प्यार है,भेदभाव नहीं – विभा गुप्ता

 बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी ‘गोल्डन टेम्पल’ देखने की।कभी बच्चों की परीक्षाएँ हो जाती तो कभी पति को ऑफ़िस से छुट्टी नहीं मिलती और हमें अपना बनाया हुआ प्रोग्राम कैंसिल कर देना पड़ता था।अब इन ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो गये तो पिछले दिसम्बर में हमने अमृतसर जाना तय किया और वो भी ट्रेन से क्योंकि हम यात्रा का आनंद लेना चाहते थें।

            दिल्ली से हम अमृतसर शताब्दी एक्सप्रेस में बैठ गये।चेयरकार वाली इस ट्रेन में हमें टेबल वाली सीट मिली थी।हमारे सामने वाली सीट पर पतली किनारी की सूती साड़ी पहने एक वृद्धा बैठी हुईं थीं।मैं ठहरी बोलने वाली, सो उनसे पूछने लगी कि आप कहाँ जा रहीं हैं,आपके साथ कौन है, वगैरह-वगैरह..,तभी तीस-बत्तीस वर्ष की एक महिला आई जिसने हल्के नीले रंग का सलवार-कमीज पहना था और सलमा-सितारे वाले दुपट्टे से अपने सिर को ढ़क रख रखा था।वृद्धा से पूछने लगी कि सीट ठीक है ना अम्मी या…। 

” ठीक है बेटी,अब तै भी आकर बइठ जाओ।”कहते हुए वृद्धा ने महिला को हाथ पकड़कर बैठा दिया।

              केटरिंग वाला चाय दे गया तो वृद्धा चुपचाप चाय पीने लगीं और महिला भी चाय पीते हुए किताब पढ़ने लगी जो उर्दू भाषा में लिखी हुई थी।अम्मी-अमृतसर का तालमेल मुझे समझ नहीं आ रहा था।ट्रेन चल रही थी और मेरे मन में क्या- कैसे के अनगिनत सवाल उठ रहे थें।जब टीटी साहब टिकट चेक कर चले गए तो मैंने थोड़ा हिचकते हुए महिला से पूछ ही लिया कि आप दोनों….एक साथ… अमृतसर..।मैं बहुत कन्फ़्यूज़ हूँ।

          सुनकर महिला हँसने लगी।बोली, ” मैं जानती हूँ कि आपके मन में हमारे रिश्ते को लेकर कई प्रश्न उठ रहें हैं, परन्तु मैम ये तो एक लंबी कहानी है, आप सुनना चाहेंगी?” उसकी बातों से स्पष्ट था कि वो अपने बारे में बताने के लिए बहुत उत्सुक है।मैं भी तो अपने मन में उठ रहे सवालों के जवाब जानना चाहती थी।मैंने देखा कि पतिदेव किताब पढ़ने में तल्लीन हैं, संभवतः उन्हें सोने में वक्त भी नहीं लगेगा,वृद्धा भी अपने आँचल के अंदर हाथ में एक माला जप रहीं थीं।चार की ही सीट थी तो मैंने उनसे कहा कि ज़रूर सुनूँगी लेकिन आप मुझे मैम नहीं, आंटी कहेंगी।

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        पहले की तरह ही हँसते हुए बोली, ” आंटी, कुछ रिश्ते ख़ुदा(ईश्वर) स्वयं बना देते हैं, मेरे जीवन के तीनों रिश्ते ख़ुदा की नेमत(कृपा)है|”

  ” मैं समझी नहीं ” मैंने कहा तो कहने लगी,” मेरा नाम रज़िया है।मेरी पैदाइश के साल भर बाद ही मेरी अम्मी अल्लाह को प्यारी हो गईं, रिश्तेदारों ने बहुत कहा लेकिन अब्बू ने दुबारा निकाह (विवाह)नहीं किया।रिश्ते की चची जान मेरा पालन-पोषण करने लगीं।मैं पाँचवीं जमात में थी, संपत्ति के लिए अब्बू के रिश्तेदारों ने उन्हें ज़हर दे दिया।चची मुझे अपने घर ले आईं,कुछ दिन तो ठीक रहा लेकिन फिर मेरे साथ उनका व्यवहार बदलने लगा।अपने बच्चों को खिलाने के बाद ही मुझे खाना देती,कभी मिलता तो कभी नहीं।उनके बच्चे कुछ तोड़ देते और मार मुझे पड़ती थी।यूँ समझिये आँटी कि मैंने वहाँ खाना कम ,गालियाँ अधिक खाईं थी।उनकी नफ़रत और भेदभाव पूर्ण रवैये से तंग आकर एक बार तो मैंने आत्महत्या करने की भी कोशिश की लेकिन ख़ुदा को ये भी मंजूर न हुआ।” कहते हुए उसकी आँखें नम हो गई।

       केटरिंग वाला नाश्ता देने लगा तो रज़िया अपनी अम्मी के साथ नाश्ता करने लगीं।हम भी नाश्ता करने लगे लेकिन मेरा मन आगे जानने के लिये बहुत उत्सुक था।मेरे पति फिर से किताब पढ़ने लगे और रज़िया की अम्मी माला फेरने लगीं।

