पत्थर दिल – मीनाक्षी गुप्ता : Moral Stories in Hindi

मेरी शादी को दो साल हो चुके थे। मैं इस घर की बहू बनकर आई थी । मैं एक साधारण, कामकाजी, पढ़ी-लिखी लड़की। सब कुछ ठीक चल रहा था। घर में सास-ससुर, जेठ-जेठानी, ननद और मेरे पति रोहित थे। सबके अपने-अपने तौर-तरीके थे, लेकिन मैंने कभी किसी बात की शिकायत नहीं की। सुबह जल्दी उठती, चाय बनाती, रसोई में सास और जेठानी की पसंद का नाश्ता तैयार करती, फिर खुद तैयार होकर स्कूल जाती।

मैं एक सरकारी स्कूल में पढ़ाती थी। बच्चों को पढ़ाना मुझे अच्छा लगता था। वहीं मेरे लिए एक शांति का पल होता था, क्योंकि घर में हर वक़्त मेरी हर हरकत पर तंज कसना, तुलना करना, और फिर ये जताना कि “हमारे ज़माने में औरतें कुछ नहीं कहती थीं” — ये सब रोज़ का हिस्सा बन चुका था।

जेठानी तो जैसे हर दिन कोई बात निकाल ही लेती थी — “नव्या, सब्ज़ी इतनी बेस्वाद क्यों है?”
या फिर, “तू सुबह जल्दी नहीं उठी क्या आज? रोटी देर क्यों बनाई।”
और सास हमेशा अपने दौर की कहानियाँ सुनाकर मेरी मेहनत को छोटा कर देतीं — “हम तो खेतों में भी जाते थे, फिर घर भी संभालते थे। अब की बहुएँ तो स्कूल जाकर समझती हैं बहुत बड़ा काम कर लिया।”

मैं चुप रहती थी। सोचती थी कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा । प्यार और मेहनत से किसी का भी दिल जीत सकते हैं — यही तो सिखाया  था मुझे सबने ।

रोहित… मेरे पति। शुरू में थोड़ी बहुत बात करते थे, कभी कभी हालचाल भी पूछते थे। लेकिन धीरे-धीरे बातों की जगह अब मैं सिर्फ जरूरतें पूरी करने तक ही सीमित रह गई थी।
“टिफिन में सब्ज़ी कैसी रखी थी।”
“मेरी शर्ट प्रेस नहीं थी।”
“फोन क्यों नहीं उठाया टाइम पर?”
बस इतनी ही बात होती थी  हमारे बीच में।

फिर एक सुबह की बात है। मुझे अचानक चक्कर आया। मन कुछ घबरा सा गया ।  मैं स्कूल जाने की तैयारी कर रही थी, तभी लगा — कहीं कुछ तो है… मैंने जल्दी से टेस्ट किया, और उसमें दो गुलाबी लकीरें उभर आईं।
मैं माँ बनने वाली थी। लेकिन सबको बताने से पहले मैने सोचा एक बार डॉक्टर से मिलकर कन्फर्म कर लूं। इसलिए स्कूल जाने से पहले डाक्टर के पास चली गई। डॉक्टर ने टेस्ट किया और अगले दिन रिपोर्ट लेने आने के लिए कह दिया । में खुश थी बोहोत और साथ ही नर्वस भी।

वो पल मेरी ज़िंदगी का सबसे सुंदर था। आँखें भर आईं मेरी… दिल भर गया। किसी को कुछ बताने से पहले जी भर के खुद को महसूस करना चाहती थी। मैने सोचा, डॉक्टर की रिपोर्ट आ जाए उसके बाद ही सबको बताऊंगी । लेकिन शायद यही मेरी सबसे बड़ी गलती थी ।

आज बच्चों के साथ स्कूल की तरफ से पिकनिक पर जाना था । बच्चों को लेकर बस में बैठी, सब हँस-खेल रहे थे। अचानक रास्ते में हंगामा मच गया। पुलिस की गाड़ियों की आवाज़ें, सायरन, चिल्लाहटें… कुछ लुटेरे बैंक लूट कर भाग रहे थे और भागते हुए उन्होंने हमारी बस को रोका।

