“रंग-ए-हिजाब” – आसिफ़ा कायनात : Moral Stories in Hindi

घर के सारे फ़ोन घनघनाऐ जा रहे ,

मोबाइल, लैंडलाइन.., 

लेकिन ख़ुशख़बरी मिलते ही बदहवास सी तबस्सुम शुक्राने की दो रकात नमाज़ अदा करने मुसल्ले पर जो जाकर खड़ी हुई ..,

तो दुपहर से असर का वक़्त होने को आया,  तबस्सुम की दो रकात नमाज़ ख़त्म होने का नाम ही ना ले ।

सजदे में सिर जाते ही जा-नमाज़ आँसुओं से भीग चुकी थी ।

कई तरह के इमोशंस से गुज़र चुकी है ज़िन्दगी, लेकिन आँसुओं का स्वाद इतना अनोखा भी हो सकता है, अपनी 42 साला उम्र में पहली बार जाना तबस्सुम नें ।

और वो इस ज़ायक़े को पूरी ज़िंदगी के फीकेपन पे उंडेल देना चाहती है ।

लग रहा ख़ुशी और हैरानी भरा काँपता दिल अपनी सबसे फ़ेवरेट सतरंगी तश्तरी में रख अल्लाह ताला की नज़्र कर दे ।

“या अल्लाह ..

ये सच में ..  सच है ना ?

ख़्वाब तो नहीं मेरे मौला ?

जिस्म इतना हल्का क्यों हो रखा है,

सारा जहाँ धुआं-धुआं सा क्यों लग रहा .. !!!

जैसे कश्मीर की वादी में डल झील के ऊपर से परियों के पंख पहने उड़ती जा रही हूं मैं । 

ऐसी अलामत तो कभी कोई ख़्वाब देखे ना गुज़री !!!”

मसर्रतों की बारिश में भीगती रूह ।

जिस राह बढ़ने से रोकने के लिए घर के कुछ लोगों ने एड़ी चोटी का ज़‌‌ोर लगाया था और वह भी अल्लाह के नाम का ख़ौफ़ दिखा कर,

उसी राह की ऊँची मंज़िल पर अल्लाह ने ख़ुद तबस्सुम के नाम की तख़्ती लगा दी ।

बाहर ड्रॅाइंग रूम से ख़ुशी से चहकती सारे कुन्बे की आवाज़ें ऐसे आ रहीं..,  जैसे दूर कहीं “मियाँ मल्हार” की स्वर लहरिया तैर रही हो ।

जबकि कोई साल भर पहले इन्हीं आवाज़ों में से कुछ ने खल के बट्टे की तरह उसके वजूद को खल में रख खटाखट- खटाखट घोंट दिया था ।

बड़ी चच्ची..  जो दो कोठी छोड़ ही रहती हैं .. गरज पड़ी थीं

“लाहौल बिला क़ूवत .. क़ाज़ी एहतेशामुद्दीन अहमद के घर की बहु-बेटियाँ .. अब शैतानी अलामतों में मुब्तिला होंगी ?”

कफ़ील के छोटे फूफा फुफकार ही उठे थे  ,

“भाई जान .. बाहर के सारे मसाइल आप हल करते हैं , लेकिन लगता है …घर के मुआमलों में आपकी पकड़ ढीली पड़ती जा रही है ।”

फूफी ने धीमी आवाज़ में सुर  मिलाया ..

“अल्लाह ना करे , मुझे तो लग रिया .. ख़ानदान के वक़ार और इज़्ज़त पर बट्टा लगाने का हक़ मिल गया इस घर की ओरतों को ।  संभालिये भाई .. एक किताब में लगी दीमक सारी लाइब्रेरी सफ़ाचट कर जाती हे .. l”

इस वक़्त भाई जान ने एक गहरी और शायद चुभती हुई सी नज़र जिस तरह डाली थी तबस्सुम पर ,

उसे अपनी रीढ की हड्डी सुन्न होती महेसूस हुई थी ।

फिर भाई जान का ठंडी मगर फ़ैसलाकुन आवाज़ में बहन से ये कहना .. कि “कोई ग़लत फ़ैसला आज तक तो नहीं किया आपकी भावज ने, अब भी नहीं करेंगी .. यक़ीन रखें उनपे ।”

डिप्लोमेसी कोई भाईजान से सीखे । ख़ुद तो इशारे में अपना फ़ैसला सुना कर निकल गए मस्जिद के लिए, लेकिन घर की औरतों ने दिन भर में तबस्सुम को छील के रख दिया ।

बड़ी जेठानी तो सीधे ही हमलावर हुई थीं …

“ए बहन क्या ख़ब्त सवार हुई है इस उम्र में ?

किस बात की कमी है तुम्हें ?

इतनी अल्लाह रसूल वाली देवरानी मेरी, अब हिजाब उतार कर ग़ैर मर्दों के सामने पर्दे पर बेपर्दगी करेगी ?”

