काफी पुराना किस्सा है। मेरी दादी की एक पक्की सहेली थी जिनका नाम था सरला। उनके बड़े बेटे सुनील का विवाह हो चुका था और अब उनके छोटे बेटे हितेश की शादी थी। हमारे घर विवाह का निमंत्रण पत्र आ चुका था। दादी की सहेली को हम लोग दादी जी ही बुलाते थे।
मेरे डैडी जी को ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल रही थी और चाचा जी दुकान छोड़ ना नहीं चाहते थे। मम्मी और चाची को छोटे भाई बहनों को स्कूल भी भेजना था। इसीलिए यह तय हुआ कि दादी जी के साथ मैं और मेरी चचेरी बहन शादी में दिल्ली जाएंगे।
पुराने समय में मेरठ से दिल्ली जाना मुश्किल लगता था। उसे समय कैब की कोई सुविधा नहीं होती थी और बसों में बहुत भीड़ होती थी। लेकिन हम शादी में जाने के नाम से बहुत उत्साहित थे। हमें भीड़ की कोई चिंता नहीं थी। हमें घूमने को मिल रहा था और तीन-चार दिन स्कूल से छुट्टी यही हमारे लिए सबसे खुशी की बात थी।
सुबह-सुबह हम बस में बैठ गए और बस चल पड़ी। पूरे रास्ते बातें करते और बाहर के नजारे देखते हुए, दो ढाई घंटे के बाद हम बस से उतरे। बस से उतरने के बाद हम जिद पर अड़ गए कि दादी हम थक गए हैं अब हम आगे किसी और बसमें नहीं चढ़ सकते अब आप ऑटो कर लो। दादी ने हमारी बात मानते हुए ऑटो वाले से पैसे तय कर लिए और हम तीनों ऑटो में बैठ गए। बस अड्डे से लाजपत नगर पहुंचने में काफी समय लग गया।
दादी जी की सहेली यानी की छोटी दादी हमें देखकर बहुत खुश हुई। उनके घर पर बहुत सारे मेहमान आए हुए थे। मैं और मेरी चचेरी बहन इतने सारे मेहमानों को देखकर थोड़ा हिचकिचा रहे थे और बात करने में शरमा रहे थे लेकिन बाद में धीरे-धीरे हमारी सबसे जान पहचान हो गई और हम सबके साथ घुल मिल गए।
छोटी दादी ने हमें आलू की सब्जी और पूरी का स्वादिष्ट नाश्ता खिलाया।
थोड़ी देर बाद रिक्शावाला सब्जी की बोरियां लाद कर ले आया।
पुराने समय में घर की औरतें हलवाई को सब्जियां काट कर देती थी और चावल भी साफ करने होते थे। घर की सारी औरतें एक गोल घेरा बनाकर बड़े-बड़े बर्तन लेकर सब्जियां काटने बैठ गई। कोई फूल गोभी काट रहा था तो कोई आलू। हम बच्चों को भी मटर छीलने में बहुत मजा आ रहा था। सब्जियां काटते काटते खूब हंसी मजाक चल रहा था और सब हितेश भैया की टांग खींचने में लगे हुए थे।
थोड़ी देर बाद जो भी बच्चे थे, वे सब इस काम से बोर हो गए और खेलने के लिए कुछ ढूंढने लगे। तब छोटी दादी ने कहा कि तुम लोग छत पर चले जाओ। छत बहुत बड़ी है वहां जाकर खेलो। हम सब बच्चे वहां पर चिड़िया उड, स्टॉपू,गिटटे खेलने लगे। वहां छत पर सुंदर-सुंदर फूलों के बहुत सारे गमले भी थे। वहां एक गुलाब का बहुत सुंदर पौधा था और एक पौधा हरी मिर्च का भी था। लगभग एक घंटा खेलने के बाद हम लोग वापस आ गए क्योंकि हमें भूख लग रही थी। दोपहर हो चुकी थी। तभी हलवाई ने कहा कि खाना तैयार है। सब ने आलू गोभी, मटर पनीर, चावल और रायते का लुत्फ उठाया।
फिर छोटी दादी ने अगले दिन जो पूजा होने वाली थी, वो सारा सामान एक जगह अच्छी तरह एकत्र करके रखा ताकि उसे समय कोई परेशानी ना हो। अगले दिन सुबह पंडित जी हितेश भैया से पूजा करवाने वाले थे। उस समय सबके घरों में टेलीविजन और टेप रिकॉर्डर नहीं होते थे। विवाह वाले घर में या किसी अन्य खुशी में सब लोग स्वयं ही गाने गाते थे और ढोलक बजाते थे। साथमें सब तालियां बजाकर साथ देते थे।
रात को सब लोग मजेदार संगीत के लिए तैयार थे। मामी जी को चिमटा और बुआ जी को ढोलक पकड़ा दी गई। बुआ जी ने खूब बढ़िया ढोलक बजाई और बहुत सारे सिंधी गाने (लाडे) गाए। बहुत सारे रिश्तेदार झूम-झूम कर नाच रहे थे।
तब मैंने धीरे से छोटी दादी से कहा-“दादी क्या मैं कुछ सुनाऊं?”
