रविवार का दिन था। सप्ताह का वह दिन जब पूरा परिवार आराम से अपनी दिनचर्या के साथ बिता सकता है। अवकाश होने के कारण, मैं उस दिन घर के बरामदे में बैठकर चाय पीने का आनंद ले रहा था। आस-पास का माहौल बेहद शांति से भरा हुआ था। मेरे घर का स्थान सड़क के किनारे था, और जब भी मुझे थोड़ी सी बोरियत महसूस होती, तो मैं बाहर की गतिविधियों को देखता। लोग आ-जा रहे थे, गाड़ियाँ दौड़ रही थीं, और हवा में हल्की सी ठंडक भी थी। सब कुछ सामान्य और सुकून भरा था।
चाय पीने के बाद, मैंने सामने रखे अखबार को उठाया और उसमें दिलचस्प खबरें पढ़ने लगा। इसी बीच, अचानक मेरे कानों में किसी बुजुर्ग आदमी की करुण आवाज सुनाई दी। मैं खड़ा हुआ और देखा कि सामने एक बूढ़ा भिखारी खड़ा था। उसकी स्थिति देख मैं चौंक गया। वह बहुत ही दीन-हीन अवस्था में था। उसके चेहरे पर निराशा और आंखों में एक गहरी उदासी थी। उसकी पोशाक भी बहुत ही खराब हालत में थी—पुरानी धोती और कुरता, जो जगह-जगह से फटा हुआ था, और चेहरा बहुत ही मुरझाया हुआ था।
उसकी हालत देखकर मेरा मन विचलित हो गया। मुझे लगा कि एक इंसान को इस तरह की अवस्था में देखना अत्यंत दुखद है। मैं चाय का कप मेज पर रखकर बाहर की ओर बढ़ा और द्वार खोलकर उससे पूछा, “बाबा जी, इस अवस्था में तुम भीख क्यों मांग रहे हो? क्या तुम्हारे बच्चे नहीं हैं?”
उस बूढ़े आदमी ने मेरी बातों का कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि सिर झुका लिया और जैसे वह कुछ सोचने की कोशिश कर रहा था। फिर उसने धीमे से जवाब दिया, “बेटा, तुम्हारी उम्र के मेरे दो बेटे हैं। दोनों ही सरकारी नौकरी करते हैं, अच्छा खासा कमा रहे हैं, मगर… उन्होंने मेरी देखभाल और खर्च उठाने की जिम्मेदारी से खुद को अलग कर लिया है। इस कारण, मुझे अपनी परवरिश के लिए भीख मांगनी पड़ती है।”
उसकी बातों को सुनकर मुझे गहरा सदमा पहुंचा। मैंने पूछा, “तो क्या तुम्हारी पत्नी का भी साथ नहीं रहा?”
वह बोला, “मेरी पत्नी तो बहुत पहले ही इस दुनिया से जा चुकी है। अब मेरे पास केवल मेरी ही यादें और मेरे दोनों बेटे हैं, जिन्होंने मुझे दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया है।”
उसकी आँखों में घनी उदासी और पीड़ा थी, और उसके चेहरे पर एक गहरी बेचैनी साफ झलक रही थी। मुझे यह सुनकर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि किसी के अपने बच्चे, जो इतने बड़े और प्रतिष्ठित पदों पर काम कर रहे हैं, वे अपने वृद्ध पिता की देखभाल करने से मुँह मोड़ लें। इस सोच ने मेरे दिल को छुआ और मुझे एहसास हुआ कि इस समाज में कितने ऐसे लोग हैं, जिन्हें अपनों से ही तिरस्कार और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।
मैंने उस बूढ़े भिखारी से पूछा, “तो फिर तुम इस हालात से कैसे निपटते हो?” वह बोला, “बेटा, जो भगवान ने दिया, वही पर्याप्त होता है। अब मैं दिन-रात यहीं सड़कों पर चलता हूँ, और जो लोग मुझे कुछ दे देते हैं, उसी से मेरा पेट भरता है। मगर सच कहूँ तो, इस उम्र में किसी को खुद की परवाह नहीं होती। सिर्फ अपने ही कामों में व्यस्त रहते हैं लोग।”