तबस्सुम नें रुआँसी होकर कहा था .. “नहीं कर रही भाभी जान .. माफ़ कीजिए।” 

लेकिन चंचल चपल मीठी छुरी, पाकिस्तानी सीरियलों की दीवानी, देवरानी शाज़िया का मज़ाक़ तो जैसे कलेजे में तीर की तरह धंस गया था ।

“सही फ़ेसला किया बाजी आपने ।

ये फ़िलिम सीरियल वालियों में ज़्यादातर तो रक़्क़ासाऐं-फ़ह्हाशाऐं होती हें । अल्ला ख़ेर करे..  कहां जाकर कीचड़ में लोट लगाने की सोच रई थीं आप .. ?

ओर वो लोंडा नावेद.. जिस नज़र से आपको देखता हे ना, अम्मा क़सम बाजी मुझे तो उसकी नीयत पे ही शक हो रिया हे । फांस रिया हे बाजी आपको वो ..”

तबस्सुम ने सख़्त नागवारी से शाज़िया को देखा ,

“अरे बाजी .. सच के री हूँ ..

होते हैं ऐसे आवारा मरदूद भी, उम्र वग़ैरा कोई मायने नहीं रखती इनके लिए.. अभी जो नया सीरियल शुरु हुआ हे ना, उसमें सेम टू सेम ऐसा ही ट्रेक चल रिया हे बाजी ।

फिर आप भी तो माशाल्लाह….”

कुछ और कहते कहते झटके में रुक गई शाज़िया..

एक शरारत सी उसकी आँखों में कौंधी..

“ए बाजी ..  सच बताना,

कहीं  ऐसा तो नहीं कि आप भी फँसना ही चाह रही हों ?

हें.. कहिये..कहिये”!!!!?? 

ये कहते हुए.. आँख मार के जिस ढंग से हँसी थी शाज़िया,

कलेजा फुंक गया था तबस्सुम का ।

कितनी-कितनी, कैसी-कैसी असलियतें छिपी होती हैं इंसान के ज़ाहिर चहेरों के पीछे, जो कभी उजागर होवें तो कलेजा फाड़ दे ।

या कहो .. हैरानी से भी भर दे ।

“नावेद” जो तबस्सुम से मिलने यहाँ बार बार आता रहा, इस बात से अंजान नहीं था कि इस घर के बडे उसे कोई तवज्जो नहीं देते ।

वजह .. वो जिस फ़ील्ड से जुड़ा है , वो सब इस घर के लोगों के लिए शैतानी अलामतें हैं , कुफ़्र है ।

कोई 2 साल पहले जब पहली दफ़ा नावेद मीठी ईद पर घर आया था तो ज़ाहिरी पहचान सिर्फ़ इतनी थी उसकी,  कि तबस्सुम के बेटे कफ़ील का सीनियर था कॉलेज में ।

फिर पिछले साल फ़िल्म अप्रसिएशन कोर्स कंप्लीट किया उसने, और अपने दोस्तों के साथ मिलकर सोशल इशु पर एक डॉक्यूमेंट्री प्लान की ।

उस वक़्त हिजाब को लेकर बड़ी बहस छिड़ी हुई थी पूरे देश में ।

देश, समाज, राजनीति , मीडिया..  सभी के लिए.. सबसे अहम मुद्दा था “हिजाब” ।

कोई इसे मज़हबी पहचान का प्रतीक मानता था,  कोई रूढ़िवादी सोच और पितृ सत्तात्मक मुआशरे की थोपी हुई कंडीशनिंग ।

कोई पहनने वाली की मर्ज़ी और सहूलियत के हक़ में था तो कुछ गिरोह हिजाब और बुर्क़ा पहनने वाली लड़कियों के चहेरों से, उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ इन्हें नोच कर फेंक देने की नफ़रत से लबरेज़ थे।

स्कूल कॉलेज तक में हिजाब और बुर्क़े को बैन करने की सिफ़ारिश उठी थी तभी ।

ऐसे में इस ज़्यादती के विरोध में, एक मुवमेंट भी शुरु हुआ।

आज़ादी के हक़ के लिए आवाज़ उठाने वाली नई नस्ल की वो र‌ौशन ख़याल लड़कियाँ भी हिजाब पहने सड़कों पर उतर आईं जिन्होंने इससे पहले कभी हिजाब नहीं पहना था । इनमें कुछ ग़ैर मज़हबी लड़कियाँ भी शामिल थीं ।

यह “फ़्रिडम ऑफ़ एक्सप्रेशन” का मामला था ।

इनका कहना था कि लोकतान्त्रिक तरीक़े से .. अपने देश में अपनी मर्ज़ी से धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक विचारधाराओं, मान्यताओं के साथ रहने, खाने, जीने का हक़ सबको बराबर है। कोई किसी को फ़ोर्स नहीं कर सकता ।

क्या ही कमाल है कि नावेद की दो बेस्ट फ्रेंड्स इस मामले में अपने अलग-अलग विचार रखती थीं, जब ये बहस-मुबाहिसे की आख़िरी पायदान तक पहुँच जातीं .. तो इन्हें नीचे खींच लानें की ज़िम्मेदारी बेचारे नावेद की ही होती । जिसमें इसकी ख़ासी  फ़जीहत होती ।

एक दोस्त का कहना था  कि उसे फ़ैसला करने का हक़ हो तो वह हिजाब पहनना छोड़ना चाहती है । और वो इस पर बैन के हक़ में है ।

