Moral Stories in Hindi : – बहुत मुश्किल से आज रविवार को फुरसत मिली है। सुबह सुबह नाश्ते के समय ही माँ ने हिदायत दे दी थी कि, आज मुझे घर पर ही रहना है। शाम को कहीं चलना है, कहाँ जाना है, ये नहीं बताया।
खैर, आज मैं भी आराम करने के मूड में था। काम की अधिकता व ऑफिस की व्यस्तता की वजह से, समय नहीं दे पा रहा था। न खुद को न माँ को।
टीवी पर क्रिकेट मैच चल रहा था। देखते देखते ही कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला। और मैं वहीं, सोफे में ही सो गया। नींद तब खुली, जब माँ ने झकझोर कर जगाया।
चाय की प्याली थमाते बोली-‘जाओ तैयार हो जाओ।’
मैंने पूछना चाहा मगर इसका कोई फायदा नहीं था। इसलिए चुपचाप तैयार हो जाने में ही मैंने अपनी भलाई समझी।
अपने रूम में ही था कि, कोई परिचित सी आवाज़ सुनाई दी।
मैं तैयार होकर निकला तो सामने नैना को साड़ी में पाकर, अचंभा से देखता रह गया। उसका अद्भुत सौंदर्य देखकर मैं किंचित विस्मित था। फिर भी मन्त्रमुग्ध सा उसे देखते रहा।
हल्की नीली साड़ी पर लाल पीले रंग के रेशमी धागों की कसीदाकारी। जहाँ तहाँ छिटपुट लगे सितारे, मानो चाँदनी की छटा बिखेर रहे हैं। जैसे जी भर बरसने के उपरांत आसमान धुलकर स्वच्छ अपने स्वभाविक नीले रंग में बिहँस रहा हो। इंद्रधनुष के वलय पर चाँद सितारों के साथ, अठखेलियाँ करता। चाँदनी के हाथ थामे हौले हौले धरा पर उतर रहा हो।
करीने से बाँधा गया जूड़ा और जुड़े में बड़ी नफ़ासत से खोसे गये सफेद फूल। जिसकी भीनी खुशबू से मन की उदासी कहीं लुप्त हो गयी। सफेद फूल पर हल्की केसरी धारियाँ, ऐसी प्रतीत हो रही थीं, मानो हड़बड़ी में तितलियों के उड़ते परों से, पराग छिटककर कर कोई रेखा खींच गयी है। किंचित, किसी अदृश्य नेह पथ की सांकेतिक लिपि, जैसे।
इससे पहले कभी भी नैना को इस रूप में नहीं देखा था। अधिकत्तर उसे जीन्स टॉप या ऑफिस के फॉर्मल लुक में ही देखा हूँ। बहुत हुआ तो कभी कभार सलवार कुर्ते में, बिना किसी मेकअप के। हरदम खुले रहने वाले आवारा बादलों जैसे भूरे उसके केश, कभी कभी क्लचर या रबर बैंड से बड़े बेरुखी में लपेटे गये होते।
उसके भावहीन सपाट चेहरे पर आज एक लज्जामिश्रित भाव था। सहज साँझ की लालिमा युक्त उसके कपोल, झूलती लटों में खुद को छुपाने को आतुर। मानो रात की बाँहो में सिमटती हुई कोई नवविवाहिता। मिलन की बेला में अति विह्वलता से डूबते-उतराते अपने कोमल भावों को छुपा सकने में असमर्थ हो जाने पर, सारे भावों को मिश्रित स्निग्धता की लेप में, अपने चेहरे पर मल लिया है।
मैं और नैना दोनों अपने-अपने दर्द के साथ जी रहे थे। वैसे तो हमदोनों का रिश्ता विशुद्ध प्रोफेशनल है। लेकिन हम काम के दौरान घंटो साथ गुजारते हैं। एक दूसरे भाव आभाव का खयाल भी रखते हैं। वो तलाकशुदा है, और मैं, एक दर्द भरे उपेक्षित रिश्ते की तड़प से घायल, और अब मुक्त।
तभी माँ को अपनी ओर ताकते देखकर, मैं अपनी झेंप मिटाने के लिए हँसने लगा। हँसते हुए ही कहा-
‘आज तो नौवां अजूबा देख रहा हूँ। नैना और साड़ी में, मैं तो पहचान ही नहीं पाया। वैसे बहुत सुंदर लग रही हो। तुम्हें पहली बार इस परिधान में देख रहा हूँ। कहीं जा रही हो ?’