हथियारों से लैस गुंडे बस में चढ़े और बस को हाईजैक कर लिया। हम सब सहम गए। बच्चों को रोते देख मुझे बहुत डर लग रहा था। पुलिस की गाड़ी बस का पीछा कर रही थी। बच्चे सब टीचर डरे हुए थे । मैंने रोते हुए बच्चों को चुप करना शुरू ही किया था कि गोलियां चलने की आवाजें भी आने लगी  गुंडों ने चलती बस से एक शिक्षक को बाहर धक्का दे दिया ।

सब डर गए हम बच्चे बड़े जो भी बस में थे। पुलिस ने भी फायरिंग रोक दी और अपराधियों की बात मानने को तैयार हो गई। वो अपराधी चाहते थे कि पुलिस उनका पीछा न करे और उनको जाने दे। पुलिस ने भी खतरा देखते हुए उनकी बात को मान लिया लेकिन एक शर्त रखी कि वो सारे लोग जो बस में है अपराधी उनको छोड़ देंगे। अपराधियों ने बस के सभी लोगों को छोड़ दिया

लेकिन जब मैं उतरने वाली थी तभी एक अपराधी ने अपने साथियों से कहा कि अगर सभी लोगों को छोड़ दिया तो पुलिस हम पर

अटैक कर सकती है इसलिए किसी एक को अपने साथ रखना चाहिए। मेरी बदकिस्मती थी मैं सबसे पीछे थी बाकी सभी लोग नीचे उतर चुके थे। उन अपराधियों ने मुझे हे रोक लिया और मुझे अपने साथ रखते हुए बोले — “इसको साथ ले जाते हैं, ताकि पुलिस पीछा न करे।”

मैं डर से कांप रही थी। मेरे हाथ-पैर सुन्न पड़ गए थे। दिल की धड़कनें जैसे किसी अंधेरे कुएँ में गिर गई थीं। कुछ घंटे बाद, जब उन्हें लगा कि पीछा छूट गया, तो उन्होंने मुझे एक सुनसान रास्ते पर उतार दिया और खुद भाग निकले।

पुलिस आई, मुझे सुरक्षित घर पहुँचाया। जब  मैं घर पहुँची तो किसी ने गले नहीं लगाया, किसी ने ये नहीं पूछा कि क्या हुआ।
सास ने दरवाज़ा खोला और कहा, “जा अंदर जा, मोहल्ले भर में हमारा तमाशा बना दिया टीवी पर।”

मैं चुपचाप अपने कमरे में चली गई। रोहित वहीं बैठा था। मैंने धीरे से बोलने की कोशिश की, “बहुत डर गई थी… सब कुछ अचानक हुआ… समझ ही नहीं आया…”

रोहित ने मेरी तरफ देखा भी नहीं, बस एक ही बात बोला — “बाकी सबको क्यों नहीं ले गए? सिर्फ तुम्हें ही क्यों ले गए थे?”
मैं अवाक रह गई। मेरा पति मेरा जीवनसाथी वो मुझसे कैसा सवाल पूछ रहा है ? उसे मेरे सही सलामत वापिस आने की कोई खुशी नहीं है?

मैंने कहा, “मुझे क्या पता, वो अचानक…”
उसने फिर पूछा — “और इतनी देर बाद क्यों छोड़ा?”

इतना कहकर वह उठकर चला गया।

मेरी आँखें सूख गईं। मैं क्या कहती? कैसे कहती कि उस समय मैं माँ बनने की खबर लेकर उसके साथ बैठना चाहती थी… और आज वो मुझसे सवाल कर रहा है कि क्यों छोड़ा गया?

