Moral Stories in Hindi :
घनश्याम जी एक सरकारी माध्यमिक विद्यालय में प्रधान शिक्षक थे। उनके विद्यालय में आठवीं क्लास तक के बच्चे पढ़ते थे क्योंकि उनका विद्यालय माध्यमिक श्रेणी तक ही था।
उनके घर पर, वे स्वयं उनकी पत्नी रमा देवी और उनकी तीन संताने थीं।
दो बेटे, सूरज और गौरव और एक बेटी उदिता।
पहले तो तीनों बच्चे घनश्याम जी के स्कूल में ही पढ़ते थे लेकिन जब उनकी आठवीं तक की पढ़ाई पूरी हो गई, उसके बाद उन्हें दूसरे स्कूलों में पढ़ने की बातें शुरू हुईं।
फिर एक अच्छा सा निजी स्कूल देखकर घनश्याम जी ने दोनों बेटों का दाखिला वहाँ करवा दिया लेकिन बेटी को एक सरकारी हाई स्कूल में डाल दिया गया।
परंतु वह वहाँ भी बहुत ध्यान लगाकर पढ़ती थी। वह शुरू से ही मेधावी छात्रा थी। कहते हैं प्रतिभा किसी वैशाखी की मोहताज नहीं होती।
वही बात कुछ उदिता पर भी लागू होती थी। घनश्याम जी के दोनों बेटे भी अच्छा पढ़ते थे लेकिन बेटी की तुलना में वे औसत ही कहे जा सकते थे।
घनश्याम जी का सोचना था, बेटी को पराए घर जाना है इसलिए उसकी शिक्षा दीक्षा में भारी-भरकम रकम क्यों खर्च करना! ससुराल जाकर उसको गृहस्थी ही तो सम्हालना है।
कोई भी उनसे यदि यह सवाल पूछता कि बेटी को साधारण स्कूल में क्यों डाला है और बेटों को अच्छे स्कूल में? तो उनका यही जबाव होता था।
आज बारहवीं का रिजल्ट आया तो, बेटी राज्य में प्रथम स्थान पर रही। मीडिया और जान पहचान वालों का घर पर जमावड़ा लगा हुआ था।
यह बात भी घनश्याम जी को जैसे कोई अधिक मायने नहीं रखती थी।
जबकि इससे पहले दोनों बेटे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए थे तब मोहल्ले भर में मिठाई बंटबाई थी।
धीरे-धीरे तीनों बच्चे स्कूल से कॉलेज में पहुँचते गए थे। बेटी अभी भी स्कूल कॉलेज में प्रथम स्थान पर ही आती रही।
और बेटे जोड़-तोड़ कर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते।
बेटी की पढ़ाई का जिम्मा सरकार ने ले लिया। उसको छात्रवृत्ति मिलने लगी थी अतः उसकी आर्थिक समस्या हल हो गई थी।
अब वह अपने माता-पिता पर आश्रित नहीं थी।
वह अपनी पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चली गई थी। बेटे तो पहले से ही दूसरे शहरों में जाकर पढ़ाई कर रहे थे।
कुछ दिनों के बाद दोनों बेटों की नौकरी लग गई और वहीं दोनों सेटेल्ड भी हो गए।
बेटों ने शीघ्र ही अपनी सहकर्मी लड़कियों से विवाह भी कर लिए। माता-पिता से कुछ पूछना भी उचित नहीं समझा उन्हें इस तरह बता दिया जैसे किसी गैर को निमंत्रण की इत्तिला दे रहे हों।
घनश्याम और रमा जी ने भी दिल मसोसकर ना चाहते हुए भी इस बात को स्वीकार कर लिया।
कुछ दिनों तक तो दोनों बेटे तीज-त्योहारों पर घर आते रहे फिर धीरे-धीरे यह सिलसिला भी थम गया।
हालांकि उनकी पत्नियां कभी नहीं आती थीं उन्हें छोटे शहर में रहना मंजूर नहीं था।
