एक विवाह समारोह मे सरिता आयी थी, रिसेप्शन समारोह की धूम थी, हर तरफ शोर , मस्ती का माहौल था। तभी किसी ने उद्घोषणा करी, अब सुनिए मेजर सागर नंदन की पेशकश, और उसमे लीन हो जाएं।
तभी कोई माउथऑर्गन पर स्टेज में एक धुन बजा रहा था, ए मेरे वतन के लोगो, जरा आंख में भर लो पानी।
और सरिता उसमे खो गयी। जब वातावरण शांत हुआ, हर तरफ तालियों का शोर था। जब ध्यान से आर्टिस्ट का नाम सुना तो उसके दिल की घंटियां भी सुर ताल में बजने लगी, कहीं ये वो तो नही…….। दिल के एक कोने में रखी बंद पोटली में हलचल हुई, उसमें बंद, कुछ अनकहे अल्फ़ाज़ों की दास्तां को महसूस किया और उनके बाहर निकलने की बेचैनी को भी समझा।
भीड़ में से आगे निकल कर सामने पहुँची, ध्यान से देखा, एक वयस्क बैसाखी के साथ हाथ जोड़कर किसी से बातचीत कर रहे थे, दाढ़ी बढ़ी हुई थी, आंखों पर चश्मा था। फिर भी बरसो से जिसको दिल मे बड़े सहेजकर, दुनियाभर से छुपाकर रक्खा था, उसे पहचान गयी। अरे ये तो कॉलेज का मस्त हीरो सागर है, बाद में पता चला था, आर्मी में जॉब लग गयी थी। हृदय में दुख की लहर से आंखों में नमी सी लगी, हे ईश्वर, इनके पैर को क्या हुआ।
एक बड़े समूह से घिरे थे, मेजर सागर नंदन, कैसे सामने जाए, परिचय दे, पता नही उन्हें कुछ याद भी है कि नही?
कुर्सी पर चुपचाप बैठ गयी सरिता। और अतीत की सरिता में सरिता डूबने लगी।
पैंतीस वर्ष पहले कॉलेज में एक जोड़ा प्रसिद्ध था, सागर और सरिता। दोनो जहां भी जाते एक ही साथ रहते। कॉमन रूम में क्लास के बाद सागर, सरिता की आंखों में डूबकर प्यारी सी रोमांटिक धुन माउथ ऑर्गन पर बजाते रहते, और सरिता उस धुन को तल्लीन होकर सुनती। कब तीन वर्ष बीत गए और फेयरवेल का दिन आया, पता ही नही चला।
उसके बाद दोनो मिलना चाहते थे, पर समाज की बंदिशों ने बेड़ियां लगा दी। सरिता के पापा ने उसकी शादी एक संयुक्त परिवार में तय कर दी। उसने मनमोहक प्यारी यादों की पोटली बना दिल मे सुरक्षित रख ली। उसे उड़ती हुई खबर मिली थी, सागर ने आर्मी जॉइन कर ली।
सागर से मेजर सागर बनने का जो अन्तराल था, उसके बारे में सरिता कुछ भी नही जानती थी। बस अपने एकांत को पहचानती थी, पति कोरोना में ईश्वर के पास चले गए, दोनो बेटे बहू अपने परिवार के साथ दूसरे शहरों में मस्त थे।
अचानक उसे महसूस हुआ, कोई बिल्कुल पास आकर उससे नमस्ते कर रहा है।
“अरे, वाह, आपसे जीवन मे फिर मुलाकात होगी, सोचा ही नही था, कैसी है सरिता जी?
“हां, आज वक़्त के इस कठिन दौर से चकित हूँ, जिसने आपको सरिता में जी लगाने पर मजबूर किया, उसी हैसियत से सिर्फ सरिता बोलिये, तो इस मिलन का मज़ा आये।”
“सरिता, बहुत खुश हूं, तुम्हे अचानक देखकर, यहां भी कॉमन रूम है, आओ बैठकर इन बीते वर्षों की गुफ्तगू करे।”
“चलिए”
और एक बार फिर अतीत अपनेआप को दोहरा रहा था, मेजर सागर एक धुन बजा रहे थे……..दिल की ये आरजू थी कोई दिलरुबा मिले।
सरिता उस गाने और धुन में डूबी थी।
अचानक सरिता ने रुंधते गले से कहा, “ये बैसाखी कैसे?”
“कारगिल युद्ध मे दुश्मन से लड़ते हुए, मैंने एक टांग गवा दी, छह महीने अस्पताल में रहा। फिर रिटायरमेंट ले लिया। जानती हो, मम्मा पापा के लाख कहने पर भी मैंने शादी नही करी और संगीत में अपने को डुबो दिया।”
“सुनकर दुख हुआ।”
सरिता ने कहा, “मैं तो ये रिश्ते की शादी में उपस्थित होने आई थी, कल मेरी फ्लाइट है। इस यात्रा में इतना प्यारा तोहफा मिलेगा, नही मालूम था।”
“मेरा मोबाइल नंबर लो, बिना डरे, कभी भी बाते करो, दो बुजुर्ग कैसी बाते करेंगे, अतीत की, समाज की, साहित्य की, मुझे पता है। अब जीने के लिए कुछ सोचने को मक़सद मिला है, जितनी भी बाकी जिंदगी है, बोर नही होंगे।”
“ओके, बाई, बाई।”
स्वरचित
भगवती सक्सेना गौड़
बैंगलोर