ग्रामीण क्षेत्र में पली बढी, कृषक परिवार से संबंधित, रुपाक्षी जब स्नातक डिग्री प्राप्त करने के लिए अपनी मौसी के यहाँ शहर में गई तो मन में विचरते विचारों को भी जैसे पँख लगने लगे।हमेशा मर्यादाओं की सीमा में रहने वाली रुपाक्षी को शहर में पढने के लिए भेजने से पहले सभी नसीहतें दी गई। “शहर में पढने भेजने की क्या जरुरत है, लडकी के पंख निकल आएंगे। ढंग का छोरा देख शादी कर दो इसक।अब बस घर के कामकाज सिखाओ कहीं ससुराल जाकर नाक न कटा दे मायके की।
फिर पढ लिखकर कौनसा तीर मार लेगी?” दादी माँ की दो टूक बातें सुनकर तो लगा कि पापा शायद पढने नहीं भेजेंगे। पापा जी ने भी हां में हां मिलाते हुए कहा कि “कहीं जाकर पढने की आवश्यकता नही है जितना पढना था पढ लिया.” मम्मी के अटल फैसले के आगे सबको झुकना पड़ा और वह ग्रेजुएशन पूरी करने के लिए शहर आ ही गई। छुईमुई सी रहने वाली रुपाक्षी ने अपनी कक्षाएं अटैंड करनी शुरू की। कुछ घबराई और अपने आप में संकुचित रुपाक्षी को जब नीरा ने अपना परिचय दिया तो दोनों में बातचीत होने लगी।
धीरे धीरे सायरा और उजाला नीरा और रूपाक्षी इन चार लडकियों की दोस्ती हो गई। कक्षा में कुछ दिनों से रुपाक्षी को लगता कि जैसे कोई उसे देख रहा है। वह असहज हो उठती। ऐसा नहीं था कि उसे अच्छा नहीं लग रहा था परंतु परिवार की नसीहतें और संस्कार उसे इस ओर ध्यान देने अथवा कुछ भी ऐसा वैसा सोचने से सदा रोक देते। पढाई में तो अच्छी थी ही, सदैव उसी में लगी रहती।
“एक्सक्यूज मी, पर्हैप्स इट्स योर पेन?” एक सहज गहरी आवाज। “या इट्स माइन।थैंक्स ” कहकर रुपाक्षी ने अपना पेन लेकर उसे क्षणभर को देखा तो आखें मिलते ही इक पल को झपकना भूल गई।”अरे ,यह तो वही लडका है जो सदैव देखता रहता है” वह अन्यमनस्क सी हो गई। परन्तु दिल में एक सुखद अनुभूति हुई। शायद इस उम्र में ऐसा ही होता है।कोई दिल की ~~धडकनों में बसने लगता है।उसकी एक झलक पाने के लिए दिल मचलने लगता है। सामने आने पर बोल न पाना और पीछे उसी से बातें करना। क्या यही प्यार है? सोचकर हौले से मुस्कुरा उठी और यह सब सोचकर अपने आप में ही झेंप गई।
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पढाई में अच्छी तो वह थी ही। अपनी गरदन को झटककर पढाई में तल्लीन हो जाती तो कभी कभार बीच बीच में उस लडके के विषय में सोचने लगती। फिर परिवार की नसीहतें उसे इधरउधर भटकने से रोकने का कार्य बखूबी कर रही थी।कॉलिज में जाते ही न चाहते हुए भी निगाहें मनीष को देखने का लोभ छोड़ नहीं पाती। “कहाँ खोई हो यार? मैं कब से तुम्हें ढूँढ रही हूँ? ” नीरा ने आकर टोका तो उसकी तन्द्रा भंग हुई।
“कोई तुमसे मिलना चाहता है।” नीरा ने जैसे फैसला ही सुना दिया। हाथ पकड़ कर ले गई और सामने यह क्या, मनीष। धडकनें स्वतः ही तेज गति पकडऩे लगी। हिम्मत जुटाकर पूछा,” कहिए, क्या बात है ?” स्वयं भी अपनी सांसों को नियंत्रित करती हुई बोली। “कुछ नहीं बस आपके फिजिक्स के नोट्स चाहिए।” मनीष ने कहा तो रुपाक्षी अवाक रह गई। एक बार फाइनल ईयर में कालिज टूर पर सब गए तो बस में बैठकर सबने अन्त्याक्षरी खेलना शुरू कर दिया।सभी ने अपनी पसंद के गाने गाए।
रुपाक्षी का नम्बर आया तो उसने अपना हमेशा वाला गाना गाया”हम तुम्हें चाहते है ऐसे, मरने वाला कोई जिंदगी चाहता हो जैसे।”तालियों के बीच नजर मनीष पर गई तो एक रहस्यमयी मुस्कान उसके लबों पर तैर रही थी।फिर उधरसे भी गाना सुना” तुम तो ठहरे परदेशी, साथ क्या निभाओगे।” सुनकर सशंकित रह गई रुपाक्षी। समय व्यतीत हुआ और सब ग्रेजुएशन के बाद अपने घरों को लौट गए।फिर पता नहीं कौन कहाँ था?