उस दिन के बाद तो सब और भी बुरा बर्ताव करने लगे थे मेरे साथ।

कुछ दिन बीते। मेरी तबीयत बिगड़ने लगी। चक्कर, उल्टी, थकान — सब कुछ बढ़ने लगा। स्कूल में बेहोश हो गई तो डॉक्टर ने जाँच की।

“बधाई हो, आप चार हफ्ते की प्रेग्नेंट हैं।” मुझे याद आया मैने भी तो डॉक्टर से पहले ही टेस्ट करवाया था उसकी रिपोर्ट में लाना भूल गई थी।
डॉक्टर की मुस्कान के साथ मुझे भी लगा — शायद अब सब ठीक हो जाएगा। मैं अपने पुराने डॉक्टर से रिपोर्ट निकलवाकर घर पहुँची तो  माँजी रसोई में थी। मैंने कहा, “माँजी, मैं प्रेग्नेंट हूँ।”

वो पलटीं और बोलीं, “अभी दो हफ्ते पहले तू गुंडों के साथ थी, और अब प्रेग्नेंसी? किसका है ये बच्चा?”

जेठानी ने हँसते हुए कहा, “मां जी, मोहल्ले की औरतें कह रही थीं — बहू को टीवी पर देखा, क्या बढ़िया सीन था।”

रात में रोहित आया। बिना कोई भूमिका के बोला —
“ये बच्चा गिरा दो।”

मैंने डरते हुए कहा, “ये हमारा बच्चा है…”

वो चिल्लाया —
“मुझे नहीं लगता ये मेरा बच्चा है। अबॉर्शन करा लो।”

मैंने कहा, “नहीं। ये मेरा बच्चा है, मैं इसे जनम दूंगी।”

बस उसी दिन से घर में मेरा बहिष्कार शुरू हो गया। बात तो पहले ही बहुत कम करते थे सब। उस हादसे के बाद तो रोहित भी मेरी तरफ देखता भी नहीं था। बस यही पूछता था इतने घंटे तुम गुंडों के साथ अकेली थी। उन्होंने क्या किया तुम्हारे साथ ।कितने लोग थे , तुम्हे अकेले ही क्यों ले गए।तुम उनमें से किसी को जानती थी पहले?  और अब जब डॉक्टर ने मेरा ख्याल रखने को कहा तो ये लोग ऐसा व्यवहार कर रहे हैं ।

डॉक्टर ने मुझे आयरन और प्रोटीन की दवाइयाँ दीं, लेकिन सब मुझे अनदेखा कर देते।

सास कहती — “अब खुद उठो, खुद खाओ, खुद जाओ डॉक्टर के पास। इस बच्चे की ज़िम्मेदारी हमारी नहीं है।”

जेठानी हर रोज़ ताने देती — “बहू तो घर बैठे रानी बन गई है… खुद का किया भुगत रही है।”

ननद अपने दोस्तों से कहती — “मम्मी कहती हैं कि ये बच्चा नाजायज़ है।”

स्कूल में भी कुछ लोगों की नजरें बदल गई थीं। मैं हर रोज़ अपने बच्चे को पेट में लेकर समाज के तीर खाती रही।

नौ महीने बीत गए। किसी ने एक दिन भी नहीं पूछा — “कैसी हो? क्या चाहिए?”

जब लेबर पेन शुरू हुआ, तब भी मैं खुद हॉस्पिटल गई। खुद भर्ती हुई। ऑपरेशन से बच्चा हुआ — बेटा।

किसी ने फोन तक नहीं उठाया।
डिस्चार्ज मिला, तो ऑटो किया। एक हाथ में बच्चा, एक हाथ में दवाइयों की थैली… और दिल में अजीब सी ख़ामोशी। में पूरी तरह टूट चुकी थी। वैसे तो किसी से कोई उम्मीद नहीं थी।लेकिन एक पल को ख्याल आया शायद बच्चे को देख के मन बदल जाए ।

मैं घर पहुँची। दरवाज़ा खटखटाया।

सास ने दरवाज़ा खोला —
“क्या हुआ?”

मैंने कहा, “बेटा हुआ है।”

उसने आँखें घुमाईं और कहा — “किसका?”

