संतान-सुख – विभा गुप्ता

 ” दादाजी, आपकी चाय..।” तेरह वर्षीय साक्षी चाय का कप थमाते हुए माणिक बाबू से बोली तो वे बुदबुदाए, ” आज फिर से बेटी के हाथ चाय भिजवा दिया,खुद आती तो क्या घिस जाती।हमारे लिए समय निकालना तो उनके लिए जैसे पहाड़ है।” चाय का एक घूँट पीते ही चेहरे पर बेस्वाद के भाव आ गये।मन में कड़वाहट हो तो शक्कर वाली मीठी चाय भी फ़ीकी लगती है।बढ़ती उम्र,अकेलापन और परिवार के उपेक्षित व्यवहार से वे दिनोंदिन और अधिक चिड़चिड़े होते जा रहें थें।

          माणिक चन्द्र अपने परिवार में पहले शिक्षित थें।जब उन्हें बीए की डिग्री मिली थी तब उनके दादाजी ने पूरे गाँव में मिठाई बँटवाई थी।फिर उन्होंने एमए- एम फिल किया और उसी काॅलेज में लेक्चरर बनकर अध्यापन का कार्य करने लगे।

          स्वभाव से सरल माणिक चन्द्र की सादगी-पूर्ण जीवनशैली उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देते थें।नौकरी के दो साल बाद उनके पिता ने अपने परिचित की बेटी सुलोचना के साथ उनका पाणि-ग्रहण संस्कार करा दिया और इस तरह उनका गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश हो गया।ईश्वर की कृपा से वे तीन बार पिता बने,महेश, रमेश और दीप्ति।उन्होंने बच्चों के पालन-पोषण और उनकी शिक्षा-दीक्षा में कोई कमी नहीं की।

         बच्चों के विद्यालय जाने के बाद सुलोचना जी एकांत रहने लगीं तो उन्होंने पति से सिलाई सीखने की इच्छा व्यक्त की जिसे माणिक चन्द्र ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।अब वे बच्चों को स्कूल और पति को कॉलेज के लिए रवाना करने के बाद स्वयं भी सिलाई-स्कूल जाकर एक विद्यार्थी बन जातीं।उनका कोर्स पूरा हुआ तो उन्होंने  उसी स्कूल में कुछ दिनों तक अस्थाई रूप से सहायक का काम किया और फिर उन्होंने अपने घर में ही सिलाई-केन्द्र खोल लिया।




          माणिक चन्द्र का व्यवस्थित जीवन देखकर उनके कुछ सहकर्मी उनसे ईर्ष्या भी करते थें।एक दिन उनके एक मित्र ने अपने बड़े भाई की व्यथा उनसे साझा किया।मित्र ने बताया कि माणिक, तुम्हारी तरह ही मेरे भईया भी अपने बच्चों पर जान छिड़कते थें।उनकी पढ़ाई से लेकर नौकरी तक में उन्होंने उनपर अपनी जमा-पूँजी लुटा दी,बेटे को घर खरीदना था तो भईया ने अपना प्राॅविडेन्ट फ़ंड का पैसा भी उसे दे दिया और अब वे खाली हाथ हैं तो बेटा उन्हें बोझ समझ रहा है।भईया अब पछताते हैं कि काश!वे अपना हाथ मजबूत रखते।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

औरत – मनवीन कौर

       मित्र की बात न जाने कैसे माणिक चन्द्र के मन में घर कर गई और उन्होंने बच्चों की तरफ़ से अपने हाथ तंग कर लिये।महेश का फ़ाइनल ईयर था, उसने आवश्यक कार्य हेतु जब पिता से पैसे माँगे तो उन्होंने ‘नहीं है’ टका-सा ज़वाब दे दिया।इसी तरह रमेश और दीप्ति को भी हाथ-खर्च की तंगी का सामना करना पड़ा।तब सुलोचना जी अपने बच्चों की ज़रूरतों को पूरा करने लगी और पति को भी समझाया कि ऐसा करना ठीक नहीं है।किसी एक की गलती के लिए आपका अपने बच्चों के साथ तटस्थ व्यवहार करना गलत है लेकिन उनके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी।वे पत्नी को तर्क देते कि पैसा पास में रहेगा तभी तो बच्चे हमारी कद्र करेंगें और तब सुलोचना जी उनके इस संकरी सोच के आगे निरुत्तर हो जातीं।बच्चे पार्ट टाइम ट्यूशन करके अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने लगे लेकिन कभी भी उन्होंने  अपने पिता से शिकायत नहीं की।