            ” लेकिन ये आपकी अम्मी कैसे बन गईं?” मैंने वृद्धा की तरफ़ इशारा करते हुए आश्चर्य-से पूछा तो कहने लगी, ” दसवीं के बाद चची ने मेरी पढ़ाई बंद करवा दी और मैं उनके घर की फुल टाइम मेड बन गई।खाना,कपड़ा और घर की साफ़-सफ़ाई से थककर चूर जब रात को आराम करने लगती तो चची अपने हाथ-पैरों की मालिश करने के लिए आवाज़ लगा लेती।एक दिन चची की निगाह मेरे हाथ पर पड़े सफ़ेद दाग पर पड़ी।उन्होंने सोचा,कुछ दिनों में अपने-आप ठीक हो जायेंगे, लेकिन जब वो दाग मेरे चेहरे और पैरों पर भी होने लगे तो उन्होंने छूत की बीमारी समझकर मुझे घर से निकाल दिया।मैं इधर-उधर भटकती रही,कभी रेलवे-स्टेशन मेरा आसरा होता तो कभी मस्जिद-मज़ार को अपना बसेरा बना लेती।मेरे चेहरे के दाग देखकर लोग मुझसे दूर भागते,घृणा करते।फिर एक भलेमानुष ने मुझे एक अस्पताल का पता बताया जहाँ मेरे दाग का इलाज होने लगा।” कहकर उसने एक ठंडी साँस ली।

    अपनी अम्मी को दवा खिलाकर फिर बोली, ” आँटी, उस अस्पताल में मुझे एक फ़रिश्ता मिला।”

” फ़रिश्ता!” मैंने आश्चर्य-से पूछा

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” हाँ, फ़रिश्ता।डाॅक्टर सुनील एक फ़रिश्ता ही तो थें।उनके हाथों में सचमुच का जादू था।उनके इलाज से मेरे दाग ठीक होने लगे,मैं स्वस्थ होने लगी,  तब मैंने निश्चय किया कि यहीं रहकर मैं मरीजों की सेवा करूँगी।वहाँ जाति-धर्म,छूत-छात,अमीर-गरीब का कोई भेदभाव नहीं था।छोटा-बड़ा सब एक समान।सब एक-दूसरे से बात करते,एक-दूसरे की तकलीफ़ को छूकर महसूस करते।उनकी सेवा करके मुझे बहुत सुकून मिलता था।डाॅक्टर साहब के एक मित्र थें रफ़ीक, वे भी उसी अस्पताल में छोटे बच्चों का इलाज करते थें।कभी-कभी मेरा उनसे सामना हो जाता था।एक दिन डाॅक्टर सुनील ने मुझे बताया कि रफ़ीक मुझसे निकाह करना चाहते हैं तो मैं चौंक गई।

       मैंने डाॅक्टर रफ़ीक को अपने बारे में बताते हुए उन्हें अमीरी- गरीबी,ऊँच-नीच की दीवार का वास्ता दिया तो वे मुस्कुराने लगे,बोले कि मेरे अम्मी-अब्बू ने मुझे अनाथालय से गोद लिया था तो मैं निरुत्तर हो गई और फिर महीने भर के अंदर ही हमारा निकाह हो गया और मैं उनकी शरीके हयात(पत्नी) बन गई।”

          मेरे प्रश्न का उत्तर रज़िया ने अभी भी नहीं दिया था।मैं अपना प्रश्न दोहराती कि कुछ याद करते हुए वो   बोली, ” रमज़ान का महीना चल रहा था,हम दोनों शुक्रवार की नमाज़ पढ़कर मस्ज़िद से लौट रहें थें तो मंदिर की सीढ़ी पर इन्हें अकेली बैठे देखा तो हम स्वयं को रोक न सके।पास जाकर नाम-पता पूछा लेकिन इन्होंने कोई ज़वाब नहीं दिया।आस-पास वालों ने बताया कि ये तो दो दिनों से यहीं बैठी हैं,शायद किसी अपने का इंतज़ार कर रहीं हैं।रफ़ीक शायद सबकुछ समझ गयें थें, इसलिए हम उन्हें अपने साथ ले आयें।दो-तीन दिनों तक हम इन्हें मंदिर ले जाते,कुछ देर इंतज़ार करते और फिर चले आते।हमने पुलिस को भी इत्तला कर दिया था,फिर भी जब कोई इनकी खोज-खबर लेने नहीं आया तो फिर ये मेरी अम्मी बन गई और मैं इनकी बेटी।हम जब भी अम्मी से उनके घर अथवा घरवालों के बारे में पूछते तो वो फूट-फूटकर रोने लगतीं तो हमने पूछना छोड़ दिया।मैं नमाज़ पढ़ती हूँ और अम्मी अपने भजन सुनती हैं।दीपावली-ईद हम साथ मिलकर मनाते हैं।” कहते हुए रज़िया का चेहरा खुशी से चमक उठा था।

मैंने पूछा, ” और आपके बच्चे?” 

