गाँव के एक छोर पर खड़ी थी पुरानी हवेली — वीरान, सुनसान और खामोश। चारों ओर झाड़ियाँ उग आई थीं, खिड़कियाँ जंग खा चुकी थीं, और छत से टपकती बूंदों की आवाज़ें रात की खामोशी में चीख़ों जैसी लगती थीं।
इस हवेली को गाँव वाले “पत्थर दिल हवेली” कहते थे, और उसमें रहने वाले कर्नल को — “पत्थर दिल कर्नल।”
कर्नल वीर बहादुर सिंह — सेना के रिटायर्ड अफसर, जो कभी बहादुरी के लिए सम्मानित हुए थे, आज अकेलेपन के घेरे में जी रहे थे। लोग कहते थे, उनका दिल वर्षों पहले मर चुका है। उसके चेहरे पर मुस्कान तो जैसे भूली हुई कोई चीज़ थी।
किसी ने नहीं सोचा था कि एक छोटी-सी बच्ची उसकी जिंदगी का नक्शा बदल देगी।
उस बच्ची का नाम था राधा। आठ साल की नन्ही सी जान, मासूम सी मुस्कान, लेकिन आंखों में अनाथ होने का गहरा दुःख। माता-पिता एक सड़क दुर्घटना में चल बसे थे। गाँव के सरपंच ने कई दरवाज़े खटखटाए, पर किसी ने उसे अपनाने की हिम्मत नहीं की।
आखिर एक दिन, सरपंच ने खुद कर्नल के दरवाज़े पर दस्तक दी।
कर्नल ने कुछ पल चुप रहने के बाद बस इतना कहा —
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“उसे भेज देना।”
गाँव सन्न रह गया। जिस आदमी ने वर्षों से किसी से सीधे मुंह बात नहीं की, वो एक अनजान बच्ची को अपने घर बुला रहा था?
राधा हवेली आई। हवेली अब भी उतनी ही खामोश थी, लेकिन उसमें एक छोटी-सी चहक गूंजने लगी। पहले-पहल वो कर्नल से डरती रही, पर उसकी मासूम बातें, खिलखिलाहट और प्यारी उपस्थिति धीरे-धीरे वीर बहादुर सिंह के पत्थर जैसे दिल पर दस्तक देने लगी।
वो रोज़ सुबह उठती, बाग़ से फूल चुनती, गुलदस्ते बनाकर उनके कमरे में रख देती। एक दिन उसने उनके गले में बाँहें डाल दीं और कहा —
“दादाजी, आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।”
उस दिन पहली बार वीर बहादुर जी की आँखें भर आईं।
राधा को तो नहीं पता था, लेकिन वो वीर बहादुर जी की खोई हुई बेटी की परछाईं बन चुकी थी — एक मासूम बच्ची जो बम धमाके में उनसे छिन गई थी। उसी दर्द ने उनके दिल को पत्थर बना दिया था।
राधा जैसे-जैसे बड़ी हुई, हवेली में रौनक लौटने लगी। वीर बहादुर जी अब किताबें पढ़ते, कहानी सुनाते, और मंदिर जाने लगे। एक दिन राधा ने कहा —
“दादाजी, मुझे मेले में ले चलो न!”
वीर बहादुर जी ठिठक गए। दशकों बाद उन्हे मेला याद आया — उस दिन, खिंचते चले गए — राधा के साथ। गाँव के लोगों ने पहली बार देखा — वो पत्थर दिल इंसान हँस रहा था, गुब्बारा खरीद रहा था, और गोलगप्पे खा रहा था।
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अब हवेली का नाम बदल गया — लोग उसे “राधा की हवेली” कहने लगे।
पर खुशियाँ कब तक ठहरती हैं?
एक दिन राधा तेज़ बुखार में तपने लगी। डॉक्टर ने कहा –
“घबराने की बात नहीं, पर रात भर निगरानी रखनी होगी।”
उस रात वीर बहादुर जी एक पल भी नहीं सोए। हाथ में पानी का कटोरा ,माथे पर ठंडी पट्टियाँ, और मन में एक ही प्रार्थना —
“हे भगवान, इसे मुझसे मत छीनना… मेरी गुड़िया को बचा लो…”
सुबह हुई, राधा की साँसें सामान्य हुईं। वीर बहादुर जी ने मंदिर जाकर घंटी बजाई — आँखों से आँसू झर रहे थे, और होंठों पर पहली बार एक सच्ची मुस्कान थी।
अब वो सिर्फ कर्नल नहीं थे। वो एक दादा थे — राधा के दादा,पूरे गांव के दादा….
एक नन्ही सी मुस्कान, मासूम सा स्पर्श,और राधा के निस्वार्थ प्रेम ने कर्नल वीर बहादुर सिंह का दिल पिघला दिया .था….
अब हवेली में खुशियां मुस्कुराने लगी …
ममता चित्रांशी