पत्थर दिल – लक्ष्मी त्यागी : Moral Stories in Hindi

लोग कैसे ”पत्थर दिल” हो गए हैं ,कहते हैं -‘भगवान पत्थर के हैं किन्तु तब भी उनसे अपेक्षा रखते हैं ,उम्मीद रखते हैं, कि वो पत्थर का भगवान अवश्य ही उनकी परेशानी सुनेगा ,

समझेगा ,उसकी विनती सुनकर उन पर कृपा करेगा जबकि स्वयं इंसान बेरहम हो गया है। उसके’ दिल’ नहीं रह गया है ,”पत्थर” का हो गया है। भावनाएं तो जैसे मर चुकी हैं ,सोचते -सोचते रत्ना जी की आँखों से अश्रुओं की लड़ी बहती चली गयीं। 

जब तक सुधीर जी थे ,तब तक इनके चेहरे कितने खिले रहते थे ,हो भी क्यों न….. सुधीर जी ,घर का सम्पूर्ण खर्चा जो उठा रहे थे। ऐसे अच्छे बहु -बेटा पाकर रत्ना जी, अपने को धन्य समझती थीं और अपने पति से कहतीं  -देखा ! हमारे बेटा -बहु औरों के बच्चों की तरह नहीं हैं। जब भी आप आते हो आते ही, पापा जी! चाय बना लाऊँ ,पापा जी! खाने में क्या बनाऊं ? यही रहता है । 

सर्दियों में ,जब भी कभी बाहर घूमने जाते ,पापा जी! शाल ले लो ,ठंड लग जाएगी।

तब सुधीर जी खुश  होकर कहते -‘तुमने भी कभी, मेरा इतना ख़्याल नहीं रखा जितना मेरे बच्चे रखते हैं ,अब मैं निश्चिन्त हूँ ,यदि मुझे तुमसे पहले कुछ हो गया तो तुम्हारा भी इसी तरह ख़्याल रखेंगे। अपने गालों पर लुढ़क आये आंसुओं को पोंछते हुए रत्ना जी ये सब सोच रहीं थीं। 

तभी उनकी बहु अंदर आई और बोली -ओ महारानी !कपड़े सुखा दिए या नहीं ,जबसे उस बुढ़ऊ की मौत हुई है ,उसी की यादों में खोई रहती है। इतनी उम्र हो गयी किन्तु अभी तक इसकी ‘आशिक़ी’ नहीं गयी। मुझे तो ड़र है ,कहीं आस -पड़ोस में ही ”मुँह न मारने लगे ”अपना तो” मुँह काला करेगी ही” हमें भी कहीं मुँह दिखाने लायक़ नहीं छोड़ेगी। 

तब तक उनका बेटा आ गया और बोला -क्या हुआ ?क्यों चिल्ला रही है ?

अरे कुछ नहीं ,मैं भी क्या -क्या करूं ?कपड़े धोकर, तुम्हारी माँ को सुखाने के लिए दिए थे, तो देखा ,यहाँ मजे से आराम फ़रमा रहीं हैं। कल मिश्राजी से न जाने क्या बातें कर रहीं थीं ? उन्होंने तुम्हारी माँ का हाथ पकड़ा हुआ था।

इस उम्र में भी इन्हें ‘आशिक़ी’ सूझ रही है। ये नहीं, कि घर में बैठें,इनके बस में हो तो मेरी थोड़ी सहायता करा दें और इस उम्र में राम का नाम लें। जब देखो !गंगा -जमुना बहाती रहतीं हैं ,जैसे हमने इन पर बहुत  अत्याचार किये हैं। लोगों को दिखा देना चाहती हैं कि हम इंसान नहीं ,’पत्थर दिल ”हैं जो माँ को दुखी रखते हैं। 

घर में आया नहीं कि आते ही क्लेश सुनने और देखने को मिलता है ,माँ ये तो ऐसी है किन्तु तुम तो बड़ी हो,  समझदार हो ,कल तैयार रहना ,बैंक चलेंगे कहते हुए उनका बेटा अपने कमरे में चला गया।उसने एक बार भी नहीं पूछा – माँ ने अब तक कुछ खाया भी है या नहीं। 

अगले दिन रत्ना जी चुपचाप दस बजे तक तैयार होकर बेटे के स्कूटर पर बैठकर बैंक चली गयीं। उस दिन उन्हें समय से चाय -नाश्ता मिल गया किन्तु आज उन्होंने मन ही मन एक निश्चय किया था। बैंक में उनके हाथ में उनके पति की पेंशन के पैसे आये तो उन्होंने अपनी मुट्ठी कसकर बंद कर ली जैसे उनसे कोई उनका ये अधिकार छीन न ले। 

घर आकर वो अपने कमरे में गयीं ,कुछ देर तक बाहर नहीं आईं ,सोच रहीं थीं, बहुत दिनों पश्चात मुझे मेरा ये अधिकार मिला है अब मैं ये किसी को नहीं दूंगी। हर बार बहु -बेटा ले लेते थे ,मैं भी सोचती थी – ये पैसे कहाँ लेकर जाउंगी ?