जबकि दूसरी दोस्त उसी ग्रुप का हिस्सा थी..  जिसमें लड़कियों ने पहली बार हिजाब पहनकर अपना विरोध दर्ज करवाया था कि किसी को ज़बरदस्ती हिजाब ना पहनने पर मजबूर नहीं किया जा सकता ।

यह उसकी मर्ज़ी होनी चाहिए.. कि वो पहनना चाहे या ना पहनना चाहे ।

तो ऐसी ही कई छोटी-बड़ी घटनाएं, तरह-तरह के विचार और भावनाएं, नावेद के हाथों स्क्रिप्ट की शक्ल ले रही थीं । इस सिलसिले में नावेद ने मज़हबी-ग़ैर मज़हबी , पक्ष विपक्ष के कई लोगों से बात की ।

इस लिस्ट में कफ़ील की फ़ैमिली भी शामिल थी । लेकिन तबस्सुम के अलावा किसी को नावेद से बात करने में दिलचस्पी नहीं थी ।

एहतेशाम भाई जान नावेद और उसकी मॉडर्न ख़याल फ़ैमिली को पसंद नहीं करते थे। कितनी ही बार घर में कफ़ील तक को ताक़ीद की गई , कि नावेद से दूरी बनाकर रखे । लेकिन भोपाल में हर साल लगने वाले तबलीग़ी इस्तिमा की वीडियो शूट करने और एडिटिंग के लिए.. नावेद के बडे भाई के एडिटिंग स्टूडियो में दोनों की मुलाक़ात अक्सर हो ही जाती ।

उनके बीच एक दोस्ताना एहसास जो पनपा तो बढ़ता ही रहा ।

कफ़ील के कहने पर ही तबस्सुम नावेद से हिजाब पर बात करने के लिए राज़ी हुई थी और उस दिन अपनी मुख़्तसर सी बातचीत, अपने संतुलित विचार, जिस सादगी और अंदाज़ में रखे तबस्सुम ने ..

बस उसी दिन से वह नावेद की नज़र में चढ़ गई ।

नावेद अपनी हिजाब पर बेस्ड डॉक्युमेंट्री के लिए एक अच्छी और डीसेंट एंकर की तलाश में था, जो ऑन कैमरा हर तरह की सिचुएशन और विचारधारा को मद्दे नज़र रखते हुए इस सेंसिटिव सब्जेक्ट को हैंडल कर सके ।

तबस्सुम का अपनापन , विषय पर पकड, जजमेंटल ना होना .. और कूल नेचर नावेद को भा गया ।

मुस्लिम औरतें बेझिझक जिनके सामने खुल कर अपनी बात कह सकें, तबस्सुम ऐसी ही लगी थी नावेद को ।

सजदे से उठ कर.. जा-नमाज़ पर बैठी तबस्सुम सोच रही .. कि वो अब तक हैरान है इस बात पर .. कि साल भर पहले.. उसमें नावेद को यह गुंजाइश क्यों कर दिखाई दी ?

जबकि वह तो ख़ुद ही ख़ुद में एक दब्बू सी तबस्सुम को ढोऐ चलती थी उस वक़्त। 

हाँ सदियों पहले .. कॉलेज के ज़माने में रेडियो वग़ैरा से जुड़ी रही  थी, लेकिन भोपाल के  बड़े और मशहूर इस्लामिक घराने में शादी के बाद प्राथमिकताएँ कुछ और ही हो गईं , या कहो कि थोप दी गईं ।

थोपनें का ये एहसास. .  उन्हीं दिनों के दरमियान चुभा तबस्सुम के ज़हन में , जब नावेद बार-बार उसे ऎंकरिंग के लिए राज़ी करने के जतन करता, जानबूझकर स्क्रिप्ट में हो रहे छोटे-छोटे बदलाव और डेवलपमेंट में उसे शामिल रखता,

लेकिन एहतशाम भाईजान से बात करनें की तबस्सुम की हिम्मत ना पड़ती ।

देवरानी की बात याद आते ही मुसल्ले पर बैठी तबस्सुम मुस्कुरा उठी ।

“सच ही तो कहा था शाज़िया ने ,  फंसा ही तो रहा था शैतान बच्चा मुझे l”

इतनी ख़ूबसूरत और मानी ख़ेज़ स्क्रिप्ट ..,  के दिल डावाँडोल होने लगा था तबस्सुम का ।

कोई 3 महीनें बाद कफ़ील के हुलसाने पर , उसी के हाथों जब पहली दफ़ा तबस्सुम का संदेश एहतशाम भाई तक पहुंचा कि “आप इजाज़त दें तो मैं डॉक्यूमेंट्री में काम करना चाहती हूँ” ..

