संतुष्ट – कंचन श्रीवास्तव आरज़ू : Moral Stories in Hindi

अचानक आये फोन ने रोहन को चौका दिया कही कुछ फिर हुआ क्या क्योंकि बरस भर पहले उसने फोन किया था और आज पापा की ………. ।भूल गए क्या नहीं नहीं मां भला मैं कैसे भूल सकता हूँ आता हूं दरसल आना जरूरी था इसलिए आया कहकर फोन तो काट दिया पर साल भर पहले की घटना उसके आंखों के सामने घूमने लगी

उसे अच्छे से याद है कि अम्मा कभी फोन नही करती उनका कहना है कि हम डिस्टर्ब हो जायेगे लिहाजा हमारे लिलार पर वो टीका लगा कर भेजती  जो कि  हमारा सुरक्षा कवच होता  फिर वो सकुशल आने की शाम तक प्रतिक्षा करती ।

एक बात तो है हमारी अम्मा  पढ़ी तो नही है पर कहते है ना परिस्थितियों ने उसे गढ़ा खूब है वो हम सब से ज्यादा समझदार है।अरे उसी की बदौलत तो हम सब पढ़ लिख गए वरना बाबू जी को कहां पढ़ाई का शौक था।वो तो बस मजे करते थे। तनख्वाह आये तो गांव भाग जाते

  और  खतम होते होते  फिर आ जाते।एक तरह से कह लीजिए कि गैर जिम्मेदार इंसान थे उनको बाल बच्चों की कोई चिंता न रहती  तभी तो अम्मा परेशान रहती  कैसे कैसे करके महीने का खर्च निकालती वो तो बड़े भैया के बड़े होने के बाद से स्थितियां थोड़ी सुधरी  जब वो हाथ पैर मारने लगे।

अरे थोड़ा क्या  बहुत कुछ या ये कह लो कि पूरा ही संभाल लिया तभी तो अब जाके अम्मा के चेहरे पर फिक्र का गहरा बादल  छटा ।

पर कहते है ना कि जिसके नसीब में सुख लिखा  होता मुसिबत किसी ने किसी रूप आ ही जाती है।

बस वही हुआ।हम सब तो सुबह सबेरे ही  काम से  बाहर निकल गए अम्मा बाऊ जी अकेले रह गए।

अह अम्मा  रसोई बनाने चली गई और बाऊ जी मुखारी करने दुलार पर चले गए।अभी कल ही तो आये है गांव से।और जब वो आये तो दलान भर जाती  सच कहूं तो बाबू जी जब नही रहते तो घर काट खाने को दौड़ता वो रहते 

तो कुछ ना कुछ शोर गुल करते  रहते पर आज वो मुखारी करके पलट ही रहे थे कि उनका पैर आंगन में रखे हवाई चप्पल में फंस गया और न वो फिसल गए अब जब फिसले  तो अम्मा से तो उठने ना  रहे और आस पास कोई दिखा भी नही तो उन्होंने हमें ही फोन लगाया।

काहे से कि हमारा ही स्कूल सबसे नज़दीक था वो ऐसे कि वही से कोई एक किलो मीटर की दूरी पर वही हम अध्यापक है और जब हमने फोन देखा तो नाम अम्मा का आ रहा था।फिर का हमारा माथा ठनका और झट्ट से फोन उठा लिया और उठाते ही उधर से अम्मा जोर जोर से  रो रो कर बोली बबुआ जल्दी आओ  बाऊ जी गिर पड़े हैं उनका सर फट गया ।

इतना सुनते ही हम बिना अनुमति लिए दनदनाते साइकिल निकाले और हाफते हाफते घर पहुंचे,सच कहे तो ऐसा लगा  कि पंखा होते तो उड़ कर तुरंत पहुंच जाते।पर कहां हम तो साइकिल से थे खैर जैसे तैसे हम पहुंचे तो देखा आंगन खचा खच भरा यह देख हमारे तो पैरों तले की ज़मीन खिसक गई पर अम्मा को जब देखा  पल्लू से सिर बांधे अपने गोद में बाऊ जी को लिटाई थी

और बाबू जी बेसुध पड़े थे तो जान में जान आई फिर हमने फोन किसी और को पकड़ा और भाई बहन को बुला ने के लिए कहे और अम्मा के मोबाइल से  एंबुलेंस बुलाया और आनन फानन में हस्पताल लेके पहुंचे  पहुंचने पर दाखिला जल्दी हो गया डाक्टरों की टीम ने इलाज भी शुरू कर दिया उनका इलाज शुरू हो गया  धीरे धीरे एक दो घंटे में सारे लोग जमा हो गए ।इलाज के दौरान डा.

ने खून की मांग की,उनके अनुसार खून ज्यादा बह जाने के कारण एक यूनिट खून की जरूरत है ।तो हमारे बड़े भाई ने उन्हें खून  दिया। वक़्त लगा पर स्त्थितियां काबू में हो गई सभी उनकी सेवा में लगे गए पर कहते हैं ना कि जाने वाले को कोई रोक नही सकता बस वही हुआ

एक रात वो बाथरूम जाने के लिए उतरे और न जाने कैसे उनका पैर डगमगा गया।और  चारों खाना चित गिर गए और गिरते ही उनके प्राण पखेरू उड़े गए दरसल उन्हें साइलेंट अटैक आ गया जैसा कि डा. ने बताया।

सब हाथ मल कर रह गए।अम्मा का रो रो के बुरा हाल किसी तरह उन्हें घर पहुंचाया गया फिर सारी कार्यवाही के बाद पिता जी की मृत देह को लाकर आंगन के बीचो बीच लिटा दिया गया।सारा खेल तीन दिन के भीतर खत्म हो गया कोई कुछ समझ ही ना सका।

पर देखो ना यहाँ भी अम्मा ने ही हिम्मत दिखाई और सारी रस्मों रिवाज बताया। उसके बाद हम सभी भाइयों ने उनको कंधा दे उनकी अंतिम यात्रा सफल की इसी बीच जब विद्यालय को पता चला 

तो पंद्रह दिन की छुट्टी मंजूर हो गई थी पर आज छुट्टी नही मिलेगी इसलिए आया है और आफ डे लेकर जायेगा।यही तो जीवित इंसान का कर्तव्य है कि वो मृत को भी संतुष्ट रखता है और जीवित इंसान को भी 

क्योंकि दुख उसका व्यक्तिगत है कार्यस्थली तो काम मांगती है उसे दर्द से क्या मतलब।

स्वरचित मौलिक अप्रकाशित रचना 

कंचन श्रीवास्तव आरज़ू प्रयागराज

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