पश्चाताप का फल – लतिका पल्लवी : Moral Stories in Hindi

‘बिन घरनी घर भूत का डेरा’ आज आलोक को यह कहावत बार – बार याद आ रही थी। उसके बचपन मे एक सब्जी बेचने वाले चाचा मुहल्ले मे सब्जी बेचने आते थे। सुबह सुबह आते और करीब करीब सभी घरो मे सब्जी देते, फिर मंदिर के बाहर बैठकर कभी सत्तू तो कभी मुढ़ी खाते। थोड़ी देर मंदिर मे ही आराम करते और साँझ होने पर  बची हुई सब्जी को रास्ते मे बेचते हुए अपने घर चले जाते। एक बार आलोक की माँ नें उनसे पूछा था भैया आपकी सब्जी तो करीब करीब बिक ही गईं होती है। फिर आप काहे को मंदिर मे बैठकर समय काटते हो? समय से घर चले जाते।वैसे भी रास्ते मे

सब्जी बिक ही जाती है।माँ के सवाल पर चाचा नें जो जबाब दिया उसका अर्थ आलोक को तब समझ नहीं।आया था, पर आज उसे चाचा की कही गईं बाते याद आ रही थी। उसे आज उसका अर्थ समझ मे आ रहा था। चाचा नें कहा था बहू जी घर कहा है मेरा? वो तो भूत का डेरा है। रात को जाकर उनके साथ सो जाता हूँ। माँ नें कहा समझी नहीं भैया। बहू जी जब घरनी ही नहीं है तो घर कैसा? ‘ बिन घरनी घर भूत का डेरा ’ मेरी घरवाली मुझे छोड़कर भगवान के पास चली गईं और बच्चे रोटी के लिए विदेश

चले गए।उनके दुख के बारे मे जानने के बाद माँ के मन मे उनके प्रति सहानभूति सी हो गईं, और जब भी घर मे पकवान बनता तो माँ चाचा को भी देती।उनके आँखो का दुख और सुनापन उस समय आलोक को समझ नहीं आया था, पर आज उनका दर्द उसे समझ मे आ रहा था।चाचा की पत्नी को तो काल के क्रूर हाथो नें उनसे छीन लिया था, पर आलोक नें तो स्वयं अपनी गृहस्थी मे आग लगा लिया था। आज उसे अपनी गलती का खूब अच्छे तरीके से एहसास हो रहा था। उसे अब समझ आ रहा था

कि हर रिश्ते की एक अपनी मर्यादा होती है।किसी और रिश्ते का दूसरे रिश्ते मे जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी से दूसरा रिश्ता टूट जाता है।यह बात आलोक को तब समझ नहीं आती थी जब उसकी पत्नी यह बात कहती थी। माँ नें भी तो उसे समझाया था पर उसने उनकी बातो पर भी ध्यान नहीं दिया। उस समय तो उसके मन मे बस अपने मर्द होने का एहसास था और उसे उस वक़्त सबसे ज्यादा इस बात की  चिंता थी कि पत्नी को कैसे अपने वश मे रखना है।उसे इस बात की ज़रा भी समझ

नहीं थी कि परिवार एक दूसरे के सहयोग से चलता है। किसी एक के भी दूसरे पर हावी होने की कोशिश से परिवार टूट जाता है।इन बातो को उसका भाई आशुतोष खूब हवा देता था। कहता था,देख रहे है भाई, आप तो बिल्कुल ध्यान ही नहीं देते है भाभी आपकी एक भी बात नहीं मानती है। जब देखो मायके जाने के लिए बेचैन रहती है और माँ भी उन्हें परमिशन दे देती है, बस चली जाती है, आपसे तो पूछती भी नहीं है। यही रवैया रहा तो कल को आपकी क्या वेल्यू रह जाएगी।यह बात आलोक को चुभ जाती थी।आलोक की पत्नी अंकिता बहुत ही सुंदर थी। आशुतोष की विवाह की भी बात चल रही थी

उसकी चाहत थी कि उसे भी अंकिता जैसी सुंदर लड़की मिले। उसके लिए जितने भी रिश्ते आते उसे वह ठुकड़ा देता। उसे लगता कि यह लड़की भाभी जितनी सुंदर नहीं है। इन सब बातो से उसे भाई से ईर्ष्या सी हो गईं थी वह भाई भाभी को जब भी हँसते मुस्कुराते देखता उसे भाई के भाग्य से जलन होने लगती और वह भाई को भाभी के खिलाफ भड़काने लगता। अंकिता खूबसूरत होने के साथ हर काम मे भी दक्ष थी।वह पढ़ने मे भी अच्छी थी। उसने बी एड कर रखा था, पर आलोक उसे नौकरी नहीं