तभी बिगड़ा था घर का माहौल ।

ज़ाहिरी तौर पर एहतेशाम भाई की तरफ़ से नहीं ,

क्यूंकि वो घर में ज़्यादा लफ़्ज़ नहीं ख़र्चते । उनका वजूद उनकी पर्सनैलिटी ही ऐसी है कि सारे बड़े फ़ैसले उनके कलफ़ लगे कड़क साफ़े से झरते हैं , और उन्हें तबर्रूक की तरह सब शिद्दत से सर आंखों पर रखते हैं ।

उनकी एक नज़र, एक उठती गिरती साँस ही काफ़ी है फ़ैसले को समझने और समझाने के लिए ।

माहौल बिगाड़ा … घर की औरतों ने ।

सही कहते हैं ,  औरतें ही औरतों की ज़्यादा बड़ी दुश्मन हैं।

उस दौरान तबस्सुम को कफ़ील के अब्बू की कमी शिद्दत से खल रही थी । वह इस ख़ानदान के सबसे ज़्यादा पढ़े लिखे और विद्रोही तबीयत के शख़्स थे । 

अल्लाह रसूल वाले ही थे , पाँच‌ों वक़्त के नमाज़ी ।

लेकिन लकीर के फ़क़ीर नहीं ।

दीन ओ इल्म की दौलत को सही तरीक़े से आँकने, बरतने की उनकी वही सलाहियत कफ़ील ने पाई है । अपनी माँ को ज़रूरत से ज़्यादा हर किसी का हुकुम बजा लाने वाली बेवा बहु के चोले से निकलने के लिए सदा प्रेरित करता रहता ।

इस बार कुछ अटक तो गया था अंदर ।

और एक दिन जब भाभी जान..  बातों की आड़ में .. अनमनी तबस्सुम को सुनाते हुए अशरफ़ी ख़ाला से “कुफ़्र ओ शिर्क” में मुब्तिला बन्दों को, क़यामत के रोज़ दोज़ख़ की आग में जलाए जाने का ज़िक्र कर रही थीं , तभी एक न्यूज़ चैनल की डिबेट में शामिल एहतशाम भाई स्क्रीन पर चमके ।

और अचानक तबस्सुम की ज़ुबान से निकल गया .. कि “औरत और मर्द के लिए जहन्नुम तो अलग अलग होते होंगे ना भाभी जान ?” 

भाभी जान के लिए तो क़तई ज़हर ओ क़हर थी ये बात ।

फिर तमाशा खड़ा होता .. और तबस्सुम की लानत मलामत की जाती .. इससे पहले ही “हाफ़िज़े क़ुरआन”  कफ़ील मियाँ ने बड़ी शाईस्तगी से माँ के हक़ में मोर्चा संभाला और जायज़ दलीलों के बल पर हदीसों-रवायत का हवाला देकर ताया अब्बु की भवों पर पड़े कस बल कुछ ढीले किए। 

और इस शर्त पर डाक्यूमेंट्री में काम करने की इजाज़त निकाल ही लाऐ,   कि शूट पर भी किसी हालत में..  चहेरे से हिजाब अलग नहीं होना चाहिए तबस्सुम के ।

बड़ी टेढ़ी शर्त थी, तबस्सुम समझ गई यह भाई जान के “ना” करने का डिप्लोमैटिक तरीक़ा है , 

लेकिन मज़ा तब आया जब नावेद ने इस बात को ऐंकरिंग पार्ट के मज़बूत पक्ष की तरह पेश करने का फ़ैसला किया । उसने तय किया कि उसकी ऐंकर पूरे वक़्त हिजाब में ही रहेगी ।

अब भाई जान के पास सीधे इनकार करने की वजह न थी ।

हक़ीक़त तबस्सुम जानती थी .. सो डरी सी रहती, भाईजान के सामने पड़ने से बचती । लेकिन कफ़ील और नावेद उसे पीछे हटने का मौक़ा ही ना देते ।

घर वालों के मिज़ाज पानी में भीगी लकड़ी से फूले जा रहे थे।

और नावेद था कि ख़ुशी से बौराया रहता ।

उसके ज़हेन में जिस तरह की ऐंकर का अक्स था, 

तबस्सुम आंटी उससे भी बेहतर लगीं उसे । 

ऊपर से हिजाब !!!!!!

अब हुनर का तो पता नहीं, लेकिन यह बात तो आईना भी कई बार कह चुका है कि हिजाब पहनते ही तबस्सुम की ख़ूबसूरती में 10-20 चाँद जड़ जाते हैं ।

पहले दिन अल-सुबह शूट के लिए निकल रही थी वो,

घर की धाय माँ .. अशरफ़ी ख़ाला के अलावा घर का कोई शख़्स सामने न था ।

तो वो ख़ुद ही सब बड़ों को सलाम करने उनके कमरों की तरफ़ बढ़ गई।

लेकिन सबका वो ठंडा तल्ख़ रवैया ..,  दिल बुझ सा गया तबस्सुम का , आँखें भर आईं . 