तभी अचानक ध्यान आया कि, ये तो माँ की साड़ी है।
शायद, माँ की अनुभवी आँखें ताड़ गयीं। मेरे मन में चल रहे उथल पुथल को भापकर, वह बहुत गम्भीरता से बोलीं-
‘नैना तुम्हारे साथ जा रही है। और इस मौके पर मैं अपनी साड़ी में अपने सपने को सजाकर, तुम्हें सौप रही हूँ। इसके सम्मान व इसकी इच्छाओं का मान रखना।’
माँ के कहे का अर्थ न समझ पाने से, मैं भारी असमंजस में था।
माँ, वापस नैना से मुखातिब होकर कहने लगीं-
‘तुम्हें, पता है नैना ! साड़ी मात्र एक परिधान नहीं है। यह एक सुव्यवस्थित, सुसंस्कृत सभ्य संस्कृति की परंपरा है। मधुरिम प्रीत का संस्कार है। ममता की छाँव है। तो किसी के सपनों में साकार होता उदयीमान नूतन संसार है। किसी के अंतस में उर्वरित होता प्रेम का अंकुरण है। कहीं सुदूर तागते किसी बुनकर की नेह है।
जो बड़े लगन से एक-एक धागे में पिरोकर बुनता है, कोई अदृश्य सपना। वहीं कोई कसीदाकार अपने अनगिनत भावों के जाल में उकेरता है। अपने अनुभवों की मनोहर फूल पत्तियाँ। सुई की तीखी नोक से कोमल मन के अनछुए एहसास में यूँ टाँक जाता है संभावनाओं के असँख्य सूरज चाँद सितारे। वहीं कोई रंगरेज रंगता है, अपने असीम दुआओं में भीगो कर सतरँगी ख़्वाब। तो कोई दे जाता है, उपहार स्वरूप आँचल भर आशीर्वाद, सुनहरे भविष्य की गाँठ लगाकर।’
माँ की इस अद्भुत व्याख्या को सुन हम दोनों ही खिलखिलाकर हँसने लगे। हमें इस तरह हँसता देख माँ ने हमदोनों का हाथ अपने हाथ में लेकर नैना से बड़े मनुहार भाव से पूछा-‘नैना, क्या तुम मेरी बहू बनोगी?’ फिर मेरी तरफ देखकर बोलीं-‘क्या, तुम थामोगे मेरी इस बेटी का हाथ?’
माँ के इस अप्रत्याशित व्यवहार पर मैं अवाक था। और नैना……वह भी तो कुछ बोल नहीं पायी। मगर ख़ुशी के अतिरेक में भावुक होकर, माँ के गले लगकर रोने लगी।
उसकी भींगी आँखों में मुझे आस तथा संशय दोनों दृष्टिगत हुए। वह बहुत उम्मीद से मेरी प्रतिक्रिया जानने को आतुर अधमुँदी आँखों से मुझे निहारे जा रही थी।
मैंने मुस्कुराकर उसकी उम्मीदों को संबल देते हुए माँ के दूसरे कंधे पर अपना सर रख दिया।और अपनी बाँहों में दोनों को जकड़ लिया। सच ही तो कह रही है माँ, साड़ी मात्र एक परिधान नहीं है।
आज किसी की ममता ने किसी को, अपने वात्सल्य की ताग में लपेटकर एक साथ बाँध दिया। जीवन भर के अटूट बंधन में , तो वहीं किसी ने अपनी प्रीत से बाँध लिया। संशय, और वेदना के थपेड़े खाकर सूख कर मृत होते मन के समन्दर को।
प्रतिमा त्रिपाठी
राँची झारखंड