रुपाक्षी ने पोस्ट ग्रेजुएशन भी अलग शहर से पूरा कर लिया तो घर मे शादी की बात चलने लगी तो दिल मेंएक कसक उभरती। मनीष को याद कर आँखों में आँसू तैर जाते और कहीं न कहीं मनीष का चेहरा आँखों के सामने आ जाता। परन्तु क्या कर सकती थी।
जब भी किसी लडके को देखने की बात पापा करते तो रूपाक्षी कहती कि अभी उसे ओर भी पढना है। उसे थोड़ा ओर समय चाहिए था जिससे कि वह मनीष के बारें में कुछ जानकारी निकाल सके।दिल हमेशा कहता कि मनीष एक ना एक दिन अवश्य मिलेगा। परंतु घर में कुछ कहना मतलब कोहराम को हवा देना था। बस चुपके से तन्हाई में आँसू बहा लेती। फिर कोई वादा भी तो नहीं हुआ था दोनों के बीच जिसके आधार पर वह अपने मम्मी को किसी बात पर आश्वस्त कर पाती।
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सर्विस के लिए काम्पीटिशन देती रही। एक दिन मम्मी ने बताया कि उसे कोई लडका देखने आया है। बैंक में सरकारी नौकरी हैं।शहर में अपना मकान है। मम्मी पापा और छोटी बहन के साथ आया है। अनमने ढंग से तैयार होकर सामने गई तो झटका खाकर गिरने ही वाली थी सामने मनीष को अपने मम्मी पापा के साथ बैठे देखकर।मनीष की ओर देखा तो लबों पे वही रहस्यमयी मुस्कान । मनीष ने जैसे अब रहस्योद्घाटन किया।” मैं रुपाक्षी के संस्कारों और विचारों से प्रभावित था।
मैं रूपाक्षी में अपने परिवार को सँभालने का गुण देखता था। यह तुम्हारी दोस्त नीरा जो मेरी छ़ोटी बहन थी। तुम्हारे बारे में हमेशा सब कुछ बताती थी कि तुम अपने परिवार से अलग अथवा उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करोगी।तुम्हारे लिए माता पिता की इच्छा ही सर्वोपरि है। इसीलिए पहले खुद को काबिल बनाकर तुम्हारे पापा से तुम्हारा हाथ माँगने चला आया हूँ। तुमसे तुम्हें माँगकर तुम्हें दोराहे पर नहीं खडा करना चाहता था।न स्वयं जीलनभर का दर्द लेना चाहता था और न तुम्हें देना चाहता था।”
रुपाक्षी आश्चर्यमिश्रित खुशी के साथ इतना समझदार जीवनसाथी देने के लिए ईश्वर का धन्यवाद दे रही थी। प्रेम की इस सुखद परिणति से भावातिरेक होकर पूजाघर की ओर दौडती चली गई।उसके आँसू इस प्रकार से मोती बनकर जीवन को अनमोल कर देंगे। ईश्वर के चरणों में नतमस्तक हो गई।
स्वरचित एवं अप्रकाशित
अलका शर्मा
शामली, उत्तर प्रदेश