चाहा ..  ना जाए ऐसे सबको नाराज़ करके।

लेकिन कफ़ील ने ढहने ना दिया ।

” बड़ी ही मशक़्क़त और जुगाड़ से फ़्लोर तक पहुँचे हैं नावेद भाई । सारा क्रू वेट कर रहा है आपका । इतने लोगों की मेहनत , उम्मीद और अपना फ़र्ज़ एक साथ नज़र-अंदाज़ कर जाऐंगी.., सिर्फ़ इसलिये ..कि कोई आपको नज़र-अंदाज़ कर रहा है ? “

लड़खड़ाते क़दमों में मज़बूती आई यह सुनकर , और जो हिम्मत ना पड़ रही थी एहतेशाम भाई के कमरे की तरफ़ जाने की .. सधे क़दमों से उस तरफ़ बढ़ गई तबस्सुम ।

जाकर सलाम किया और दुआ की दरख़्वास्त भी ।

भाई जान फ़ज्र की नमाज़ के बाद की लम्बी तिलावत में मशग़ूल थे । एक नज़र देखा,  क़रीब बुलाया, 

शायद .. ना-मालूम सा, हल्का सा वैलकम झलका उनकी नज़रों में , या सिर्फ़ तबस्सुम को लगा ऐसा, क्योंकि ख़्वाहिश नामुराद तो इसी की थी ।

भाई जान ने दम किया पेशानी पर, और तबर्रूक की प्लेट में रखी थोड़ी सी शक्कर उठाकर हथेली पर रख दी।

आँखें भर आईं तबस्सुम की । 

पानी का यह रंग अलहैदा था ।

शूट पर पहुँची तो काफ़ी घबराहट थी अंदर।

स्टूडियो में शूट था, हल्का सा टच अप दिया गया .. और  कैमरा ऑन होते ही……  सब भूल गई तबस्सुम ।

कुछ भी याद नहीं आ रहा ।

हालांकि .. शूट से पहले 2 दिन की वर्कशॉप भी हुई थी, लेकिन आज सब सफ़ाचट ।

पेट में चल रही घर्र-घर्र मशीन में पिस-पिसा के सब मलीदा हो गया । कोई तीन बार तो बैतुलख़ला से हो आई है , लेकिन हाजत है कि अब भी बनीं हुई है ।

आधा दिन यूं ही ज़ाया गया ।

दो-चार छोटे-छोटे टेक ही ओके होते हुए सुने होंगे उसने।

नावेद और पूरी यूनिट ने उसे कमतरी का ज़रा एहसास न होने दिया । बस हौसला बढ़ाते रहे । लेकिन वो भाँप रही थी टीम की परेशानी ।

घर आने के बाद मायूस तबस्सुम ने काफ़ी सोचा,  बेचैन रही , और नावेद को फ़ोन लगा दिया ।

“मुझसे नहीं होगा बच्चे ..  मेरी वजह से तुम्हारा प्रोजेक्ट ख़राब हो जाएगा,  तुम कोई और इंतज़ाम करो ” 

ज़ाहिर है नावेद बहस करता, ज़िद करता, लेकिन उम्मीद से उलट नावेद ने कहा

“ठीक है आंटी। आप नहीं कर पा रहीं तो मैं शूट रोके देता हूं ।

तब तक, जब तक कि आपको ना लगे कि अब आप कर सकती हैं ।

हम फिर से वर्कशॉप करेंगे 2 दिन, 4 दिन , महीना – 2 महीना ..। यह प्रोजेक्ट शूट तभी होगा, जब आप रेडी हो जाऐंगी ।

बाय द वे कुछ फ़ुटेज भेज रहा हूँ,

देखिएगा तो ।”

थोड़ी ही देर में छोटी-छोटी क्लिपिंग्स आ गई व्हाट्सएप पर ।

टिंग-टिंग, टिंग-टिंग ..  और जो ये देखी तबस्सुम ने, तो हैरान रह गई।

बहुत बेहतर लग रहा था सब कुछ।

कोई कमी, कोई ग़लती नहीं ..

“या अल्लाह .. ये मैं ही हूं .., कैसा तो पाकीज़ा नूर है चेहरे पे । ये असरदार आवाज़ की मिठास, और ये कॉन्फिडेंस.. ये मुझमें है क्या ?”

तबस्सुम ख़ुद पर मोहित हो गई ।  वह मुस्कुराई।

“इस शैतान बच्चे ने एडिट करके बढ़िया क्लिपिंग्स भेजी हैं चुन-चुन के ।” 

अगले दिन ब्रेक रखा गया ।

कफ़ील को कॉलेज से घर बिठा कर उसकी मदद से .. जो सारा दिन रगड़ के प्रैक्टिस की तबस्सुम नें .. तो अगले दिन के शूट का रिज़ल्ट ही कुछ और था ।

एक्सटीरियर था आज ,

अलग-अलग जगह जाना था, अलग अलग तबीयत और तर्बियत वाली औरतों से बात करनी थी, जिसकी कोई तयशुदा स्क्रिप्ट नहीं हो सकती थी ।

और ये ठीक ही लगा तबस्सुम को, कोई रट्टा नहीं मारना .. बस बहाव के साथ होश और जोश बनाए रखना है । आज रम गई तबस्सुम । आज एक पल को भी नहीं लगा उसे .. कि उससे नहीं होगा ।

फिर तो दौड पड़ी गाड़ी । ग़ज़ब रंग ले रही थी डाक्यूमेंट्री । सभी दिलो- जान लगा कर .. अपना बेस्ट दे रहे थे ।

दिन-ब-दिन तबस्सुम के कॉन्फिडेंस,  उसकी परफ़ॉर्मेंस में निखार आता गया,  इस क़दर कि इस डाक्यूमेंट्री की जान इसकी ऐन्कर हो गई।