फिर दरवाज़ा बंद कर लिया।

मैं कमरे में गई। बच्चे को सुलाया। खुद एक कोने में बैठ गई। सिसकियाँ अब भी थीं, लेकिन आँसू नहीं बचे थे। कोइ भी मेरे और मेरे बच्चे के पास नहीं आया । रोहित उसके लिए तो मैं जैसे वह होकर भी नहीं थी । एक नजर उसने मुझे या मेरे बच्चे को नहीं देखा । नफरत थी उसकी आंखों में और कोई एहसास नहीं था ।

रात को मैंने ननद को माँजी से कहते सुना —

“मम्मी, इस औरत को घर से निकाल दो। भाई की ज़िंदगी बर्बाद कर रही है…”

तब मैंने तय कर लिया।

मैं उठी। बच्चे को सीने से लगाया। कुछ पैसे, कपड़े और हिम्मत समेटी। … और घर से निकल गई। 

मुझे जाते हुए सबने देखा लेकिन किसी ने नहीं रोका। सबने नफरत और तिरस्कार से अपने चेहरे घुमा लिए। मैं बहुत दुखी थी उस समय समझ हे नहीं आ रहा था क्या करूं कहां जाऊ।

**

वक्त बीत गया।
नव्या ने अपनी ज़िंदगी में बहुत मुश्किलों का सामना किया ।अपनी पढ़ाई पूरी की साथ साथ बच्चे की देखभाल भी की, टीचर्स ट्रेनिंग ली, और उसी स्कूल में पढ़ाते-पढ़ाते एक दिन प्रिंसिपल बन गई।

उसका बेटा अब बड़ा हो गया था। होशियार, समझदार, और माँ को सबसे ज़्यादा मानने वाला। लेकिन शक्ल सूरत में अपने पिता जैसा अधिक था ।

एक दिन स्कूल में उसके नाम से कोई मिलने आया।

स्टाफरूम में आकर जब उसने देखा… सामने रोहित खड़ा था।

नज़रें झुकी हुई थीं, हाथ में एक पीला सा पुराना लिफाफा था।
नव्या स्तब्ध रह गई।

“मैं… मैं ये देने आया हूँ,”
उसने कांपते हाथों से लिफाफा आगे बढ़ाया।

नव्या ने धीरे से खोला।
वो उसकी पुरानी प्रेग्नेंसी रिपोर्ट थी… जिस पर साफ लिखा था — गर्भ चार हफ्ते का, अनुमानित तिथि — वही दिन जब पिकनिक के दिन उसने टेस्ट किया था।

“ये रिपोर्ट बहुत दिनों बाद तुम्हारी अलमारी में मिली…”
“और जब तक मिली, तब तक तुम जा चुकी थीं…”

“मैंने दोबारा शादी की…”
“मगर… कोई संतान नहीं हुई।  पत्नी भी मुझे छोड़कर किसी और के साथ चली गई।अब सब कहते हैं कि मेरे पापों का फल है।”

“अब माँ-बाबा भी नहीं हैं… भाई भाभी सब अपने में व्यस्त हैं। मैं अकेला हूँ… और अब समझ में आता है कि मैंने क्या खोया।” मुझे माफ कर दो नव्या।

“अगर हो सके… तो चलो मेरे साथ वापस।” हम सब मिलकर एक साथ एक परिवार बनकर रहेंगे। मेरा बेटा बिना पिता के क्यों रहेगा ,

तभी नव्या का बेटा कमरे में आ गया।

“माँ, कौन है ये आदमी?”

नव्या ने उसके सिर पर हाथ फेरा।
“बेटा, ये तेरे पिता हैं… जिनके खून से तू बना है… मगर जिनकी सोच में तू कभी पैदा ही नहीं हुआ।”

उसने बेटे को अपनी कहानी सुनाई — पूरी सच्चाई, जो अब तक उसके अंदर ही दबी थी।

बेटा कुछ देर चुप रहा… फिर धीरे से बोला —
“ मैं कहीं नहीं जाऊँगा।” मां मेरा इस दुनिया में कोई पिता नहीं है । मेरा किसी से कोई रिश्ता नहीं है। मैं सिर्फ तुम्हारा बेटा हू, अपनी मां का बेटा ।

रोहित बोला —
“नव्या… प्लीज़… एक आखिरी बार सोच लो।” हम सब मिलकर एक परिवार बनकर रहेंगे।रोहित ने धीमी आवाज़ में कहा –

“नव्या… क्या हम दोबारा से… सब कुछ शुरू नहीं कर सकते?”

