सास को बहू की तकलीफ़ दिखाई नहीं देती – ज्योति आहूजा :

अगस्त का दूसरा हफ्ता था।

हरियाणा के अम्बाला में हल्की उमस और फुहारों के बीच त्योहारों की दस्तक महसूस की जा सकती थी।

सड़कों पर रक्षाबंधन की राखियाँ, मिठाइयाँ और मेहंदी की दुकानें सजी थीं।

और इस शहर के एक पुराने, आत्मीय मोहल्ले में —

शारदा देवी का घर आज भी उसी गरिमा से खड़ा था,

जैसे कभी उनके पति विनोद प्रसाद के समय में होता था।

विनोद जी के जाने के बाद भी

घर की रौनक, अपनापन और त्योहारों की परंपरा वैसी ही बनी रही।

शारदा देवी ने उस घर को पूरी गरिमा और आत्मीयता के साथ संभाले रखा था।

हर रक्षाबंधन पर उनकी तीनों ननदें अपने पूरे परिवार के साथ आती थीं,

शारदा देवी को ही तिलक करती थीं —

और रक्षाबंधन वाले दिन पहुँचतीं, फिर दो दिन उनके ही घर ठहरतीं।

घर के हर कोने में रौनक बिखर जाती।

अब घर की ज़िम्मेदारियाँ उनकी बहू रिया ने संभाल ली थीं —

एक ऐसी स्त्री, जो आधुनिक सोच के साथ

परंपरा की जड़ों को सहेजना जानती थी।

इस बार रक्षाबंधन रविवार को था,

और रिया शुक्रवार की सुबह से ही रसोई में जुटी थी।

गैस पर कुकर चढ़ा था, और पास ही उसकी डायरी खुली थी —

क्या बनेगा, कौन आएगा, क्या-क्या पहले से तैयार किया जा सकता है —

वह हर बात सलीके से नोट कर रही थी।

उसे पिछले साल की थकावट अच्छी तरह याद थी —

जब रिश्तेदार हँसी-ठिठोली में लगे थे

और वह रसोई में अकेली खड़ी

गरम तेल और बर्तनों के बीच घड़ी की सुइयों को देख रही थी।

और फिर रिया को वो सुबहें याद आईं

जब रक्षाबंधन जैसे त्योहारों के दिन

वो सुबह चार-पाँच बजे उठकर

सब्जियाँ काटती, पीसती, और तरी बनाती रहती थी।

दिन ढलते-ढलते तक शरीर जवाब देने लगता था,

पर तैयारियाँ कम नहीं होती थीं।

“इस बार कुछ अलग करना है,”

उसने तय कर लिया था —

“सिर्फ परोसने वाली नहीं,

मैं भी त्योहार का हिस्सा बनूँगी।”

रिया ने मिक्स वेज के लिए

फूलगोभी, गाजर, बीन्स, शिमला मिर्च जैसी सब्ज़ियाँ काटकर

एयरटाइट डिब्बों में रख दी थीं।

राजमा और छोले के लिए

मसाले वाली ग्रेवी प्याज़, टमाटर और मसालों के साथ

दो दिन पहले ही बना ली गई थी।

“अगर ज़रूरत पड़ी, तो बस गरम करना होगा,”

उसने चैन की साँस ली।

कुछ आलू उबालकर रखे गए, बेसन तौला गया,

ड्रायफ्रूट्स भी पास में रख दिए गए —

कि चाहे रायता बनाना हो या कोई मिठाई।

इस बार रिया ने मिठाइयाँ भी

बाहर से लाने का तय किया था —

“हर बार घर की बनी मिठाई अच्छी होती है,

पर इस बार काजू कतली और गुलाब जामुन पंसदीदा दुकान से मंगवाते हैं।”

और बच्चों के लिए एक-दो आइटम बाहर से मँगाने का भी विचार था।

“हमेशा तो घर का ही खाते हैं,

इस बार पिज़्ज़ा या पास्ता जैसा कुछ मँगवा लेंगे,

तो बच्चों को भी त्योहार थोड़ा अलग लगेगा।”

शनिवार की सुबह जब शारदा देवी रसोई में आईं

और फ्रिज खोला —

डिब्बों में करीने से सजी तैयारियाँ देखकर

थोड़ी चौंकीं और फिर मुस्कराईं।

“रिया बेटा, ये सब्ज़ियाँ काटकर पहले से रख दीं?”

