पत्थर दिल – रेनू अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

प्रज्ञा अपनी सहेली से मिलकर घर लौटी तो उसने देखा कि उसकी मम्मी उसकी भाभी पर ताने कस रही हैं। मम्मी कह रही थीं, इनके तो नखरे ही खत्म नहीं होते। एक हमारा जमाना था, जब नौ महीने पेट में बच्चा लिए रहते थे

तब भी, घर का सारा काम करते थे। दस लोगों का खाना बनाते, कपड़े धोते, एक सेकंड भी आराम नहीं मिलता था, फिर भी किसी से शिकायत नहीं करते थे। आजकल तो सारी सुविधाएं होते हुए भी आराम चाहिए।”

यह सुनकर प्रज्ञा को अच्छा नहीं लगा। वह चुपचाप अपने कमरे में चली गई। उसने सोचा, थोड़ी देर में मम्मी का गुस्सा ठंडा होगा, तब बात करेगी। कुछ देर बाद मम्मी उसके पास आईं और बोलीं, “मिल आई अपनी सहेली से।

प्रज्ञा ने अपनी मम्मी को पास बैठाया और धीरे से कहा, “मम्मी, आपको क्या हो गया है? आप भी तो पत्थर दिल बन गई हो। याद है, आप हमेशा दादी की शिकायत करती थीं कि वो कितनी कठोर थीं। आपने तो उनका नाम ही पत्थर दिल रख लिया था।

आपको याद है न, जब मैं आपके पेट में थी, तब आपकी तबीयत ठीक नहीं रहती थी, फिर भी दादी कोई मदद नहीं करती थीं। आप दिनभर उनके ताने सुनती थीं, और जरा सी गलती पर कितनी दुखी हो जाती थीं। अब वही व्यवहार आप अपनी बहू के साथ कर रही हो। सोचिए, फिर आप मैं और दादी में क्या फर्क रह गया?”

प्रज्ञा की बातें सुनकर जैसे प्रीति की आंखें खुल गईं। उसे अपनी जिंदगी की पुरानी बातें याद आ गईं। उसे एहसास हुआ कि जो कड़वाहट उसने झेली थी, वही अब वह अपनी बहू को दे रही है। उसी क्षण उसने अपनी गलती मान ली।

वह तुरंत अपनी बहू के पास गई और कहा, “बेटा, मुझे माफ कर दो। मैं भूल गई थी कि मुझे तुम्हारा ज्यादा ध्यान रखना चाहिए।”

बहू ने मुस्कुराते हुए कहा, “कोई बात नहीं मम्मी जी।”

प्रीति ने अपनी बेटी की समझदारी पर गर्व किया और मन ही मन भगवान से प्रार्थना की कि “भगवान, ऐसी समझदार बेटी सबको देना।”

रेनू अग्रवाल

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