कुछ दिनों के बाद पोते-पोतियां भी हो गए उनसे फोन वीडियो कॉल पर बातें हो जाती थीं।
माता-पिता जैसे श्रेष्ठ रिश्ता भी महज औपचारिक बन कर रह गया था। रमा देवी कभी-कभी बहू बेटों के पास हफ्ते-दस दिन के लिए चली जाया करती थीं लेकिन घनश्याम जी कभी जाना नहीं पसंद करते थे। ना ही वे कभी बेटे-बहुओं के पास गए थे।
दोनों बेटे अपनी गृहस्थी में रम गए थे एक बेटी ही थी जो निरंतर अपने माता-पिता पर नजर बनाए हुए थी।
बेटों का अब फोन-कॉल वाला सिलसिला भी कम हो गया था।
हफ्ते वाला सिस्टम, महीने से साल और अब बड़े त्योहारों तक ही सिमटकर रह गया था।
एक बार रमा जी अत्यधिक बीमार हो गईं तब देखरेख के वास्ते दोनों बेटों को खबर पहुँचाई गई दोनों ने ही अपनी नौकरी से छुट्टी ना मिलने का बहाना बताकर आने से इंकार कर दिया था।
अब सारी जिम्मेदारी घनश्याम जी पर आ पड़ी थी। चूंकि घनश्याम जी अपनी नौकरी से अब सेवानिवृत्त हो चुके थे परंतु फिर भी अकेले किसी पुरुष को घर और बीमार व्यक्ति की सहेज-सम्हाल करना आसान नहीं था वह भी ऐसा व्यक्ति जिसने घरू जिम्मेदारियां कभी उठाई ही ना हों।
बेटी को घनश्याम जी ने खबर नहीं दी थी लेकिन फिर भी उसे यह बात पता चल गई तो वह अपनी नौकरी से अवकाश लेकर सीधे अपनी माँ की देखरेख करने के वास्ते घर पहुँच गई।
कुछ दिनों में रमा जी पूर्णतः स्वस्थ्य हो गईं तब उदिता पुनः अपनी नौकरी पर चली गई।
अब घनश्याम जी उदिता के लिए लड़का तलाशने लगे तब उदिता ने यह कहकर शादी से मनाकर दिया कि मैं शादी नहीं करूंगी और यदि करूंगी भी तो ऐसे लड़के से जो मेरे साथ मेरे माता-पिता की भी देखभाल करेगा।
घनश्याम जी ने उदिता को समझाया बेटी यह कैसी जिद है? फिर भी उदिता अपनी बात पर कायम ही रही।
कुछ ही दिनों में उदिता और घनश्याम जी की तलाश खत्म हुई एक ऐसा लड़का भी मिल गया जो अपने माता-पिता के साथ उदिता के माता-पिता की जिम्मेदारी उठाने के लिए भी तैयार था।
उदिता की शादी हो गई। अब उदिता जहाँ नौकरी करती थी, वहीं तीन फ्लैट एक साथ ले रखे थे एक साइड में उसके पति निखिल के माता-पिता, दूसरी साइड उदिता के माता- पिता और बीच के कमरों में निखिल एवम उदिता स्वयं रहते थे।
आज घनश्याम जी बहुत शर्मिंदा थे और अपनी बेटी उदिता से क्षमा मांगकर पश्चाताप भी कर रहे थे। सूरज और गौरव तो अपने नाम की लाज भी नहीं बचा सके।
तुम सचमुच हमारी उदिता हो बेटी। तुम जैसी औलाद किस्मत वालों को मिलती है। आज मैं अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हूँ।
स्वरचित
©अनिला द्विवेदी तिवारी
जबलपुर मध्यप्रदेश
Aksar aisa khanion main hi hota hai. Hakikat main to koi apni galti nahi Manta balki samay ke saath aur nishthur ho jate hain..chahe mata pita ho vo bhi usi santan ko dabate Hain Jo hamesha unka bhala sochti ho.