” है ना आंटी,एक बेटा…।जाॅन नाम है उसका।दिल्ली के एक बोडिंग स्कूल में पढ़ता है।”

” जाॅन!.. ” नाम सुनकर मैं फिर चौंक गई।रज़िया हँसने लगी,बोली, ” मैं जानती थी कि जाॅन का नाम सुनकर आप चौंक जाएँगी।”

” आप ज़रा खुलकर बताएँगी रज़िया।”

” जी आंटी ” हल्की-सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर थी।बोली, ” तीन साल पहले की बात है,अस्पताल में एक बीमार महिला इलाज के लिए लाई गई थी।उसकी स्थिति नाज़ुक थी, उसके छह साल के बेटे के अलावा और कोई उसके साथ नहीं था।महिला का इंतकाल(मृत्यु)हो गया।गले में क्रास का लाॅकेट देखकर अस्पताल वालों ने उसे तो दफ़ना दिया लेकिन बच्चा अकेला रह गया।रफ़ीक तो बच्चों के ही डाॅक्टर हैं, उसे अपने साथ ले आयें।पहले दिन तो वह बिल्कुल शांत रहा,फिर अम्मी के साथ खेलने लगा और तब अपना नाम जाॅन बताया।दो-तीन दिनों में ही जाॅन हम सब की आँखों का तारा बन गया।

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           आंटी,जाॅन को कानूनी रूप से गोद लेने में हमें परेशानी तो बहुत हुई, दोनों समुदायों का दबाव भी बहुत था पर कहते हैं ना,ख़ुदा अपने बंदों के साथ हमेशा रहता है।अल्लाह की मेहरबानी से चार महीने पहले ही सारी कानूनी प्रक्रिया पूरी हुई है।उसे अच्छी तालीम मिले, इसीलिए हमें उसे बोडिंग में डालना पड़ा।जाॅन के आने से अब हम क्रिसमस का त्योहार भी मनाने लगे हैं।”

” अच्छा, तो फिर अमृतसर जाना…”

” नहीं- नहीं आंटी,हमें अमृतसर नहीं जाना।हम तो जालंधर उतर रहें हैं।कुछ महीनों पहले ही जालंधर के हाॅस्पीटल में रफ़ीक की पोस्टिंग हुई है।” कहते हुए उसने अपनी अम्मी को धीरे-से कहा, “अम्मी, स्टेशन आ रहा है,आप अपनी माला संभाल कर रख लीजिये।”

        रज़िया बर्थ के नीचे से बैग निकालने लगी तो मैंने कहा, ” आखिरी सवाल, आप सभी अलग-अलग धर्म के हैं तो किसी तरह का क्लेश या भेदभाव…।” सुनकर वह हा-हा करके हँसने लगी।उसकी उन्मुक्त हँसी ने मेरे प्रश्न का उत्तर दे दिया था।बोली, ” आंटी,हमारा परिवार विभिन्नता में एकता है। गीता,कुरान हो या बाइबिल, संदेश तो प्रेम का ही देते हैं।त्योहार कोई भी हो,सभी हमारे जीवन में खुशियाँ ही लाता है तो फिर क्लेश कैसा? हमारे बीच तो आंटी, सिर्फ़ प्यार है,एक-दूसरे के लिए सम्मान हैं। भेदभाव जैसे अलगाववादी शब्द का तो हमारे जीवन में स्थान है ही नहीं, आप भी दूर ही रहियेगा।” मुस्कुराते हुए उसने मुझे ‘ख़ुदा हाफ़िज़ ‘ कहा और एक हाथ में बैग,दूसरे हाथ से अपनी अम्मी का हाथ पकड़कर ट्रेन से नीचे उतर गई।

     मैं सोचने लगी, हम तो अपने रिश्तों में,बेटे-बेटी,छोटे-बड़े,गरीब-अमीर, जाति-धर्म,छूत-अछूत जैसे जाने कितनी ही बातों में भेदभाव करने के बहाने ढूँढते हैं लेकिन रज़िया-रफ़ीक का अपनी अम्मी और बेटे जाॅन के साथ जो स्नेह भरा रिश्ता है वो समाज के लिए एक प्रेरक उदाहरण है।अपनी मानसिक विसंगतियों के कारण हम न जाने कितने वर्गों में बँट गये हैं लेकिन रज़िया ने ऐसा नहीं किया,उसने तो सबको एक सूत्र में बाँध दिया था।कितने प्यार से उसने कहा था ,  “आंटी,सब तो अपने हैं, ईश्वर-अल्लाह में कोई भेद नहीं तो इंसानों के बीच भेदभाव कैसा।” 

       जाते-जाते रज़िया मेरी आँखों पर पड़े भेदभाव के परदे को हटा गई।

                          — विभा गुप्ता 

       # भेदभाव         स्वरचित 

              भेदभाव करना, समाज के लिए एक अभिशाप है जो विकास में बाधक है। इस दुर्भावना को जड़ से मिटाना,हम सब की ज़िम्मेदारी है।रज़िया की तरह सभी को गले लगाना है।

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