“हाँ मम्मीजी, इस बार थोड़ा पहले से सोच लिया है।

सारा स्वाद वही रहेगा, मेहनत उस दिन कम करनी होगी।”

“और ये ग्रेवी?”

“वो राजमा छोले के लिए है,

अगर मेहमान ज़्यादा हो जाएँ तो बस गरम करना होगा।”

शारदा देवी कुछ देर शांत रहीं —

फिर हल्के से मुस्कराईं,

“हमारे ज़माने में तो सब ताज़ा बनता था…

और हम भी तो पिछले साल तक यही करते आए हैं।”

रिया उनके पास आकर बैठ गई।

“बिलकुल मम्मीजी,

मैं जानती हूँ उस समय की मेहनत ही सम्मान मानी जाती थी।

लेकिन बताइए — जब सब हँसी-मज़ाक कर रहे होते थे,

तो आपका मन नहीं करता था

कि आप भी बस एक बार उनके साथ बैठें?

अब वक्त बदल रहा है।

भाव वही हैं,

बस तरीका थोड़ा आसान और समझदारी वाला कर लिया है।”

शारदा देवी ने उसकी बात ध्यान से सुनी और फिर धीरे से कहा —

“अब पहले वाली बात नहीं रही बेटा —

कि सासें बहुओं की तकलीफ़ नहीं समझतीं।

हम भी बदल रहे हैं।

तूने बिल्कुल ठीक किया।

हमारे समय में तो रक्षाबंधन की सुबह

बहुएँ चार बजे उठकर

सब्जियाँ काटती थीं, तरी बनती थी,

और फिर दोपहर तक बिना बैठे काम करती थीं…

तब न ऐसे फ्रिज होते थे

और न ही ऐसे डिब्बे जिनमें दो दिन पहले सब्ज़ियाँ काटकर रखी जाएँ

और वो ताज़ी भी रहें।

हमें थोड़ा सा बदलाव हो भी जाए,

तो उससे मुझे कोई एतराज़ नहीं।”

रिया ने भी अपनी एक और चिंता का समाधान सोच लिया था —

“जिस दिन रक्षाबंधन होगा, उस दिन तो बाई भी छुट्टी कर देती हैं।

लेकिन अगले दिन वे आती हैं  पर  बहुत लेट।

तो मैंने मन बना लिया है कि उसे अगले दिन दो बार बुला लूँगी —

चाहे 200 रुपये ज़्यादा देने पड़ें,

पर बर्तनों का ढेर मेरे ऊपर न रहेगा।”

शारदा देवी हँस पड़ीं,

“बिलकुल सही सोच है —

समझदारी से काम लेना भी तो एक गुण है।”

रविवार को रक्षाबंधन का दिन आया।

घर फूलों से सजा था, बच्चों के चेहरे खिले थे।

तीनों ननदें परिवार सहित पहुँचीं,

और सबने मिलकर शारदा देवी को तिलक किया।

सबके बीच में रिया का भाई अमित और उसकी पत्नी शालिनी भी पानीपत से राखी बँधवाने आए थे।

पिछली बार रिया उन्हें ठीक से अटेंड नहीं कर पाई थी —

पर इस बार वह मुस्कराते हुए उनके साथ भी बैठी।

 शाम को शारदा देवी ने रिया को पास बुलाकर कहा —

“न परंपरा टूटी, न अपनापन —

बस उसमें तेरी समझदारी जुड़ गई।

बहुत अच्छा किया बेटा… बहुत अच्छा।”

त्योहार वही हैं —

बस अब उन्हें निभाने का तरीका बदला है।

और अगर बहुएँ भी अब इन त्यौहारों की रौनक में

सिर्फ बनाने वाली नहीं,

बल्कि हँसने-बोलने वाली भी बनें,

तो यही असली बदलाव है —

जो स्वागत योग्य है।

लेखिका : ज्योति आहूजा

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