नव्या की आँखों में आँसू थे — लेकिन वो थरथरा नहीं रही थी, टूट नहीं रही थी।

उसने गहरी सांस ली और बोली —

“शुरुआत? किस बात की शुरुआत?

जब मेरी ज़िंदगी का सबसे मुश्किल वक़्त था,

तब तुमने मेरी कोख पर शक किया।

जब मैं टूटी थी, तुमने पीठ मोड़ ली।

जब मुझे सहारे की ज़रूरत थी, तुमने मुझसे छीन लिया सब कुछ।”

 “तुमने मुझे बेगुनाह होते हुए भी गुनहगार बना दिया —

क्योंकि तुममें हिम्मत नहीं थी मेरी आँखों में सच्चाई देखने की।”

 “तुम कहते हो आज लौट आए हो क्योंकि तुम्हें यक़ीन हो गया कि बच्चा तुम्हारा था।

मगर रोहित —

पिता बनने के लिए किसी सबूत की नहीं बल्कि दिल की ज़रूरत होती है।

और तुम्हारे पास वो दिल कभी था ही नहीं।”

**”तुम्हें पता है तुम क्या थे?”

“तुम थे एक पत्थर दिल इंसान —

जिसे अपनी बीवी की चीखें नहीं सुनाई दीं,

जिसकी आँखें उसके आँसुओं से अंधी रहीं,

और जिसका दिल शक से इतना भरा था कि वहाँ प्यार की कोई जगह बची ही नहीं थी।”

“मैंने अकेले बच्चे को जन्म दिया,

अकेले उसे बड़ा किया,

और अकेले इस समाज के सवालों का जवाब दिया —

और तुम…  तुम तो कहीं थे ही नहीं।”

“आज माफ़ी माँगने आए हो?

तो सुनो —

मैं तुम्हें माफ़ करती हूँ…

पर तुम्हें फिर से अपना लूं मैं  इतनी कमजोर भी नहीं हूं।

मैं अब सिर्फ़ अपने बच्चे की माँ हूँ — तुम्हारी पत्नी नहीं।”

“और हाँ,

कभी आईने में झाँकना —

वहाँ तुम्हें एक ‘पत्थर दिल’ इंसान दिखेगा।

वो तुम होगे।”

नव्या बेटे का हाथ थामती है —

“चलो बेटा, अब हम वहाँ चलें जहाँ हमें कोई नीचा नहीं देखता।”

बेटा रोहित की ओर देखता है —

और बस एक वाक्य कहता है —

“मेरी माँ सबसे बहादुर है —

और आप सबसे डरपोक।”

आप पत्थर दिल हैं 

नहीं सिर्फ दिल नहीं आप पूरे पत्थर हैं 

आज भी आप इसीलिए आए हैं क्योंकि आप अकेले हैं और आपको हमारी जरूरत है ।

नव्या चल देती है।

उसके पीछे कोई साया नहीं

 आता।

सिर्फ़ उसकी गरिमा, उसका आत्म-सम्मान और उसका सच साथ चलता है।

नव्या ने कहा —

“मैं अब भी वही नव्या हूँ…
मगर अब मैं चुप रहकर भी सब कुछ कह जाती हूँ।
तुम्हें माफ़ किया,
मगर तुम्हारे साथ नहीं जाया जा सकता।”

रोहित मुड़ा, भारी कदमों से चल दिया।

नव्या की आँखें नम थीं… मगर आज कोई आँसू नहीं गिरा।

बेटे ने कहा —
“चलो माँ, घर चलते हैं।”

नव्या मुस्करा दी।

समाप्त 

मीनाक्षी गुप्ता

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