          समय रुपी पंछी अपनी गति से उड़ता रहा।सुलोचना जी अपने सिलाई-केन्द्र में व्यस्त रहने लगीं,महेश को बैंक में नौकरी मिल गई, छोटा रमेश एक कंपनी में सेल्स मैनेजर बन गया और बेटी भी अब बीएससी फाइनल में आ गयी थी।माणिक चन्द्र का रिटायरमेंट अब नज़दीक आ रहा था। वे चाहते थें कि सेवानिवृत होने से पहले बिटिया के हाथ पीले कर दें।दीप्ति की फ़ाइनल परीक्षा समाप्त होते ही उन्होंने अपने एक अध्यापक मित्र के बेटे सुशांत संग उसका विवाह करा दिया।

       छह महीने बाद महेश ने अपने पिता से अपनी सहकर्मी सुनंदा के साथ विवाह करने की इजाज़त माँगी तो उन्होंने ना-नुकुर किया, फिर पत्नी ने समझाया तो विवाह की सहमति दे दी।विवाह के चार महीने बाद ही उसका तबादला मुंबई हो गया और वह पत्नी सहित वहाँ शिफ़्ट हो गया।पत्र -फ़ोन के माध्यम से वह अपने माता-पिता के सम्पर्क में हमेशा रहता।त्योहार और अन्य छुट्टियाँ वह अपने माता-पिता के संग ही बिताता।

          सुलोचना जी ने अपनी सहेली की बेटी नैना के साथ रमेश का भी विवाह कर दिया।घर में पोते-पोतियों की किलकारियाँ गूँजने लगी तो माणिक बाबू स्वयं को भाग्यशाली समझने लगे।यद्यपि बेटे के साथ उनकी बात बहुत कम ही होती थी लेकिन कलह या मन-मुटाव कभी नहीं हुआ।वे दिन अपने पोते-पोतियों के संग बिताते और शाम में मित्रों के जमघट में शामिल हो जाते।कुछ अपनी कहते और कुछ उनकी सुनते।उनकी खुशहाल ज़िंदगी और बच्चों का उनके प्रति लगाव और अपनापन देखकर उनके मित्र-हितैषी कहते कि संतान-सुख सबके नसीब में नहीं होता।आपको तो दोनों बेटे-बहू और बेटी द्वारा आदर-सम्मान मिल रहा है।आप बड़े भाग्यशाली हैं,वरना तो आसपास देख ही रहें हैं।शर्मा साहब और अग्रवाल जी के घर में क्या-क्या हो रहा है।आप और भाभी जी तो बड़े किस्मतवाले हैं।तब वे ऐंठकर कहते, ” अजी, मैंने वो बेवकूफ़ी नहीं की, जो सब करते हैं।”

इस कहानी को भी पढ़ें: 

वचन – अंजू निगम




      ” क्या मतलब?” आश्चर्य-से सभी पूछते तो वे ज़वाब देते कि मैंने अपनी मुट्ठी नहीं खोली।अपनी गाढ़ी कमाई औलादों पर नहीं लुटाई जैसे कि आपलोग करते हैं।मेरे पास पैसे हैं तभी तो बेटे मेरे आस-पास मंडराते रहते हैं।उनका उत्तर सबको चकित कर देता।एक प्रोफ़ेसर के मुख से स्वार्थ की बातें उन्हें अजीब लगती।वे कहते कि आपकी संतान ऐसी नहीं हैं पर वे तो अपनी ही बात को ऊपर रखते थें।शरीर के ऊपरी घाव को ठीक करना आसान है लेकिन मन के अंदर अगर कोई बात बैठ जाए तो उसे बाहर निकालना बहुत मुश्किल होता है।फिर माणिक बाबू तो अब खाली थें, ऊल-जलूल बातों को अपने दिमाग में जगह देना उनका स्वभाव बन गया था।इसलिए वे अपनी धारणा को बदलने के लिए कतई तैयार नहीं होते।सुलोचना जी के कानों तक भी ये बातें पहुँचती थीं।वे इसी बात से चिंतित रहती कि मेरे न रहने पर कहीं इनके और बच्चों के बीच कोई दीवार न खड़ी हो जाए।

