही सच्चा घर होता है।
प्रतिमा पाठक
दिल्ली
घर दीवार से नही परिवार से बनता है ।