किसी दिन शूटिंग से ब्रेक होता तो उसे अच्छा ना लगता ।

यूँ भी घर पे सीधे मुंह कोई बात ना करता ।

अशरफ़ी ख़ाला ही बस सारी लगाई बुझाईयाँ सुनाती रहतीं .. तो उसका मन थोड़ा कसैला सा हो जाता ।

शूट वाले दिन.. अक्सर सुबह जल्दी उठ कर , कुछ बढ़िया सा बनाकर टीम के लिए ले जाती । टीम में सभी यंग और मस्तमौला बच्चे थे .. तबस्सुम की उम्र जैसे भुला गई थी, इनके बीच ।

कितनी तरह की, कैसी कैसी औरतों/लड़कियों से मिली वह शूट के दरमियान। एक तरफ़ अपनी मर्ज़ी से हिजाब पहनकर बड़े-बड़े बिजनेस हैंडल करने वाली एंटरप्रेन्योर, बड़े पदों तक पहुँची मुस्लिम वुमन ।

स्कूल-कॉलेज -मदरसों में पढ़ने वाली बच्चियाँ, पढ़ाने वाली टीचर्स,  प्रिन्सिपल, डॉक्टर्स, वकील .. ख़ुद को हिजाब में सेफ़ महसूस करती जवान और बुज़ुर्ग घरेलू औरतें ।

तो दूसरी तरफ़ .. वो औरतें और लड़कियाँ जिन्होंने अपनी मर्ज़ी से हिजाब/नक़ाब/बुर्क़े को अलविदा कहा या करना चाहती हैं ।

वजह अलग-अलग थीं, लेकिन सब जायज़ थीं।

इनमें सबसे यादगार मुलाक़ात.. डी आई जी रेंक की एक अफ़सर से रही, और हिजाब पहनकर रेलगाड़ी चलानें वाली एक जांबाज लड़की से भी ।

जैसे-जैसे शूट आगे बढ़ रहा था अलग-अलग ख़्याल और तर्क सुनकर तबस्सुम कभी अपने हिजाब पहनने को लेकर फ़ख़्र महसूस करती तो कभी ख़ुद में शर्मिंदगी भी ।

वो सोचती .. , कैसे तो कुएं के मेंढक बने रहते हैं हम ।

बस जो सोचते हैं, जितना सोचते और मानते हैं,  चाहते हैं सब वही मानें .. और उतना ही जानें ।

हममें से ज़्यादातर लोगों की ज़िंदगी जीने की हसरतें,  हमारा तौर तरीक़ा इतना मशीनी इतना कॉपी-पेस्ट क्यों है !!!

वक़्त के साथ हर चीज़ बदलती है .. समाजी और मज़हबी अक़ीदों में फ़्लेक्ज़िब्लिटी रखने की गुंजाइश इतनी कम क्यूँ है !!!?

कितने ही सवालों की गिरह खुल रही थी इस शूट के दरमियान ।

हिजाब में होने की वजह से, तीखी बोली की शिकार भी हुई ।

किसी नें बदतमीज़ी से कहा ..  कि “आप बताओ मैडम ..,  आपका स्टेंड क्या है हिजाब पर ? “

कोई  औरत “हिजाब वाली तबस्सुम” पर ज़ोर के गोले-बम दागने लगतीं .. कि

“पहले ख़ुद तो सात परदों से बाहर आइये मोहतरमाँ ..,

तब करेंगे बात आपसे हिजाब पर ।”

उसका दिल मचलता .. कोई करारा जवाब देने को ..,

लेकिन नावेद का कॉन्सेप्ट क्लियर था, कि “इस डॉक्यूमेंट्री में शब्दों के मार्फ़त हमारा अपना कोई ओपिनियन शामिल नहीं होगा ।

ये डाक्यूमेंट्री ..ईमानदारी से ..  हर तरह के पॉईंट ऑफ़ व्यू का कोलाज होगी । बस हमें कुरेदना है उन्हें .. फ़ेवर में रहेकर भी, कुछ तल्ख़ सवालों के साथ भी ।

ये हम देखने वालों की समझ और संवेदनशीलता पे छोड़ देंगे .. कि उनके ज़हेन को क्या और कितना टच करता है ।” 

सो.. अपने डायरेक्टर की इन्सट्रक्शन्स बख़ूबी निभा रही थी तबस्सुम ।

नई नस्ल के नए बच्चों की सोच के साथ क़दम ताल मिलाते हुए उसके अंदर एक नया जोश और कॉन्फ़िडेंस जन्म ले रहा था ।

इसका असर यह था कि वो घर वालों को नाराज़ करने के अपने गिल्ट से बाहर आ रही थी ।

वर्ना तो सारी ज़िंदगी .. ये बुरा ना मान जाए, उनकी ख़िदमत में कोई कमी ना रह जाए । इसी फ़िक्र में हलकान रहती ।

यूँ ओढ़ने-पहनने- खाने की कोई कमी ना थी ,

लेकिन पिछले दिनों उसने सबका जो रवैया देखा .., उसकी ज़रा फ़िक्र ना थी किसी को ।

इतने दिनों किसी ने ख़ुश दिली से एक बार न पूछा” कैसा चल रहा शूट ?  मज़ा आ रहा तुम्हें ? “