         एक दिन नैना ने पति से कहा कि आपकी तनख्वाह से घर तो अच्छे-से चल रहा है लेकिन बचत नहीं हो पा रही है।बच्चे भी बड़े हो रहें तो क्यों न मैं भी कुछ काम कर लेती हूँ।मैंने टीचर-ट्रेनिंग की हुई है, टाइपिंग करना भी जानती हूँ।आप कहें तो पास के प्राइमरी स्कूल में काम के लिए कोशिश करूँ।परिवार रुपी गाड़ी पति-पत्नी के आपसी सहयोग से ही चलती है,रमेश इस बात को अच्छी तरह से समझता था।फिर उसकी माँ भी तो वर्किंग लेडी थीं, इसलिए उसने नैना को काम करने की इजाज़त दे दी।अब नैना भी काम पर जाने लगी तो घर के कामों में वह समय कम देने लगी।सुलोचना समझदार थीं,नैना की परेशानी को समझती थीं और अपने पति के स्वभाव से भी वाकिफ़ थीं,इसलिए वे चुपचाच बहू का हाथ बँटाने लगी लेकिन माणिक चन्द्र की पारखी नज़र से कुछ भी छुपा न रह सका।कभी नैना की जगह सुलोचना जी चाय का प्याला ले आतीं तो दबी ज़बान से कह ही देते, ” इनसे इतना भी नहीं होता कि अपने ससुर को चाय दे आये।सास को नौकरानी समझ लिया है।” तब सुलोचना जी कहती कि क्यों छोटी-छोटी बातों को तूल देकर घर में कलह करना चाहते हैं।बहू को स्वयं भी तो काम पर जाना होता है।




   ” काम तो तुम भी करतीं थीं और तीन-तीन बच्चों को भी संभाला।”

     “हाँ, लेकिन तब बात कुछ और थी।”

इस कहानी को भी पढ़ें: 

परवरिश – रीटा मक्कड़

   ” तब और अब क्या?”

     इसी तरह से वे पत्नी से बहस करते रहते।लेकिन कब तक..? एक दिन सुलोचना जी ने पेट-दर्द की शिकायत की।दवा बेअसर हो गई तो उन्हें हाॅस्पीटल ले जाया गया।डाॅक्टर ने बहुत सारे टेस्ट लिख दिये।उनके टेस्ट की प्रकिया चल ही रही थी कि अचानक उनके सीने में ज़ोर का दर्द उठा और पति से इतना ही कहा कि बेटों को गलत मत समझो और हमेशा के लिए आँखें बंद कर ली।

          पत्नी का साथ छूट जाने से वे अकेले पड़ गये।उन्हें अपना जीवन व्यर्थ-सा लगने लगा।नैना ने बच्चों से कह रखा था कि अपने दादाजी को कभी अकेले मत छोड़ना।महेश भी उन्हें फ़ोन पर कहता रहता कि पापा,आप पहले की तरह बाहर घूमने जाया कीजिये, दोस्तों से मिलिए।मन करे तो दीप्ति से भी मिल आया कीजिये।उसे अच्छा लगेगा और आपको भी।थोड़ी देर के लिए तो उनका मन बहल जाता परन्तु फिर से उनपर नकारात्मकता हावी होने लग जाती।हर वक्त कोई उनके साथ रहे, ऐसा संभव नहीं था क्योंकि बेटे-बहू काम पर चले जाते और बच्चे स्कूल और इसीलिए वे छोटी-छोटी बातों पर चिड़चिड़ाने लगे थें।




       आज भी उन्होंने सोचा था कि बहू चाय लेकर आयेगी तो उससे दो बातें कर लूँगा लेकिन पोती को देखकर वे झुँझला गये।समझ गये कि वे सबके लिए एक बोझ हैं।मैंने इन्हें जेब-खर्च नहीं दिया था,उसी का बदला मुझसे ले रहें हैं..।यही सब सोचते-सोचते वे घर से बाहर निकल गयें।