छोटी दादी तो बहुत खुश हो गई और मेहमानों से बोली-“बच्चे कुछ सुनना चाहते हैं।”सारे मेहमान हमारा उत्साह बढ़ाने लगे। मैं स्कूल में एक कव्वाली सीखी थी। वही कव्वाली मैं अपनी चचेरी बहन के साथ मिलकर मेहमानों के सामने सुनाई।
मैं और मेरी चचेरी बहन अपने दोनों हाथों की छोटी उंगलीमें एक-एक रुमालबांधकर घुटने मोड़ कर, कव्वाली गाने वाले स्टाइल में बैठ गई और कव्वाली शुरू की”ऐसी महंगाई में मेहमान चले आतेहैं
एक को बुलाओ तो चार चले आते हैं।”
इसपूरी कव्वाली को हमने बड़े ही फिल्मी स्टाइल में सुनाया, सारे मेहमान खुशहुए और हंसते-हंसते लोट-पोट हो गए। कुछलोग तो कहने लगे कि क़व्वाली में बच्चों ने सच्ची बात कह दी। स्कूल में सीखी हुई कव्वाली सुना कर, मैं तो सबकी लाडली बन गई। सब रिश्तेदार कह रहे थे इस कव्वाली की वजह से हम इस शादी समारोह को जीवन भर भूल नहीं पाएंगे।
हंसी मजाक में काफीरात हो चुकी थी। सब लोग सोने चले गए क्योंकि सुबह पंडितजी को आना था और सबको जल्दी उठना था।
सुबह दादी जी ने हमें जल्दी उठा दिया। हम पंडितजी के आनेसे पहले नहा कर तैयार हो गए। नियत समय पर पंडित जी आए और उन्होंने दूल्हे से सारी रस्में करवाई। सारी रस्में बताना यहां संभव नहीं लेकिन एक जो की सबसे खास है वह होतीहै सात सुहागनों वाली रस्म।
उसमें पंडितजी सात मुट्ठी गेहूं चक्की में डालते हैं और साथ सुहागनों से सात बार चलवाते हैं। चक्की को सात बार घूमाते हैं। इसी तरह सात साबुत हल्दी की गांठें इमाम दस्ते में डालकर साथ सुहागनों से सात बार कुटवाई जातीहै।
इसके बाद पंडित जीने हितेश भैया को शादी में पहनने वाला नया जूता पहनने को कहा और उन्हें उस जूते की एड़ी से उन्हें मिट्टी का दीपक एक ही बार में तोड़ना था, इसका मतलब था कि सब की बुरी नजर एक हीबार में समाप्त हई।
हम बच्चों को यह सब देखकर बहुत मजाआ रहा था।
अब अंत में आई, हितेश भैया के कपड़े फाड़ने की बारी। हमारे यहां दूल्हे के कपड़े फाड़ने का रिवाज है बाद में उन कपड़ों को यमुना में डाल दिया जाताहै। फटेहुए कपड़े देख कर सब हंस रहेथे। इसका मतलब है कि नए जीवन के साथ नए कपड़े।
शाम को समय से बारात निकाली गई। बारात वधू पक्षके यहां पहुंचने पर वहांभी बहुत सारी रस्में की गई। फूलों की माला से पुरुषोंने आपस में मिलनी की रस्म निभाई।
पंडित जी फेरों की तैयारी करने लगे और बच्चे कुछना कुछ पेटपूजा में लग गए। हमारे खानाखाने केबाद दादी जी ने हमें धर्मशाला के एक कमरेमें सुला दिया। सुबह विदाईके समय हमें जगाया और हम अपनी नई नवेलीप्यारी प्यारी भाभी के साथ नाचते गातेहुए वापस आ गए।
घर पर आकर नई नवेली दुल्हन से भी कुछ रस्में करवाई जाती है उसमें से सबसे प्रमुख है नमक वाली रस्म।
दादीजी ने एक बड़े-से थाल में बहुत सारा नमक डाला। वधू को अपने दोनों हाथोंमें नमक भरकर सामने बैठे देवर,ननद, देवरानी याजेठानी या और कोई रिश्तेदार उन सब को बारी-बारी तीन बार देना होता है वापसी में वे लोग भी देते हैं। इस लेनदेन में नमक गिरना नहीं चाहिए कहते हैं कि इससे आपस में बहुतप्यार बना रहताहै और झगड़े नहीं होते। सब लोग थक चुके थे। नमक वाली रस्म पूरीहोने के कपड़े बदलकर सब सोने चले गए।
सुबह उठने पर सब ने दाल पकवान का नाश्ता किया और गुलाबजामुन भी खाए।
हलवाई ने गुलाब जामुन कुछज्यादा ही सॉफ्ट बना दिए थे। वह गुलाब जामुन चाशनीमें टूट कर घुल गए थे। लेकिन वह बहुत ही स्वादिष्ट लग रहे थे। हम सब बच्चोंने तो कटोरी में भर भर कर खूब खाए।
उसी दिन शामको हम लोग अपनीदादी जी के साथ मेरठ वापस आ गए। उस विवाह में मिले सबके स्नेह और आनंद को मैं आज तक भूल नहीं पाई हूं। पुरानी यादें हैं लेकिन बेहद सुंदर।
स्वरचित, अप्रकाशित गीता वाधवानी दिल्ली