क्या ही कमाल है .. कि उसके दिल में ये बात उठती ज़रूर है अब,  लेकिन पहले की तरह तकलीफ़ नहीं दे रही ।

ख़ुद अपने गिल्ट से बाहर आई , और क़िरदार में चमक आई तो .. घर वालों की आँखें भी चुंधियाईं। 

भले ही उससे सीधे मुंह बात ना करें सब..  लेकिन शर्मिंदगी का एहसास नहीं करवा पा रहा था अब कोई उसे । बल्कि उसे महसूस हो रहा था कि उसका भी एक मक़ाम है इस घर में । एक अपना स्पेस है ।

शूट ख़त्म हुआ तो पोस्ट प्रोडक्शन में भी नावेद ने तबस्सुम पर कुछ ज़िम्मेदारियाँ डाल दीं । जिनमें कोई उम्दा सा टाइटल सजेस्ट करना भी शामिल था ।

तबस्सुम ने सुझाया “रंग-ए-हिजाब” ।

और कंप्लीट होने के बाद “रंग-ए-हिजाब” ने जब फ़िल्म फ़ेस्टिवल्स में शिरकत करनी शुरू की, तो छा गई ।  इसे बेइंतेहा एप्रीशिएट किया गया ।

सबसे ज़्यादा तारीफ़ तबस्सुम को मिल रही थी ।

पहली बार अपने लिए बजी तालियाँ मुसल्ले पर बैठी तबस्सुम के कानों में गूंज उठी । उसका रोम रोम फिर बाँसुरी सा बज उठा ।

ख़ुदा का शुक्रिया अदा करते हुए उसका सिर फिर सजदे में जा लगा ।

हिजाब पहने अपनी टीम के साथ जब वो फ़ेस्टिवल्स में शामिल होती । तो दर्शक घेर लेते उसे , आदत ना थी , ऐसी तवज्जोह की । एक नया एहसास था ये उसके लिए। फिर ज़ोर देने पर ऑडियंस के सामने अपने अनुभव भी साझा करने लगी वो ।

नावेद अपने इंटरव्यूज़ में उसे साथ रखता ।

एहतेशाम भाईजान की तरह जब टी वी न्यूज़ चैनल में नावेद के साथ पहली बार वो इंटरव्यू देती नज़र आई .. तो मुआशरे में उसका वक़ार बढ़ गया था ।

घर में सबके रवैये में भी वह पॉज़िटिव फ़र्क महसूस कर रही थी ।  जो उसे अच्छा लग रहा था, बस दिल नहीं मिल रहा था किसी से .. पहले जैसा ।

ऐसे में ख़बर आई कि राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए एंट्रीज़ ओपन होने जा रही है ।

इतने तगड़े कॉम्पीटिशन में पूरे देश से आई हुई ऐंट्रीज़ के बीच अपनी फ़िल्म भला कहाँ टिक पाएगी .. इस निगेटिव थॉट के बावजूद.. नावेद ने तबस्सुम के कहने पर बग़ैर हो-हल्ला किये चुपचाप डॉक्यूमेंट्री सबमिट करने का मन बनाया ।

यह बहुत बड़ी बात थी,  तबस्सुम नावेद के लिए बहुत ख़ुश थी उसे यक़ीन था फ़िल्म नॉमिनेट होगी ..

और वो हुई। 

उम्मीद के सबसे ऊँचे पायदान पे थे अब सब ।

सबको बेसब्री से उस दिन का इंतेज़ार था जब रिज़ल्ट डिक्लेयर होंगे….,

और आज वही दिन था ।

रिज़ल्ट अनाउंस हुए । डॉक्यूमेंट्री कैटेगरी में  “रंग-ए- हिजाब” को बेस्ट डॉक्युमेंट्री के ख़िताब से नवाज़ा गया ।

यह ख़बर तबस्सुम के लिए ऐसी थी जैसे जीते जी ख़ुदा ने जन्नत के दरवाज़े खोल दिए हो ।

वह ख़ुदा की बारगाह में सजदे में पड़ी बस ख़ुशी से काँपे जा रही थी , रोए जा रही थी जाने क्या-क्या कहे जा रही थी ।

अल्लाह ताला से शुक्रिया शुक्रिया लफ़्ज़ शायद सौ बार से ऊपर कह चुकी होगी अब तक ।

सजदे में ही पड़े हुए उसे नॉन लीनियर वे में जाने क्या- क्या याद आ रहा था.. ।

बचपन, शादी, ख़ुशहाल ज़िंदगी, दर्द के पहाड़, फिर सब की चाकरी और ज़िन्दगी का ये सबसे बेहतरीन फ़ेज़ ।

क्या ये अल्लाह की रज़ा का सिला नहीं ?

इतनी बड़ी ख़ुशी, कला का सर्वोच्च पुरस्कार, ख़ुद राष्ट्रपति के हाथों !!!!!

नावेद चाहता है.. बतौर “को प्रोड्यूसर” तबस्सुम रिसीव करे।

“ओ बच्चे ख़ुश रहो .. मेरी उम्र तुम्हें लग जाए। “

तबस्सुम को एहसास था.. कि बार-बार कमरे के दरवाज़े तक फ़ोन पर बात करते ..  हंसते खिलखिलाते,  ख़ुशी से गदगद कोई ना कोई आता , लेकिन इसे सजदे में देख .. बाद में बात कराने का कह .. वापस लौट जाता ।

अभी अभी ख़ुशी से फूली ना समा रही चच्ची लौटी थीं ..