       शाम होने को आई,पिता को घर में न देखकर रमेश ने पत्नी से पूछा,आस-पास के घरों में जाकर देखा और जब नहीं मिले तो उसे चिंता होने लगी।पुलिस को फ़ोन लगाने का सोचा कि तभी फ़ोन की घंटी बजी।उठाने पर हैलो बोला तो उधर से आवाज़ आई, ” “पाम व्यू’ हाॅस्पीटल से मैं डाॅक्टर सिन्हा बोल रहा हूँ।आपके पिता माणिक चन्द्र यहाँ एडमिट हैं।” रमेश कुछ और पूछ पाता, तब तक फ़ोन डिस्कनेक्ट हो गया।उसने तुरंत भाई महेश को खबर दी और पत्नी के साथ हाॅस्पीटल पहुँचा।

        डाॅक्टर ने बताया कि चिन्ता की कोई बात नहीं है।आपके पिता अकेले सड़क पर जा रहें थें कि किसी चीज़ से टकरा गये और बेहोश हो गयें।वे बात करने की स्थिति में नहीं थें,उनकी जेब में रखी डायरी में आपका नंबर लिखा था तो आपको फ़ोन कर दिया।

       ” इन्हें कब तक घर ले जा सकता हूँ?” पूछने पर डाॅक्टर ने बताया कि अभी तक वे पूरे होश में नहीं है,इसलिए आज यहीं रहने दीजिए, कल दोपहर के बाद उन्हें डिस्चार्ज कर देंगे।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

झाँसी की रानी – सरला मेहता

           होश आने पर माणिक बाबू ने स्वयं को हाॅस्पीटल के बेड पर पाया।कमरे की साज-सज्जा देखकर वे चकित थें।।नर्स से पूछने पर पता चला कि वे सड़क पर बेहोश होकर गिर पड़े थें।रमेश ने उन्हें जनरल वार्ड से स्पेशल वार्ड में शिफ़्ट करवाया है।वे सोचने लगे,मँहगे अस्पताल का कमरा भी तो बहुत मँहगा होगा।रमेश तो इसका बिल देने से रहा और महेश को तो मेरे जीने-मरने से कोई मतलब है नहीं।अब तो मुझे ये बिल देने पड़ेंगे। चलकर पता करता हूँ और वे रिसेप्शन की ओर जाने लगे तो बेटे-बहू को बात करते देखा तो रुक गयें।नैना कह रही थी, ” महेश भइया से ले लें।”




रमेश, ” नहीं-नहीं, तुम तो जानती ही हो कि उनकी बेटी का इलाज कितना मंहगा है।”

नैना, ” तो मेरी चेन गिरवी रख दो।”

रमेश, ” मोटर साइकिल के लिए जो जमा कर रखा था,उसी से बिल क्लीयर कर देता हूँ और सुनो,पापा को इसकी खबर न होने पाए,उन्हें दुख होगा।मम्मी के जाने के बाद से….।” इसके आगे माणिक बाबू सुन न सके।अपने बच्चों के लिए उन्होंने कितनी गलत धारणाएँ बना रखी थीं।मैं कितना अभागा पिता हूँ जो संतान-सुख मिलते हुये भी उससे वंचित रहा।आँख रहते हुए भी अपने बच्चों के प्यार को न देख सका,मन का दुख और पछतावा अश्रु बनकर उनके नयनों से बहने लगे।

       ” रमेश, पापा कैसे हैं?” महेश ने घबराते हुए पूछा।

   ” ठीक है भइया, अभी आराम कर रहें हैं।” दोनों को कमरे की तरफ़ आते देख माणिक बाबू अपने बेड पर आकर लेट गये।

” पापा,अब आपकी तबीयत कैसी है?” सुनकर उन्होंने आँखें खोली और बेटों को सीने से लगाकर रोने लगे।आज वे संतान-सुख का आनंद ले रहें थें।

                               – विभा गुप्ता

        #औलाद               स्वरचित 🖋

              सच है,संतान-सुख अनमोल होता है।हमें इसके महत्व को समझना चाहिए।किस्मत वालों को ही ये सुख मिलता है,उन्हीं में से एक थे हमारे माणिक चन्द्र।

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!