करने देना चाहता था। सही मायने मे अंकिता के सामने आलोक का व्यक्तित्व भी दबा हुआ था। खानदान वाले भी अंकिता की खूब प्रसंसा करते थे और हँसते हुए यहाँ तक भी कह देते थे लंगूर के हाथ हूर लग गईं है।उस पर आशुतोष की बाते जले पर घी का काम करती थी। अब प्रायः उन दोनो मे झगड़े होने लगे थे। माँ हमेशा बीच बचाव करती और कहती थी कि तुम अंकिता को किसी दूसरे के हिसाब से क्यों देखते हो? वह तुम्हारी पत्नी है, उससे प्रेम करो, उसपर विश्वास करो, पर आलोक के मन मे शक का कीड़ा घुस गया था, कि अंकिता उसका वेल्यू नहीं करती है, वह हमेशा अपने मन का करती है, उसे इस बात का घमंड है कि वह मुझसे सुंदर, समझदार और काबिल है, जो किसी के भी

समझाने से अब निकलने वाला नहीं था।अंकिता नें आलोक को बहुत समझाने की कोशिश की, इस रिश्ते को बचाने का उसने बहुत प्रयास किया, पर आलोक के रूढ़ रवइये के कारण यह रिश्ता नहीं चल पाया। आलोक के रवइये से थककर अंकिता अपने मायके चली गईं और वही एक स्कूल मे नौकरी करने लगी।आलोक भी अपने दम्भ मे उसे मनाकर लाने नहीं गया।आलोक के माता पिता नें उसे बहुत समझानें की कोशिशऔर कहा – जाओ जाकर बहू को मनाकर घर ले आओ, पर वह नहीं माना फिर वे भी चुप हो गए।देखते देखते दो वर्ष बीत गया और आशुतोष का भी विवाह हो गया।

लड़की नौकरी करती है,यह सुनकर आलोक को पहला झटका लगा। यही आशुतोष है जो उसे समझाया करता था कि पत्नी को नौकरी नहीं करने देनी चाहिए, नहीं तो हाथ से निकल जाती है।आशुतोष की पत्नी प्रायः मायके मे ही रहती,आशुतोष भी उसके साथ जाता और वह जितने दिन वहाँ रहती वह भी वही रहता था।उसे तब याद आता कि आशुतोष उसे सीखाता था कि पत्नी को बार बार मायके नहीं जाने देना चाहिए।आशुतोष और उसकी पत्नी साथ मे खाना खाते, साथ ही ऑफिस जाते, हँसते बोलते एकदूसरे का ख्याल रखते। यह सब देखकर आलोक को अपनी गलती का एहसास होने

लगा था। उसे याद आ रहा था कि उसने तीन वर्ष के वैवाहिक जीवन मे एकबार भी अंकिता से यह नहीं पूछा था कि तुमने खाना खाया?उसे कभी घूमाने ले गया हो या कभी बाहर डिनर कराया हो ऐसा एक दिन भी उसे याद नहीं आया।उसे अब अपने आप पर शर्म आ रही थी। मै कैसा नालायक पति हूँ जिसने अपनी पत्नी के पसंद ना पसंद, सुख -दुख आदि की कभी परवाह नहीं किया। उसका मन उसे धिक्कार रहा था। आँखो से आँसू बह रहे थे, पर पोंछने वाला कोई नहीं था। उसका मन कर रहा था

कि वह जोर जोर से रोये, चिल्लाए, पर दिमाग़ रोक रहा था।कमरे की चार दीवारी मे बंद उसके रोने की आवाज भी घुट कर रह जाती है।वह उठने की कोशिश करता है, पर सारा शरीर दर्द से ऐठ रहा है।दिमाग़ की नसे लग रही है जैसे अभी फट जाएगी। तभी उसे याद आता है कि आज ऑफिस मे जरूरी मीटिंग है। वह बुखार को दरकिनार करके फिर से उठने की कोशिश करता है पर वह गिर कर बेहोश हो जाता है। जब उसकी आँखे खुलती है तो अपने को अस्पताल मे पाता है. अभी कुछ

कहता या किसी से कुछ पूछता उसके पहले उसे सुनाई देती है, कोई कह रहा है लेटे रहिए,उठने की कोशिश मत कीजिए, मै डॉक्टर को बुलाकर लाती हूँ। पहले तो उसे अपने कानो पर विश्वास ही नहीं होता है। क्या यह अंकिता है? नहीं वह कहाँ होंगी? पर आँखो के सामने अंकिता को देखकर रोने लगता है। अंकिता कहती है रोइए नहीं। आपने अपनी कैसी हालत की है? दिमाग़ पर बुखार चढ़ गया

है। दो दिन बाद आपको होश आया है। अपना ख्याल नहीं रखते है? ऐसे कैसे चलेगा? आलोक नें रोते हुए कहा तुम जो आ गईं हो मेरा ख्याल रखने के लिए। मुझे अब कुछ नहीं होगा। पर अब आगे से मै भी तुम्हारे सुख दुख का ख्याल रखुगा। अब तुम आ गईं तो मेरा मकान चारदीवार से बदल कर घर बन गया है।

वाक्य — घर दीवार से नहीं, परिवार से बनता है।

लेखिका : लतिका पल्लवी

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