कि तभी कफ़ील आया ,

“उठिए अम्मी ..

आवाज़ में फ़ख़्र और छेड़ एक साथ थी ।

“ये वक़्त बन्दों से मिलने का है ।अल्लाह ताला यहीं है,  इंतेज़ार कर लेंगे ।” 

तबस्सुम मुस्कुरा दी । एक नन्हा सा, ममता से लबरेज़ आँसु फिर गाल पर ढुलक आया,

” जल्दी उठिए तैयार हो जाईये … कुछ मीडिया वाले घर आ रहे हैं आपका इंटरव्यू करने “।

दिल धड़का तबस्सुम का ज़ोरों से । अबसे पहले ऐसा सिर्फ़ भाई जान के लिए होता था ।

कफ़ील निकला,  तबस्सुम उठी, दरूद शरीफ़ पढ़ा, सलाम फेरा, जा-नमाज़ लपेटी , थोड़ी देर यूँ ही बैठी रही ..

कि तभी बड़ी भाभी कमरे में दाख़िल हुईं । बहुत ख़ुश थीं वो,

बेइंतहा ख़ुशी भरी जिस नज़र से उन्होंने तबस्सुम को देखा, फिर नज़र चुराने की कोशिश की .. जाने क्या हुआ तबस्सुम को .. वह आगे बढ़कर बड़ी भाभी जान के गले जा लगी और फूट फूटकर रो पड़ी ।

उसे आज ही पता चला , भाभी जान ने चमेली वाले बाबा की दरगाह पर मन्नत मांग रखी थी .. तबस्सुम की जीत के लिए। 

भाभी भी रो रही थीं , और इसके आंसू पोंछ रही थीं ,  और कह रही थी “हमें फ़ख़्र है दुल्हन तुमपे,

हम घर की औरतों की बेड़ियाँ काट दीं तुमने  ।” 

भाभी जान के ये बोल .. और बावर्ची खानें से उठती शाज़िया के हाथ के ज़ाफ़रानीं ज़रदे की ख़ुशबू .. घुलमिल कर

तबस्सुम के पसंदीदा लाहौरी लोबान से ज़्यादा अच्छा अरोमा तैयार कर रही थीं ।

नहा धोकर और तैयार होकर जिस वक़्त तबस्सुम कमरे से बाहर निकली, नावेद अपने मीडिया वाले दोस्तों के साथ यहाँ पहुँच चुका था ।

उसने एहतेशाम भाई को भी इस इंटरव्यू में शिरकत करने की दावत दी, जो उन्होंने बा-ख़ुशी क़ुबूल की । 

जबसे ब्याह के आई है .. आज पहेली बार .. तबस्सुम और एहतेशाम भाई.. साथ-साथ आसपास पड़ी कुर्सियों पर बैठे हैं ।

इंटरव्यू में तबस्सुम से जो पूछा गया, उसने जो कहा , वो सब दीगर बात है, सबसे बड़ी ख़ुशी तबस्सुम को तब हुई जब एहतेशाम भाई ने डिप्लोमेटिक हुए बग़ैर ये कहा कि “मुआशरा एक बड़े कमरे की तरह होता है । जिसमें जगह बहुत है .., लेकिन इसके दरवाज़ों के कल्लों में ज़ंग भी बहुत है । जब ज़ंग लगे बंद दरवाज़े ना खुलें तो कोई झरोखा, कोई खिड़की तेज़ी से भड़भड़ानी चाहिए, जब वह खिड़की खुलती है तो कमरा र‌ौशनी और हवा से भर जाता है.. और तबस्सुम हमारे घर की वैसे ही खिड़की है ।” 

भाई जान की ज़बान से अपने लिए ये सुनना .. किसी  पुरस्कार से कम ना था ।

तबस्सुम का जी चाहा .. भर नज़र एक बार भाईजान के चेहरे को देखे ,

उसने देखा .. आज कुछ ऐसा था इस चेहरे में जिसे साफ़ पढ़ा जा सकता था,

वो ही जो कफ़ील, नावेद और बड़ी भाभी के चहेरों पे था तबस्सुम के लिए.. फ़ख़्र और बहुत सारा प्यार। 

तभी तबस्सुम के ज़हेन में एक “कुफ़्र अंगेज़” ख़याल कुलबुलाया ..

“अगर मैं फ़िल्म एप्रीसिऐशन कोर्स के लिए इसी वक़्त भाईजान से परमीशन मांग लूँ .. तो इनका रिएक्शन क्या होगा ?”

कैमरों के फ़्लैशेज़ चमक रहे थे ..

नावेद फ़िल्म की जर्नी के बारे में बता रहा था .. और तबस्सुम इस बार तमाम घर वालों के रिएक्शन्स की कल्पना कर .. मुस्कुरा रही थी, मुस्कुराऐ जा रही थी।

       ************************

लेखिका

आसिफ़ा कायनात

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!