किन्तु अब इनके व्यवहार को देखकर लगता है ,ये रक़म मेरी है ,मेरे पास ही रहेगी। यही सोचकर उन्होंने वे पैसे अपनी अलमारी में रख कर ताला लगा दिया। जब वो बाहर आईं तो बेटे और बहु को उनका इंतजार करते पाया। 

मम्मी! इतनी देर लगा दी ,लाओ ! पैसे मुझे दे दो !मुझे बिजली का बिल ,दूध का बिल चुकाना है। 

क्यों ?क्या तुम्हारी नौकरी छूट गयी है ?माँ के ऐसे शब्द सुन दोनों चौंक गए। 

बहु गुस्से से बोली -‘ तुम्हारे मुँह में कीड़े पड़ें ‘,इनकी नौकरी क्यों छूटेगी ?

इसीलिए तो पूछा ,ये पैसे जो मांग रहा है। 

क्यों ?अबकी बार पैसे नहीं देने हैं, बिल कहाँ से चुकाएंगे ?

 तुम जानो !मैं दूध नहीं पीती और न ही मेरे कमरे में रौशनी है, तब मेरे पैसों से बिल क्यों चुकाना ?

देखा ,इसके तेवर, पैसे हाथ में आते ही कितनी जुबान चल रही है ? इससे पहले की रत्ना जी कुर्सी पर बैठतीं बेटे ने कुर्सी वहां से हटा दी और वो नीचे गिरते -गिरते बचीं। अभी वो सम्भली भी नहीं थीं ,बेटा उन्हें अपने कमरे में ले गया और उनसे बोला -रोटी तो खाती हो या नहीं। 

मैंने तो तुम्हें कई बार अपने हाथों से रोटी खिलाई है किन्तु कभी उसका एहसान नहीं जतलाया। तुम दो रोटी देते हो, तो सारा दिन काम करती हूँ ,अब मेरे घुटनों से चला भी नहीं जाता फिर तुम्हारी बहु काम बताती रहती है ,शायद उन्हें एक उम्मीद थी ,उनका बेटा उनके दर्द  को समझेगा। 

किन्तु इसके विपरीत उसने उनका मुँह अपने हाथों से बंद कर दिया और बोला -इस बुढ़ापे में आराम से नहीं रहा जा रहा ,जो  इस तरह घर की शांति भंग करने चली हो। तभी बहु बाहर से आई जो हाथ  में एक डंडा लिए हुए थी और आते ही रत्ना देवी की पिटाई आरम्भ कर दी।

वो चिल्ला भी नहीं पा रहीं थीं क्योंकि जिस बेटे को पाल -पोषकर इतना बड़ा किया था ,आज वही उनका मुँह दबाये बैठा है ,जिसके बिना रोटी नहीं खाती थीं ,उसकी पढ़ाई ,उसके भविष्य को लेकर हमेशा चिंतित रहती थीं ,आज वो ही, अपनी पत्नी से उन्हें पिटवा रहा था। 

बुढ़ापे का तन था ,ज्यादा मार झेल न सका और वो अचेत हो गयीं ,अचेतावस्था में भी उन्हें अपना वही बेटा नजर आ रहा था जो कभी स्कूल से आते ही, माँ से लिपट जाया करता था। दोनों पति -पत्नी उन्हें उनके कमरे में डाल आये।

सुधीर जी उनके पास आये और बोले -मैं नहीं जानता था ,ये लोग इतने बदल जायेंगे ,तुम्हें इस तरह परेशान देखकर, मैं भी परेशान होता हूँ ,तुम मेरे पास क्यों नहीं चलीं आतीं ?क्यों, इतना सहन कर रही हो ?

अब तो चला भी नहीं जाता ,तुम्हारे बग़ैर मैं अपाहिज़ हो गयी हूँ ,मैंने सोचा था ,तुम मुझे भूल गए। 

भूला नहीं हूँ ,न जाने किन कर्मों की सज़ा तुम्हें मिल रही थी ,जो ऐसी नालायक औलाद हमें मिली ,आओ !मेरा हाथ पकड़ लो !अब तुम्हें, मैं अकेला छोड़ने वाला नहीं ,कहते हुए उन्होंने हाथ बढ़ाया ,रत्ना जी ने उठने का  प्रयास किया किन्तु दर्द से कराह उठीं और बोलीं – तुम ही आकर मेरा हाथ थाम लो !भूखी -प्यासी वो आत्मा अपने पति के साथ चली गयी। 

सुबह उनके बेटे ने देखा ,माँ मर चुकी है , तब बहु बोली -अब इनकी मौत की खबर सुनकर चार लोग आएंगे खर्चा होगा ,इन्हे लेजाकर गंगा में बहा आते हैं कोई पूछेगा तो कह देंगे ,अपने भाई से मिलने गयी हैं ,कुछ दिनों बाद कह देंगे ,वहीं भगवान को प्यारी हो गयीं। दोनों पति -पत्नी देख रहे थे ,इंसान कितना ‘खुदगर्ज़ ‘और ” पत्थर दिल ”हो गया है।  

             ✍🏻 लक्ष्मी त्यागी

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