उसकी बातों ने मेरे दिल को झकझोर दिया। जीवन के इस मोड़ पर आकर, जब एक व्यक्ति को अपने ही बच्चों से इस तरह का तिरस्कार सहना पड़े, तो उसके लिए जीवन जीना कितना कठिन हो सकता है, इसका मुझे ताज्जुब हुआ। जब तक कोई युवा था, तब तक उसके पास उम्मीदें और सपने होते हैं, लेकिन बुढ़ापे में वह सब समाप्त हो जाता है। एक बुजुर्ग का जीवन कभी कभी पतझड़ के समान हो जाता है, जहाँ सभी उसे अकेला छोड़ देते हैं और उसकी महत्ता खत्म हो जाती है।
मैंने उसे कुछ रुपये और वस्त्र दिए, ताकि वह थोड़ा आराम महसूस कर सके। लेकिन जाते हुए उसने जो शब्द कहे, वह मेरे दिल में गहरे समा गए। वह बोला, “बेटा, बुढ़ापा की जिंदगी सच में पतझड़ जैसी होती है। इस उम्र में अपने ही साथ छोड़ देते हैं। जब तक हम जवान थे, तब तक हमसे जुड़े हुए थे, लेकिन अब तो हमारी अहमियत किसी को नहीं दिखती।”
उसकी ये गहरी और मार्मिक बातें मेरे दिल में गूंजती रही। कितनी कड़वी सच्चाई थी उस वृद्ध व्यक्ति की बातों में। क्या सचमुच समाज और हमारे परिवारों में ऐसी दरिद्रता और एकाकीपन आ गया है, कि हम अपनों के साथ भी इस तरह का व्यवहार करते हैं? क्या हमारा यह दायित्व नहीं बनता कि हम अपने माता-पिता, विशेषकर वृद्धजनों का ध्यान रखें, जिनका जीवन अब थकान से भरा हुआ है और उन्हें संतान के प्यार और देखभाल की जरूरत होती है?
हमारी संस्कृति में माता-पिता को देवता माना गया है, लेकिन क्या सचमुच हम उन्हें उस सम्मान और देखभाल दे रहे हैं, जिसके वे हकदार हैं? क्या हमारे दिलों में इतनी संवेदनशीलता बची है कि हम अपने बड़ों को उनका सम्मान और प्यार दे सकें, या फिर हम सिर्फ अपनी ज़िंदगी में व्यस्त होकर उन्हें अकेला छोड़ देते हैं?
उस बूढ़े भिखारी की कहानी केवल उसकी नहीं, बल्कि समाज के हर उस व्यक्ति की कहानी है, जो बुढ़ापे में अपने बच्चों और परिवार से उपेक्षित महसूस करता है। हमें यह समझने की जरूरत है कि एक समाज तभी अच्छा और मजबूत बन सकता है, जब हम अपने बुजुर्गों का सम्मान करें, उन्हें प्यार दें, और उनकी देखभाल करें।
वृद्धावस्था, जीवन का वह दौर है जब शरीर कमजोर हो जाता है, और आत्मा को प्यार और देखभाल की आवश्यकता होती है। यह हमें अपने कर्मों और अपनी संस्कृतियों के साथ जुड़ने का समय देता है। हमें अपने बड़ों के अनुभवों का सम्मान करना चाहिए, उनके ज्ञान से सीखना चाहिए और उनके साथ अपना समय बिताना चाहिए। क्योंकि अंततः यही हमारा कर्तव्य है, और यही हमें जीवन का सबसे बड़ा संतोष और शांति प्रदान करेगा।
उस दिन, उस बूढ़े भिखारी की बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। क्या समाज इसे समझ पाएगा? क्या हम अपने बुजुर्गों को वही सम्मान और देखभाल दे पाएंगे, जिसके वे हकदार हैं?
कुमार किशन कीर्ति
बिहार